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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 38/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - आसुरी वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - केवलपति सूक्त
    1

    इ॒दं ख॑नामि भेष॒जं मां॑प॒श्यम॑भिरोरु॒दम्। प॑राय॒तो नि॒वर्त॑नमाय॒तः प्र॑ति॒नन्द॑नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒दम् । ख॒ना॒मि॒ । भे॒ष॒जम् । मा॒म्ऽप॒श्यम् । अ॒भि॒ऽरो॒रु॒दम् । प॒रा॒ऽय॒त: । नि॒ऽवर्त॑नम् । आ॒ऽय॒त: । प्र॒ति॒ऽनन्द॑नम् । ३९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इदं खनामि भेषजं मांपश्यमभिरोरुदम्। परायतो निवर्तनमायतः प्रतिनन्दनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इदम् । खनामि । भेषजम् । माम्ऽपश्यम् । अभिऽरोरुदम् । पराऽयत: । निऽवर्तनम् । आऽयत: । प्रतिऽनन्दनम् । ३९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 38; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    विवाह में प्रतिज्ञा का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे स्वामिन् ! मैं वधू] (मांपश्यम्) लक्ष्मी के देखनेवाले [खोजनेवाले], (अभिरोरुदम्) परस्पर संगति देनेवाले, (परायतः) दूर जानेवाले के (निवर्तनम्) लौटानेवाले, (आयतः) आनेवाले के (प्रतिनन्दनम्) स्वागत करनेवाले (इदम्) इस [प्रतिज्ञारूप] (भेषजम्) भयनिवारक औषध को (खनामि) खोदती हूँ [प्रकट करती हूँ] ॥१॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार वैद्य उत्तम ओषधि को खोद कर उपकार लेता है, इसी प्रकार वधू वर प्रतिज्ञा करके परस्पर सुख बढ़ावें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(इदम्) प्रतिज्ञारूपम् (खनामि) खननेन अन्वेषणेन प्राप्नोमि (भेषजम्) भयनिवारकमषौधम् (मांपश्यम्) इन्दिरा लोकमाता मा-अमर० १।२९। मा=लक्ष्मीः। पाघ्राध्माधेट्दृशः शः। पा० ३।१।१३७। इति दृशेः शप्रत्ययः। पाघ्राघ्मा०। पा० ७।३।७८। पश्यादेशः। तत्पुरुषे कृति बहुलम्। पा० ६।३।१४। इति द्वितीयाया अलुक्। मां लक्ष्मीं पश्यत् विलोकयत् (अभिरोरुदम्) अभि+रोरु+दम्। मीपीभ्यां रुः। उ० ४।१०१। इति रुङ् गतिरेषणयोः-रु+दा-क। अभिरोरोः, अभिगतेः परस्परसंगतेः प्रदम् (परायतः) परा+आङ्+इण् गतौ-शतृ। दूरंगच्छतः पुरुषस्य (निवर्त्तनम्) पुनरागमनकारणम् (आयतः) आगच्छतः पत्युः (प्रतिनन्दनम्) स्वागतकरम् ॥

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    विषय

    प्रतिज्ञारूप औषध

    पदार्थ

    १. जिस समय एक पत्नी [वधू] संस्कार के समय सभा में प्रतिज्ञा करती है कि ('स नो अर्यमा देवः प्रेतो मुञ्चतु मा पते:') = 'वे शत्रुओं का नियमन करनेवाले प्रभु मुझे यहाँ पितगृह से मुक्त करें, परन्तु मैं पतिगृह से कभी पृथक्न होऊँ' तो यह प्रतिज्ञा एक प्रबल औषध का कार्य करती है और पति को [वर को] पर-स्त्रीपराङ्मुख बनाती है। यह प्रतिज्ञा पति-पत्नी के प्रेम की कमीरूप रोग का औषध बन जाती है। पत्नी कहती है कि मैं (इदं भेषजम्) = इस प्रतिज्ञारूप औषध को (खनामि) - [खन् to bury] हृदय क्षेत्र में गाड़नेवाली बनाती हूँ। २. यह

    औषध (मां पश्यम्) [माम् एवं पत्ये प्रदर्शयत्] = पति के लिए केवल मुझे ही दिखानेवाली बनती है, पति मेरे अतिरिक्त अन्य स्त्रियों की ओर नहीं देखता। (अभिरोरुदम्) [रोरुधम्] = पति के अन्य नारी-संसर्ग को रोकती है। (परायतः निवर्तनम्) = अपने से [मुझसे] परे जाते हुए पति के पुनरावर्तन का कारण बनती है और (आयतः प्रतिनन्दनम्) = मेरे प्रति आते हुए पति के आनन्द को उत्पन्न करती है।

    भावार्थ

    पत्नी अपने मन में दृढ़ निश्चय करे कि मुझे पतिगृह से कभी पृथक नहीं होना। ऐसा करने पर पति कभी पर-स्त्री की ओर दृष्टि न करेगा, वह अन्य नारी-संसर्ग से रुकेगा, घर से दूर होता हुआ घर लौटने की कामनावाला होगा और पत्नी के सम्पर्क में प्रसन्नता का अनुभव करेगा।

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    भाषार्थ

    (इदम्) इस (भेषजम्) औषध को (खनामि) मैं खोदती हूं, (मां पश्यम्) जो कि मुझे देखती है, अर्थात् मेरे स्वार्थ को दृष्टि में रखती है, (अभिरोरुदम्) और [मेरे वियोग में पति को] रुला देती है, जो (परायतः) दूर गए पति को (निवर्तनम्) लौटा जाती है, (आयतः) और लौट आए के (प्रति नन्दनम्) के प्रति आनन्दकारी होती है।

    टिप्पणी

    [यह भेषज कोई वानस्पतिक वस्तु नहीं, अपितु पत्नी का पति के प्रति गाढ़ अनुराग है। किसी भी वनस्पति की आखें नहीं होतीं जिन द्वारा कि वह पत्नी को निज-अनुकूलता में देखें। खनामि द्वारा हृदय के अन्तःस्थल में विद्यमान गाढ़-अनुराग का प्रकटीकरण ही अभिप्रेत है, यही महाभेषज है, जो कि पत्नी के वियोग में पति को रुला देती है, विह्वल कर देती है, गए को लौटा लाती और लौट आए को प्रसन्न कर देती है]।

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    विषय

    स्वयंवर-विधान।

    भावार्थ

    मैं स्त्री (इदं) इस (भेषजं) औषध अर्थात् बुद्धिमानों द्वारा उपदिष्ट ओषधि को (खनामि) खोदती हूं, विवेक विचार पूर्वक स्वीकार करती हूं, यह औषध ऐसी है (मा-पश्यम्) कि पति मुझे ही देखे, यह इसे (अभि-रोरुदम्) अत्यन्त दूर जाने से रोके और यदि वह कार्यवश प्रवासी भी हो तो (परायतः) दूर के देश से भी (निवर्तनम्) उसे लौटा ले, (आयतः) और आते हुए पति को (प्रति नन्दनम्) प्रसन्न कर दे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। वनस्पतिर्देवता। १, २, ४, ५ अनुष्टुप्। ३ चतुष्पादुष्णिक्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Marriage Vow

    Meaning

    I bring up and offer you this herbal token of love for me which is self-attractive and love afflictive exclusively towards me with freedom from fear. It would make you pine for me from afar, bring you back and exhilarate you with joy when you arrive back home.

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    Subject

    Vanaspatih - Asuri

    Translation

    I dig up this medicinal herb, which will make my beloved look at me and weep bitterly. It causes one going away (parayatah) to return (nirvatanam) and greets (pratinandanam) (ayatah) one.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.39.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    I dig this healing herb that make my husband look on me and weep, in time of parting from me; that bids him return if he parts with any task and greet him where he comes.

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    Translation

    I take this propitious vow that makes my husband look on me, that deters him from going afar from me, that bids the parting friend return and kindly greets him as he returns.

    Footnote

    Just as skilled physicians dig herbs and derive advantage from them, so husband and wife should enhance their happiness and worldly though the vow of marriage.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(इदम्) प्रतिज्ञारूपम् (खनामि) खननेन अन्वेषणेन प्राप्नोमि (भेषजम्) भयनिवारकमषौधम् (मांपश्यम्) इन्दिरा लोकमाता मा-अमर० १।२९। मा=लक्ष्मीः। पाघ्राध्माधेट्दृशः शः। पा० ३।१।१३७। इति दृशेः शप्रत्ययः। पाघ्राघ्मा०। पा० ७।३।७८। पश्यादेशः। तत्पुरुषे कृति बहुलम्। पा० ६।३।१४। इति द्वितीयाया अलुक्। मां लक्ष्मीं पश्यत् विलोकयत् (अभिरोरुदम्) अभि+रोरु+दम्। मीपीभ्यां रुः। उ० ४।१०१। इति रुङ् गतिरेषणयोः-रु+दा-क। अभिरोरोः, अभिगतेः परस्परसंगतेः प्रदम् (परायतः) परा+आङ्+इण् गतौ-शतृ। दूरंगच्छतः पुरुषस्य (निवर्त्तनम्) पुनरागमनकारणम् (आयतः) आगच्छतः पत्युः (प्रतिनन्दनम्) स्वागतकरम् ॥

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