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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 43/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रस्कण्वः देवता - वाक् छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - वाक् सूक्त
    1

    शि॒वास्त॒ एका॒ अशि॑वास्त॒ एकाः॒ सर्वा॑ बिभर्षि सुमन॒स्यमा॑नः। ति॒स्रो वाचो॒ निहि॑ता अ॒न्तर॒स्मिन्तासा॒मेका॒ वि प॑पा॒तानु॒ घोष॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शि॒वा: । ते॒ । एका॑: । अशि॑वा: । ते॒ । एका॑: । सर्वा॑: । बि॒भ॒र्ष‍ि॒ । सु॒ऽम॒न॒स्यमा॑न: । ति॒स्र:। वाच॑: । निऽहि॑ता । अ॒न्त: । अ॒स्मिन् । तासा॑म् । एका॑ । वि । प॒पा॒त॒ । अनु॑ । घोष॑म् ॥४४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शिवास्त एका अशिवास्त एकाः सर्वा बिभर्षि सुमनस्यमानः। तिस्रो वाचो निहिता अन्तरस्मिन्तासामेका वि पपातानु घोषम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शिवा: । ते । एका: । अशिवा: । ते । एका: । सर्वा: । बिभर्ष‍ि । सुऽमनस्यमान: । तिस्र:। वाच: । निऽहिता । अन्त: । अस्मिन् । तासाम् । एका । वि । पपात । अनु । घोषम् ॥४४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 43; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    कल्याणी वाणी के प्रचार का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे पुरुष !] (ते) तेरी (एकाः) कोई [वाचायें] (शिवाः) कल्याणी हैं और (ते) तेरी (एकाः) कोई (अशिवाः) अकल्याणी हैं [और कोई माध्यमिका हैं], (सर्वाः) इन सबको (सुमनस्यमानः) अच्छे प्रकार मनन करता हुआ तू (बिभर्षि) धारण करता है। (तिस्रः) यह तीनों (वाचः) वाचायें (अस्मिन् अन्तः) इस [आत्मा] के भीतर (निहिताः) रक्खी रहती हैं, (तासाम्) उनमें से (एकाः) एक [कल्याणी वाणी] (घोषम् अनु) उच्चारण के साथ-साथ (वि) विशेष करके (पपात) ऐश्वर्यवती हुई है ॥१॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य अपने हृदय में हित, अहित और उदासीनता का विचार करके एक हित ही बोलते हैं, वही ऐश्वर्यवान् पुरुष संसार को ऐश्वर्यवान् करते हैं ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(शिवाः) कल्याण्यः। वेदवाचः (ते) तव (एकाः) अन्याः (अशिवाः) अकल्याण्यः। अहिताः (ते) (एकाः) (सर्वाः) शिवा अशिवा माध्यमिका वाचश्च (बिभर्षि) धरसि (सुमनस्यमानः) अ० १।३५।१। शोभनं ध्यायन्। सुमननशीलः (तिस्रः) त्रिसंख्याकाः (वाचः) वाण्यः (निहिताः) अवस्थिताः (अन्तः) मध्ये (अस्मिन्) आत्मनि। मनसि (तासाम्) वाचां मध्ये (एका) शिवा वाक् (वि) विशेषेण (पपात) पत ऐश्वर्ये लिट्। ईश्वरी बभूव (अनु) अनुसृत्य (घोषम्) उच्चारणध्वनिम् ॥

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    विषय

    तुल्यनिन्दास्तुतिः [मौनी]

    पदार्थ

    १. हे मिथ्याभिशप्त पुरुष ! (ते) = तेरे विषय में (एका) = एक तो (शिवा:) = स्तुतिरूप कल्याणी वाणी है। कितने ही व्यक्ति तेरे लिए प्रशंसात्मक शुभ शब्द बोलते हैं तथा (ते) = तेरे विषय में (अशिवा:) =  अस्तुतिरूप-निन्दात्मक एका:-अन्य वाणियाँ हैं, अर्थात् कितने ही व्यक्ति तेरे लिए निन्दा के शब्दों का प्रयोग करते हैं। तू उन सर्वाः-सब वाणियों को सुमनस्यमानः-'सुमना' की तरह आचरण करता हुआ, अर्थात् प्रसन्न मनवाला होता हुआ बिभर्षि-धारण करता है। २. तू इसप्रकार सोच कि निन्दावाक्य भी तो 'परा-पश्यन्ती-मध्यमा व वैखरी' रूप से चतुष्टयात्मक हैं। उनमें तिस्त्र: वाचः='परा-पश्यन्ती-मध्यमा' ये तीन वाणियाँ तो अस्मिन्-इस शब्द प्रयोक्ता पुरुष के अन्त: निहिता:-अन्दर ही अवस्थित होती हैं। तासाम्-उन चतुष्टयात्मक वाणियों में एका-एक वैखरीरूप वाणी ही घोषम् अनु विपपात-तालु व ओष्ठ व्यापारजन्य ध्वनि का लक्ष्य करके विशेषेण वर्णपदादिरूपेण प्रवृत्त होती है। उस निन्दात्मक वाक्य के तीन भाग तो उस प्रयोक्ता में ही रहे। एक ही तो मुझे प्राप्त हुआ है। इसप्रकार अधिक हानि तो निन्दा करनेवाले की ही है।

    भावार्थ

    हम निन्दा-स्तुति में समरूप से स्वस्थ मनबाले बने रहें। यह सोचें कि निन्दात्मक वाक्य का एक भाग ही तो हमारी ओर आता है, तीन भाग इस प्रयोक्ता के शरीर में ही स्थित होते हैं, एवं निन्दक की ही हानि है, हमारी नहीं।

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    भाषार्थ

    [हे पुरुष !] (ते) तेरी (एक) एक प्रकार की [वाचः] वाणियाँ (शिवाः) कल्याणमयी हैं, (ते) तेरी (एकाः) अन्य प्रकार की वाणियां (अशिवाः) अकल्याणरूप हैं; (सुमनस्यमानः) सुप्रसन्न हुआ (सर्वाः) उन सब वाणियों को (बिभर्षि) तू अपने में धारण करता है। (अस्मिन् अन्तः) इस पुरुष के भीतर (तिस्रः वाचः निहिताः) तीन वाणियां निहित रहती हैं, (तासाम्) उन में से (एका) एक वाणी (घोषम् अनु) ध्वनि के साथ (विपपात) बाहिर गिरती है।

    टिप्पणी

    [सायण ने चार वाणियों का निर्देश मन्त्र व्याख्या में किया है– परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी। और इनकी विस्तृत व्याख्या भी की है। मन्त्र के तीसरे पाद में "तिस्रः वाचः" द्वारा पुरुष में तीन वाणियों का निधान अर्थात् स्थिति कही है, और उनमें से एक "ध्वनि" रूप वाणी का मुख से पतन कहा है। वाणी "संस्कार रूप" में चित्त में निहित रहती है। यह "संस्कारमयी" वाणी है। यह संस्कारमयी वाणी पदवाक्यरूप में बोलते समय, प्रथम चित्त में स्थित होती है, प्रकट होती है। इसका उच्चारण करे या न करे, वक्ता की इच्छा पर निर्भर होता है। परन्तु जब वह बोलता है तो चित्तस्थ वाणी ध्वनि के साथ मुख से गिरती है। इस तृतीयावस्था की वाणी को "वैखरी" कहते हैं। वैखरी वाणी तालु, ओष्ठ आदि स्थानों में अभिव्यक्त हुई मुख द्वारा उच्चारित होती है। चित्तस्थ वाणी "पश्यन्ती" है, इसकी स्थिति को पुरुष विना मुख द्वारा उच्चारण किये भी जान रहा होता है। संस्कारमयी वाणी "परावाणी" है, जो कि वक्ता की इच्छा के विना चित्त में भी अभिव्यक्त नहीं होती। इन अन्त की द्विविध वाणियों का सम्बन्ध तालु-ओष्ठ आदि के साथ नहीं होता। मन्त्र में "मध्यमा" वाणी का प्रसंग नहीं। यद्यपि "चत्वारि वाक् परिमिता पदानि" (अथर्व० ९।१५।२७) चतुर्विध वाक्-पदों का कथन हुआ है]।

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    विषय

    चार प्रकार की वाणी।

    भावार्थ

    हे पुरुष ! (ते) तेरे प्रति (एकाः) एक प्रकार की वाणियां (शिवाः) शिव, कल्याणकारिणी, सुखप्रद हैं, और (एका:) एक प्रकार की, दूसरी (ते) तेरी (अशिवाः) अशिव, अमंगलकारी निन्दामय वाणियां हैं। तू उन सब को (सुमनस्यमानः) अपने चित्त को शुभ, सुन्दर, अविकृत भाव से रखते हुए ही (बिभर्षि) धारण कर, सुन। अर्थात् स्तुति और निन्दा दोनों को प्रसन्नचित्त होकर सुना कर, स्तुतियों से प्रसन्न मत हो और निन्दा के वाक्यों से उद्विग्न मत हो। क्योंकि (अस्मिन्) इस पुरुष के (अन्तः) भीतर (तिस्रः वाचः) तीन प्रकार की वाणियां (निहिताः) रक्खी हैं (१) परा जो आत्मा में बीज रूप से विद्यमान रहती हैं, (२) पश्यन्ती जो वक्ता के प्रयोग के पूर्व मन में संकल्प रूप से भाती हैं। (३) मध्यमा, जो इच्छापूर्वक मानस संकल्पों में रह कर ही शरीर के हर्ष, विषाद आदि मुख विकारों को प्रकट करती है, (तासाम्) उनमें से ही (एका) एक और, चौथी वैखरी (घोषम् अनु) शब्द के स्वरूप में आकर (वि पपात) नाना रूप से बाहर आती है। प्रयोक्ता के भीतर ही निन्दात्मक वाणी के भी तीन रूप रहते हैं और केवल एक चतुर्थ भाग ही बाहर आता है। इससे वही अधिक उसके पाप से युक्त है, न कि श्रोता।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्व ऋषिः। वाग् देवता। त्रिष्टुप् छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Language

    Meaning

    One order of your language is good, positive, auspicious and peaceable, the other is not good, it is negative, inauspicious and full of strife. The human being, though comfortable at heart, bears both the orders within. Another way, man bears three orders of language in the mind, they are Ida, the absolute, Sarasvati, the sacred universal, and Bharati, the language in use. (Yet another way, man bears four orders of language in the mind, they are Para, the absolute, Pashyanti, the conceivable, Madhyama, the thought form, and Vaikhari, the language in use.) Of these three, (or four) embedded in the mind within, one, Bharati, or Vaikhari, the language in use, auspicious as well as inauspicious, goes forward in objective form through the medium of speech.

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    Subject

    Vak - Speech

    Translation

    Some of your speeches are benign (Sivah) some others of your speeches are malign. You bear them all with friendly mind. Three types of speeches (tisro vacah) are placed secretly within this body. One of them comes out as-audible sound (ghosam).

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.44.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    O men! some of your words are auspicious and some are inauspicious, you possess all the considering every aspect of them three speeches (Para, Pashyanti, Mddhyama) are laid deep within the heart and one of them, the fourth, flows into all outer sounds and expressions.

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    Translation

    O King and physician, ye twain, use on our bodies all those medicines that heal diseases. Set free and draw away the sin committed, which we have still inherent in our bodies.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(शिवाः) कल्याण्यः। वेदवाचः (ते) तव (एकाः) अन्याः (अशिवाः) अकल्याण्यः। अहिताः (ते) (एकाः) (सर्वाः) शिवा अशिवा माध्यमिका वाचश्च (बिभर्षि) धरसि (सुमनस्यमानः) अ० १।३५।१। शोभनं ध्यायन्। सुमननशीलः (तिस्रः) त्रिसंख्याकाः (वाचः) वाण्यः (निहिताः) अवस्थिताः (अन्तः) मध्ये (अस्मिन्) आत्मनि। मनसि (तासाम्) वाचां मध्ये (एका) शिवा वाक् (वि) विशेषेण (पपात) पत ऐश्वर्ये लिट्। ईश्वरी बभूव (अनु) अनुसृत्य (घोषम्) उच्चारणध्वनिम् ॥

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