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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 41 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 41/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रस्कण्वः देवता - श्येनः छन्दः - जगती सूक्तम् - सुपर्ण सूक्त
    1

    अति॒ धन्वा॒न्यत्य॒पस्त॑तर्द श्ये॒नो नृ॒चक्षा॑ अवसानद॒र्शः। तर॒न्विश्वा॒न्यव॑रा॒ रजां॒सीन्द्रे॑ण॒ सख्या॑ शि॒व आ ज॑गम्यात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अति॑ । धन्वा॑नि । अति॑ । अ॒प: । त॒त॒र्द॒ । श्ये॒न: । नृ॒ऽचक्षा॑: । अ॒व॒सा॒न॒ऽद॒र्श: । तर॑न् । विश्वा॑नि । अव॑रा । रजां॑सि । इन्द्रे॑ण । सख्या॑ । शि॒व: । आ । ज॒ग॒म्या॒त् ॥४२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अति धन्वान्यत्यपस्ततर्द श्येनो नृचक्षा अवसानदर्शः। तरन्विश्वान्यवरा रजांसीन्द्रेण सख्या शिव आ जगम्यात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अति । धन्वानि । अति । अप: । ततर्द । श्येन: । नृऽचक्षा: । अवसानऽदर्श: । तरन् । विश्वानि । अवरा । रजांसि । इन्द्रेण । सख्या । शिव: । आ । जगम्यात् ॥४२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 41; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ऐश्वर्य पाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (नृचक्षाः) मनुष्यों को देखनेवाले, (अवसानदर्शः) अन्त के देखनेवाले, (श्येनः) ज्ञानवान् परमात्मा ने (धन्वानि) निर्जल देशों को (अति) अत्यन्त करके और (अपः) जलों को (अति) अत्यन्त करके (ततर्द) पीड़ित [वशीभूत] किया है। (शिवः) मङ्गलकारी परमेश्वर (अवरा) अत्यन्त श्रेष्ठ (विश्वानि) सब (रजांसि) लोकों को (तरन्) तराता हुआ (सख्या) मित्ररूप (इन्द्रेण) ऐश्वर्य के साथ (आ जगम्यात्) आवे ॥१॥

    भावार्थ

    जिस परमेश्वर के आधीन वृष्टि, अनावृष्टि, मनुष्यों के कर्मों के फल और श्रेष्ठों को मुक्ति दान आदि हैं, उस परमात्मा की भक्ति करके मनुष्य ऐश्वर्य प्राप्त करें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(अति) अत्यन्तम् (धन्वानि) धन्व गतौ-कनिन्। मरुस्थलानि (अति) (अपः) जलानि (ततर्द) तर्द हिंसायाम्। पीडितवान्। वशीकृतवान् (श्येनः) अ० ३।३।३। श्येन आत्मा भवति श्यायतेर्ज्ञानकर्मणः-निरु० १४।१३। ज्ञानवान् परमात्मा (नृचक्षाः) अ० ४।१६।७। मनुष्याणां द्रष्टा (अवसानदर्शः) षो अन्तकर्मणि-ल्युट्+दृशिर् दर्शने-अच्। सीमादर्शकः (तरन्) तारयन्। पारयन् (विश्वानि) (अवरा) नास्ति वरं यस्मात्तद् अवरमत्यन्तश्रेष्ठम्। अवराणि। अत्यन्तश्रेष्ठानि (रजांसि) लोकान् (इन्द्रेण) ऐश्वर्येण (सख्या) मित्रभूतेन (शिवः) मङ्गलकारी (आ जगम्यात्) अ० ७।२६।२। आगच्छेत् ॥

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    विषय

    श्येनः, अवसानदर्श:

    पदार्थ

    १. वे प्रभु (धन्वानि) = मरुदेशों को (अति) = अतिक्रान्त करके (अपः अतिततर्द) = जलों को अतिशयेन खोल देते हैं। निरुदक प्रदेशों में भी वृष्टि की व्यवस्था करते हैं। (श्वेनः) = वे शंसनीय गतिवाले हैं, (नृचक्षा:) = सब मनुष्यों को देखनेवाले, उनके कर्मों के साक्षी हैं. (अवसानदर्श:) = [अवसीयते निश्चीयते इति अवसानं कर्मफलम्] कर्मफल को दिखलानेवाले हैं, सबको कर्मानुसार फल देनेवाले हैं। २. (विश्वानि) = सब (अबरा रजांसि) = निचले लोकों को (तरन्) = [तारयन्] पार कराता हुआ (शिव:) = वह कल्याणकारी प्रभु (सख्या इन्द्रेण) = मित्रभूत जितेन्द्रिय पुरुष को (आजगम्यात्) = प्राप्त होता है। सखा इन्द्र के साथ प्रभु का मेल हो। प्रभु हमें निचले लोकों से ऊपर उठाएँ, हमें जितेन्द्रिय बनने का सामर्थ्य दें और हमें प्राप्त हों।

    भावार्थ

    प्रभु हमारे कल्याण के लिए निरुदक प्रदेशों में भी वृष्टि की व्यवस्था करते हैं। वे प्रशंसनीय गतिवाले प्रभु हमारे कर्मों के साक्षी व कर्मफल प्रदाता हैं। वे हमें निचले लोकों से तराते हुए तथा जितेन्द्रिय बनने का सामर्थ्य देते हुए प्राप्त हों।

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    भाषार्थ

    (नृचक्षाः) नर-नारियों का निरीक्षक, (श्येनः) प्रशंसनीय गतिवाला परमेश्वर, (अवसानदर्शः) जो कि जगत् के अवसान का द्रष्टा है वह (धन्वानि अति) मरुस्थलों का अतिक्रमण कर (अपः प्रति) और समुद्रादि जलों का अतिक्रमण कर (ततर्द) सब जगत् की हिंसा अर्थात् विनाश प्रलय करता रहा है, या कर देता है। वह (विश्वानि अबरा रजांसि तरन्) समग्र अवर कोटि के लोकों को पार करता हुआ (सख्या इन्द्रेण) निज सखा जीवात्मा के साथ वर्तमान हुआ (शिवः) कल्याण करता है (आ जगम्यात्) वह हमें प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    [मन्त्र के पूर्वार्ध में परमेश्वर की संहार शक्ति का कथन हुआ है, और उत्तरार्ध में उस के शिवस्वरूप का। श्येनः= "शंसनीयं गच्छति" (निरु ४।४।२४, जसुरि पद ५१) तथा “श्येन आत्मा भवति श्यायतेर्ज्ञानकर्मणः" (निरुक्त १३ (१४)। २ (१) ७२।१४)। इन्द्र= जीवात्मा (अष्टा० इन्द्रियमिन्द्रलिङ्गमित्यादि; ५।२।९३)। सब लोक परमेश्वर की शक्ति की अपेक्षा शक्ति में अवर कोटि के हैं, तभी परमेश्वर उन का तर्दन कर सकता है। तर्दन और अवसान समानाभिप्रायक हैं]।

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    विषय

    मुक्ति की प्रार्थना।

    भावार्थ

    जिस प्रकार सूर्य मरुस्थलों में भी जलों की वर्षा करता है और इन्द्र = मेघ के रूप में सर्वत्र कल्याणस्वरूप होकर प्राप्त होता है उसी प्रकार (श्येनः) ज्ञानवान् या सर्व व्यापक प्रभु (नृचक्षाः) सब मनुष्यों का द्रष्टा (अवसान-दर्शः) अवसान अर्थात् प्रलयकाल में भी सब पदार्थों और कर्म, कर्मफलों का द्रष्टा, (धन्वानि) भोगभूमियों को (अति) अतिक्रमण करके (अपः) ज्ञान जलों को (ततर्द) वर्षाता है। और (विश्वानि) समस्त (अवरा) नीचे के (रजांसि) लोकों को (तरन्) पार करता हुआ अर्थात् इन तीनों लोकों की जहां स्थिति नहीं वहां पर रहता हुआ (इन्द्रेण सख्या) अपने मित्र जीव के द्वारा (शिवः) यह कल्याण और सुखमय, आनन्दमय, तुरीयपद, मोक्षरूप परमात्मा (आ जगम्यात्) प्राप्त होता है, साक्षात् होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्व ऋषिः। श्येनो देवता। जगती। त्रिष्टुप्। द्वयृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    All Watchful Presence

    Meaning

    Lord Almighty, refulgent as Shyena, the celestial sun, pervades across the spaces and the regions of water, breaks the clouds over desert lands and, ultimately, destroys them all, too, watching the end of it all. May the Lord, all watchful of humanity, crossing over regions of the universe hitherward, come and be kind to us with love as friend of the human soul.

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    Subject

    Syenah

    Translation

    The Sun (Syena) falcon, observer of men, shower of result of their action, sweeps over deserts and over waters. May He, the propitious, come here with His companion, the resplendent Lord, passing over all the lower realms of the midspace.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.42.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    This Sun which possesses sharp and swift rays, becoming the means of sight of men and observing the end of space boundaries cleaves with its rays the middle region and the waters accumulated therein,. Let it traversing all the lower realms with the close contact of Indra the air come to us auspicious.

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    Translation

    Just as the Sun pours water over arid places, and is useful everywhere in the form of a cloud, so does God, the Observer of men, the Seer of the fruit of action at the time of dissolution, suppressing our carnal pleasures, showers knowledge, and traversing all air's lower realms, with soul as a friend appear before us as highly auspicious in salvation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अति) अत्यन्तम् (धन्वानि) धन्व गतौ-कनिन्। मरुस्थलानि (अति) (अपः) जलानि (ततर्द) तर्द हिंसायाम्। पीडितवान्। वशीकृतवान् (श्येनः) अ० ३।३।३। श्येन आत्मा भवति श्यायतेर्ज्ञानकर्मणः-निरु० १४।१३। ज्ञानवान् परमात्मा (नृचक्षाः) अ० ४।१६।७। मनुष्याणां द्रष्टा (अवसानदर्शः) षो अन्तकर्मणि-ल्युट्+दृशिर् दर्शने-अच्। सीमादर्शकः (तरन्) तारयन्। पारयन् (विश्वानि) (अवरा) नास्ति वरं यस्मात्तद् अवरमत्यन्तश्रेष्ठम्। अवराणि। अत्यन्तश्रेष्ठानि (रजांसि) लोकान् (इन्द्रेण) ऐश्वर्येण (सख्या) मित्रभूतेन (शिवः) मङ्गलकारी (आ जगम्यात्) अ० ७।२६।२। आगच्छेत् ॥

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