अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 40/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रस्कण्वः
देवता - सरस्वान्
छन्दः - भुरिगुष्णिक्
सूक्तम् - सरस्वान् सूक्त
1
यस्य॑ व्र॒तं प॒शवो॒ यन्ति॒ सर्वे॒ यस्य॑ व्र॒त उ॑पतिष्ठन्त॒ आपः॑। यस्य॑ व्र॒ते पु॑ष्ट॒पति॒र्निवि॑ष्ट॒स्तं सर॑स्वन्त॒मव॑से हवामहे ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । व्र॒तम् । प॒शव॑: । यन्ति॑ ।सर्वे॑ । यस्य॑ । व्र॒ते । उ॒प॒ऽतिष्ठ॑न्ते । आप॑: । यस्य॑ । व्र॒ते । पु॒ष्ट॒ऽपति॑: । निऽवि॑ष्ट: । तम् । सर॑स्वन्तम् । अव॑से । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥४१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य व्रतं पशवो यन्ति सर्वे यस्य व्रत उपतिष्ठन्त आपः। यस्य व्रते पुष्टपतिर्निविष्टस्तं सरस्वन्तमवसे हवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । व्रतम् । पशव: । यन्ति ।सर्वे । यस्य । व्रते । उपऽतिष्ठन्ते । आप: । यस्य । व्रते । पुष्टऽपति: । निऽविष्ट: । तम् । सरस्वन्तम् । अवसे । हवामहे ॥४१.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
ईश्वर के उपासना का उपदेश।
पदार्थ
(यस्य) जिसके (व्रतम्) सुन्दर नियम पर (सर्वे) सब (पशवः) पशु अर्थात् प्राणी (यन्ति) चलते हैं, (यस्य) जिसके (व्रते) नियम में (आपः) जल (उपतिष्ठन्ते) उपस्थित रहते हैं। (यस्य) जिसके (व्रते) नियम में (पुष्टपतिः) पोषण का स्वामी, पूषा सूर्य (निविष्टः) प्रवेश किये हुए है, (तम्) उस (सरस्वन्तम्) बड़े विज्ञानवाले परमेश्वर को (अवसे) अपनी रक्षा के लिये (हवामहे) हम बुलाते हैं ॥१॥
भावार्थ
जैसे परमेश्वर के नियम से यह सब लोक-लोकान्तर परस्पर आकर्षण में रह कर एक दूसरे का सहाय करते हैं, उसी प्रकार मनुष्य परमेश्वर की महिमा विचार कर परस्पर उपकार करें ॥१॥
टिप्पणी
१−(यस्य) सरस्वतः (व्रतम्) वरणीयं नियमम् (पशवः) अ० २।२६।१। पशवः=व्यक्तवाचश्चाव्यक्तवाचश्च-निरु० ११।२९। सर्वे प्राणिनः (यन्ति) गच्छन्ति (व्रते) शासने (उपतिष्ठन्ते) अकर्मकाच्च। पा० १।३।२६। इत्यात्मनेपदम्। उपस्थिताः सन्ति (आपः) जलानि (पुष्टपतिः) पोषणस्य स्वामी। पूषा सूर्यः (तम्) तादृशम् (सरस्वन्तम्) सरांसि श्रेष्ठानि विज्ञानानि सन्ति यस्मिंस्तं परमेश्वरम् (अवसे) रक्षणाय (हवामहे) आह्वयामः ॥
विषय
प्रभु के व्रत में
पदार्थ
१. (यस्य व्रतम्) = जिसके व्रत का (सर्वे पशवः यन्ति) = सब पशु अनुगमन करते हैं, अर्थात् प्रभु ने सब पशुओं में वासना की स्थापना की है, उस वासना के अनुसार सब पशु कर्मों से प्रेरित होते है, (यस्य व्रते) = जिसके व्रत में (आपः उपतिष्ठन्ते) = जल हमारे समीप उपस्थित होते हैं। ये जल बहते-बहते समुद्र में जा मिलते हैं, वहाँ से सूर्य-किरणों द्वारा बाष्पीभूत होकर अन्तरिक्ष में पहुँचते हैं और वृष्टि द्वारा हमें फिर प्राप्त होते हैं। २. (यस्य व्रते) = जिसके नियम में (पुष्टपतिः) = सब पोषणों का स्वामी यह सूर्य-सब प्राणशक्तियों को अपनी किरणों में लिये हुए यह सूर्य, (निविष्ट:) = अपने मार्ग में विद्यमान है, (तम्) = उस (सरस्वन्तम्) = महान् विज्ञानराशि प्रभु को (अवसे हवामहे) = अपने रक्षण के लिए पुकारते हैं।
भावार्थ
सब पशु. जल व सूर्य जिस प्रभु के निर्धारित व्रतों में चल रहे हैं। उस विज्ञानस्वरूप प्रभु को हम अपने रक्षण के लिए पुकारते हैं।
भाषार्थ
(यस्य व्रतम्) जिस के व्रत का (सर्वे पशवः) सब प्राणी (यन्ति) अनु गमन करते हैं, (यस्य व्रते) जिस के व्रत [के अनुसार] (आप) जल (उपतिष्ठन्ते) उपस्थित होते हैं [नदी आदि में]। (यस्य व्रते) जिस के (व्रते) व्रत में (पुष्टपतिः) पुष्ट अन्नों का पति [मेघ] (निविष्टः) [अन्तरिक्ष में] नियम से प्रविष्ट होता है (तम्) उस (सरस्वन्तम्) सरण करने वाले मेघों के स्वामी [सूर्य] को, (अवसे) रक्षार्थ (हवामहे) हम बुलाते हैं।
टिप्पणी
[सूर्य व्रती है। नियमानुसार उदितास्त होता और ऋतुओं का सर्जन करता है। यह उसका व्रत है, इसका वह उल्लंघन नहीं करता। सब प्राणी तथा जल आदि सूर्य के व्रतानुसार चलते हैं। पुष्टपति है मेघ। वह भी सूर्य निर्दिष्ट व्रतानुसार समय पर अन्तरिक्ष में आ प्रविष्ट होता है। "हवामहे" द्वारा यह सूचित किया है कि अनावृष्टि की अवस्था में यज्ञिय साधन आदि द्वारा सूर्य की शक्ति का आह्वान करना चाहिये। पैप्पलाद शाखा में "हवामहे" के स्थान में “जुहुवेम" पाठ है]। तथा जिस के नियम में सब प्राणी चलते हैं, जिसके नियम में जल उपस्थित होते हैं। जिस के नियम में पुष्ट अन्नादि का पति पूषा सूर्य द्युलोक में निर्दिष्ट है उस विज्ञानवान् परमेश्वर को रक्षार्थ, हम पुकारते हैं। [आपः= वर्षा के जल का बरसना, नदियों आदि के जलों का प्रवहण हो कर तत्तद् स्थानों में उपस्थित होना परमेश्वर के रचे नियमानुसार हो रहा है। प्राणी भी नियम में बन्धे शयन-जागरण तथा अन्य कर्म करते हैं। सूर्य भी द्युलोक में निविष्ट हुआ नियम पूर्वक अन्नों तथा फलों का विपाक ऋत्वनुसार करता है। परमेश्वर सरस्वान् है। सरः विज्ञानम्१, तद्वान् है। आत्मरक्षार्थ स्तुति प्रार्थना-उपासना विधि द्वारा निज जीवनों में उस का आह्वान करना चाहिये]। [१. सरो विज्ञानमुदकं वा विद्यतेऽस्यां सा सरस्वती वाक्, नदी वा (उणा० ४।१९०) दयानन्द। अतः सरः= विज्ञानम्, तद्वान परमेश्वरः सरस्वान्।]
विषय
रससागर ईश्वर का स्मरण।
भावार्थ
(यस्य) जिसके (व्रतं) किये कर्म का (सर्वे पशवः) समस्त पशु, बद्ध जीव (यन्ति) अनुगमन करते हैं, अनुकरण करते हैं। (यस्य) जिसके (व्रते) ज्ञान में (आपः) आपः = आप्तकाम, जीवन्मुक्त, कृतार्थ पुरुष (उप-तिष्ठन्ते) उपस्थित हैं, विद्यमान हैं, और (यस्य व्रते) जिसके अपने किये कर्म में (पुष्ट-पतिः) उन उन नाना प्रकार के पुष्टिकारक पदार्थों का स्वामी, पूषा परमेश्वर स्वयं (नि विष्टे) विराजमान है। (तं) उस (सरस्वन्तं) महान्, समुद्र के समान समस्त ज्ञान और कर्मों के विशाल स्वामी, प्रभु को हम (अवसे) अपनी रक्षा के लिए (हवामहे) स्मरण करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्व ऋषिः। सरस्वान् देवता। १ भुरिक्। २ त्रिष्टुप्। द्वयृचं सूक्तम्।
इंग्लिश (4)
Subject
Lord of Nectar Sweets
Meaning
For our protection, promotion, peace and progress, we invoke the generous Lord of the showers of life, light and wealth, Sarasvan, in whose law all living beings live and work, in whose law and discipline all the waters flow, and in whose law and discipline the life giver of mother nature, Pusha, the sun, is established in orbit.
Subject
Sarasvan
Translation
Whose law all the animals follow; under whose law the’ waters mingle; under whose law the lord of nourishment is placed-Him the Lord of vitality (Sarasvan), we invoke for protection.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.41.1AS PER THE BOOK
Translation
We for our protection adore Divinity, the Primal ground of knowledge and speech in whose law the creatures freely wander, whose ordinances abide the waters and in whose command Pustapatih, the air remains bound.
Translation
We invoke God, under Whose Law all men reside, to preserve and aid us. Him under, whose ordinance abide the waters, whose Command, the Sun, the lord of plenty, obeys.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(यस्य) सरस्वतः (व्रतम्) वरणीयं नियमम् (पशवः) अ० २।२६।१। पशवः=व्यक्तवाचश्चाव्यक्तवाचश्च-निरु० ११।२९। सर्वे प्राणिनः (यन्ति) गच्छन्ति (व्रते) शासने (उपतिष्ठन्ते) अकर्मकाच्च। पा० १।३।२६। इत्यात्मनेपदम्। उपस्थिताः सन्ति (आपः) जलानि (पुष्टपतिः) पोषणस्य स्वामी। पूषा सूर्यः (तम्) तादृशम् (सरस्वन्तम्) सरांसि श्रेष्ठानि विज्ञानानि सन्ति यस्मिंस्तं परमेश्वरम् (अवसे) रक्षणाय (हवामहे) आह्वयामः ॥
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