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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - जातवेदाः छन्दः - जगती सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    1

    अग्ने॑ जा॒तान्प्र णु॑दा मे स॒पत्ना॒न्प्रत्यजा॑ताञ्जातवेदो नुदस्व। अ॑धस्प॒दं कृ॑णुष्व॒ ये पृ॑त॒न्यवोऽना॑गस॒स्ते व॒यमदि॑तये स्याम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । जा॒तान् । प्र । नु॒द॒ । मे॒ । स॒ऽपत्ना॑न् । प्रति॑ । अजा॑तान् । जा॒तऽवे॒द॒: । नु॒द॒स्व॒ । अ॒ध॒:ऽप॒दम् । कृ॒णु॒ष्व॒ । ये । पृ॒त॒न्यव॑: । अना॑गस: । ते । व॒यम्। अदि॑तये । स्या॒म॒ ॥३५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने जातान्प्र णुदा मे सपत्नान्प्रत्यजाताञ्जातवेदो नुदस्व। अधस्पदं कृणुष्व ये पृतन्यवोऽनागसस्ते वयमदितये स्याम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । जातान् । प्र । नुद । मे । सऽपत्नान् । प्रति । अजातान् । जातऽवेद: । नुदस्व । अध:ऽपदम् । कृणुष्व । ये । पृतन्यव: । अनागस: । ते । वयम्। अदितये । स्याम ॥३५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 34; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और राजपुरुष के कर्तव्य का उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे बलवान् राजन् वा सेनापति ! (मे) मेरे (जातान्) प्रसिद्ध (सपत्नान्) वैरियों को (प्रणुद) निकाल दे, (जातवेदः) हे बड़े बुद्धिवाले राजन् ! (अजातान्) अप्रसिद्ध [शत्रुओं] को (प्रति) उलटा (नुदस्व) हटादे। (ये) जो (पृतन्यवः) संग्राम चाहनेवाले [विरोधी] हैं, (उन्हें) (अधस्पदम्) अपने पाँव तले (कृणुष्व) करले (ते) वे (वयम्) हम लोग (अदितये) अदीन भूमि के लिये (अनागसः) निर्विघ्न हो कर (स्याम) रहें ॥१॥

    भावार्थ

    राजा आदि सब लोग गुप्त दूतों द्वारा प्रकट और गुप्त दुष्टों को वश में करें, जिस से धर्मात्मा लोग निर्विघ्नता से संसार का उपकार करते रहें ॥१॥ इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध कुछ भेद से यजुर्वेद में है-१५।१ ॥

    टिप्पणी

    १−(अग्ने) बलवन् राजन् सेनापते वा (जातान्) प्रादुर्भूतान् (प्र णुद) अपसारय (सपत्नान्) वैरिणः (प्रति) प्रतिकूलम् (अजातान्) अप्रकटान् (जातवेदः) हे प्रसिद्धप्रज्ञ (नुदस्व) प्रेरय (अधस्पदम्) अ० २।७।२। पादस्याधस्तात् (कृणुष्व) कुरु (ये) शत्रवः (पृतन्यवः) पृतना-क्यच्, उ प्रत्ययः। कव्यध्वरपृतनस्यर्चि लोपः। पा० ७।४।३९। इत्याकारलोपः। संग्रामेच्छवः (अनागसः) निर्विघ्नाः (ते) तादृशाः (वयम्) धार्मिकाः (अदितये) अदीनायै भूम्यै-निघ० १।१ ॥

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    विषय

    अनागस: अदितये [स्याम]

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! आप मे (जातान्) = मेरे अन्दर प्रादुर्भूत हुए-हुए (सपत्नान्) = शत्रुओं को (प्रणुद) = परे प्रेरित कीजिए। हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो ! (अ-जातान्) = कुछ-कुछ [अ-ईषत्] प्रकट हो रहे-जिनके प्रादुर्भूत होने की सम्भावना हो रही है, उन्हें भी, (प्रतिनुदस्व) = परे धकेल दीजिए। २.(ये पृतन्यव:) = जो हमारे साथ संग्राम की इच्छावाले शत्रु हैं, उन्हें (अधस्पदं कृणुष्व) = हमारे पाँव तले कर दीजिए, हम उन्हें परास्त करनेवाले हों। (ते वयम्) = वे हम अथवा [तव] आपके उपासक हम (अनागस:) = निष्पाप होकर (अदितये स्याम) = स्वास्थ्य के अखण्डन के लिए [अखण्डितत्वाय], अदीनता के लिए तथा अनभिशस्ति [अहिंसन] के लिए हों।

     

    भावार्थ

    प्रभुस्मरण हमारे प्रादुर्भूत व प्रादुर्भूत होनेवाले सभी शत्रुओं को दूर करें। हमपर आक्रमण करनेवाले सभी शत्रुओं को हम जीतें। निष्पाप होकर हम 'स्वस्थ, अदीन व अहिंसित बनें।

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रि ! (मे) मेरे (जातान् सपत्नान्) पैदा हुए शत्रुओं को (प्र नुद) परे धकेल, (जातवेदः) हे जातप्रज्ञ प्रधानमन्त्रि ! (अजातान्) जो अभी शत्रुरूप में पैदा नहीं हुए उन्हें (प्रति) अपनी ओर (नुदस्व) प्रेरित कर, अपनाने का यत्न कर। (ये) तथा जो (पृतन्यवः) सेना द्वारा युद्धेच्छु हैं उन्हें (अधस्पदम्) निज पैरों तले (कृणुष्व) कर ताकि (ते वयम्) वे हम (अनागसः) निष्पाप हुए (अदितये) अविनाश के लिये (स्याम) हों।

    टिप्पणी

    [प्रजाजन या सम्राट् की उक्ति अग्रणी के प्रति है (ते वयम्) "वे हम" अर्थात् प्रजावर्ग और शासक। शत्रुओं के न रहते हम धर्मकृत्य कर के निष्पाप हो कर अविनाश के लिये हों। अदितये= अ + दोङ् क्षये + क्तिन्। जातवेदाः= जातप्रज्ञानः (निरुक्त ७।५।१९)]।

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    विषय

    शत्रु पराजय की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्ने ! विद्वन् ! राजन् ! प्रभो ! तू ( मे) मेरे (जातान्) उत्पन्न हुए (स-पत्नान् ) शत्रुओरं को (प्र णुद ) दूर कर। और हे (जात-वेदः) समस्त उत्पन्न हुए पदार्थी को जानने हारे विद्वन् ! (अज्ञातान्) तू उन को भी जो अभी शत्रु बने नहीं हुए प्रत्युत उनके शत्रु बन जाने के लक्षण दीख रहे हों उन को भी (प्रति नुदस्व) दूर कर। और ( ये ) जो ( पृतन्यवः) सेना लेकर मुझ पर चढ़ाई करने के उद्योग में हैं उनको (अधःपदम्) मेरे चरण के नीचे, या मेरे से नीचे स्थान पर, मेरे से कम योग्यता और कम मान, प्रतिष्ठा वाला (कृणुष्व) कर। (ते अदितये) तुझ अखण्डनीय शासन करने वाले राजा के लिये (वयम्) हम प्रजागण सदा (अनागसः) निरपराध (स्याम) रहें।

    टिप्पणी

    ‘प्रणुद नः सपत्नात्’, ‘नुद जातवेद’ इति यजु० । उत्तरार्धस्तु यजुषि ‘अधि नो ब्रूहि सुमता अहेडंस्तवस्याम शर्मस्त्रिवरूथ उद्भौ’। इति यजु०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा परमेष्ठी च ऋषिः। जातवेदो देवता। जगती छन्द। एकर्चं सूक्तम॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Fear and Sin

    Meaning

    Agni, lord of light and fire, omnipresent in existence, inviolable power of nature and the world, ward off my adversaries arisen against me. Throw off the adversaries upfront against me. Throw off the adversaries rising against my power and prestige. Throw down and subdue the enemies fighting against me. May we be and abide sinless and strong for mother earth and her children against all odds.

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    Subject

    Jatavedah

    Translation

    O adorable Lord, drive away our rivals, who are born; and prevent those who are yet to be born, O omniscient. Put them under foot who want to invade us. May we, the sinless, be favoured with your creative power. (Also Yv. XV.2)

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.35.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    O ruler! drive away my foes who are born and O master of vedic knowledge! repel even those enemies of mine who are to come in light, make down my adversaries beneath my feet, may we be sinless before you who is free and unimpaired.

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    Translation

    O King, drive off my rivals born and living, repel those yet unborn, O learned person! Cast down beneath my feet mine adversaries. May we be sinless for thee the supreme ruling king.

    Footnote

    see Yajur, 15-1 (Hymn 34).

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अग्ने) बलवन् राजन् सेनापते वा (जातान्) प्रादुर्भूतान् (प्र णुद) अपसारय (सपत्नान्) वैरिणः (प्रति) प्रतिकूलम् (अजातान्) अप्रकटान् (जातवेदः) हे प्रसिद्धप्रज्ञ (नुदस्व) प्रेरय (अधस्पदम्) अ० २।७।२। पादस्याधस्तात् (कृणुष्व) कुरु (ये) शत्रवः (पृतन्यवः) पृतना-क्यच्, उ प्रत्ययः। कव्यध्वरपृतनस्यर्चि लोपः। पा० ७।४।३९। इत्याकारलोपः। संग्रामेच्छवः (अनागसः) निर्विघ्नाः (ते) तादृशाः (वयम्) धार्मिकाः (अदितये) अदीनायै भूम्यै-निघ० १।१ ॥

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