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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 46/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सिनीवाली छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - सिनीवाली सूक्त
    1

    सिनी॑वालि॒ पृथु॑ष्टुके॒ या दे॒वाना॒मसि॒ स्वसा॑। जु॒षस्व॑ ह॒व्यमाहु॑तं प्र॒जां दे॑वि दिदिड्ढि नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सिनी॑वालि । पृथु॑ऽस्तुके । या । दे॒वाना॑म् । असि॑ । स्वसा॑ । जु॒षस्व॑ । ह॒व्यम् । आऽहु॑तम् । प्र॒ऽजाम् । दे॒व‍ि॒ । दि॒द‍ि॒ड्ढि॒ । न॒: ॥४८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सिनीवालि पृथुष्टुके या देवानामसि स्वसा। जुषस्व हव्यमाहुतं प्रजां देवि दिदिड्ढि नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सिनीवालि । पृथुऽस्तुके । या । देवानाम् । असि । स्वसा । जुषस्व । हव्यम् । आऽहुतम् । प्रऽजाम् । देव‍ि । दिद‍िड्ढि । न: ॥४८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 46; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    स्त्रियों के गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (पृथुष्टुके) हे बहुत स्तुतिवाली ! (सिनीवालि) अन्नवाली [वा प्रेमयुक्त बल करनेवाली] गृहपत्नी ! (या) जो तू (देवानाम्) दिव्यगुणों की (स्वसा) अच्छे प्रकार प्रकाश करनेवाली वा ग्रहण करनेवाली (असि) है, सो तू (हव्यम्) ग्रहण करने योग्य, (आहुतम्) सब प्रकार स्वीकार किये व्यवहार का (जुषस्व) सेवन कर और (देवि) हे कामनायोग्य देवी ! (नः) हमारे लिये (प्रजाम्) सन्तान (दिदिड्ढि) दे ॥१॥

    भावार्थ

    जिस घर में अन्नवती, सुशिक्षित, व्यवहारकुशल स्त्रियाँ होती हैं, वहीं उत्तम सन्तान उत्पन्न होते हैं ॥१॥ यह मन्त्र ऋग्वेद में है-२।३२।६। और यजुर्वेद−३४।१०। तथा-निरु० ११।३२। में व्याख्यात है ॥

    टिप्पणी

    १−(सिनीवालि) अ० २।२६।२। षिञ् बन्धने-नक्, ङीप्+बल जीवने दाने च-अण्, ङीप्। हे अन्नवति-निरु० ११।३१। यद्वा सिनी प्रेमबद्धा चासौ बलकारिणी च तत्सम्बुद्धौ (पृथुष्टुके) सृवृभूशुषिमुषिभ्यः कक्। उ० ३।४१। इति ष्टुञ् स्तुतौ-कक्। बहुस्तुतियुक्ते (या) (देवानाम्) दिव्यगुणानाम् (असि) भवसि (स्वसा) अ० ५।५।१। सु+अस दीप्तौ ग्रहणे च−ऋन्। सुष्ठु दीपयित्री ग्रहीत्री वा (जुषस्व) सेवस्व (हव्यम्) ग्राह्यम् (आहुतम्) समन्तात् स्वीकृतं व्यवहारम् (प्रजाम्) सुसन्तानरूपाम् (देवि) कमनीये विदुषि (दिदिड्ढि) दिश दाने-लोटि, शपः श्लु। दिश। देहि (नः) अस्मभ्यम् ॥

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    विषय

    सिनीवाली पृथुष्टुका

    पदार्थ

    १. (सिनीवालि) = [सिनं-अन्नं, वालं-पर्व] पर्यों में अन्नवाली, अर्थात् पर्वो में अन्नदान करनेवाली, (पृथुष्टुके) = बहुत स्तुतिवाली व [बहुभिः संस्तुते] बहुतों से संस्तुत, (या) = जो तू (देवानां स्वसा असि) = [स्वयं सारिणी] दिव्य गुणों को अपने अन्दर प्रसारित करनेवाली [देवों की बहिन] है। हे वीर पत्लि! प्रजाओं का पालन करनेवाली तू (आहुतं हव्यम्) = अग्निकुण्ड में आहुत किये गये यज्ञावशिष्ट हव्य [पवित्र] पदार्थों को ही (जुषस्व) = प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाली बन। २. इसप्रकार पौं पर अन्नदान करनेवाली, प्रभुस्तवन की वृत्तिवाली, दिव्यगुणों को धारण करनेवाली व यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाली हे देवि-प्रकाशमय जीवनवाली! तू (न:) = हमारे लिए (प्रजाम्) = उत्तम सन्तान को (दिदिड्ढि) = दे [दिशते: लोटि शपः श्लः]।

    भावार्थ

    गृहपत्नी को चाहिए कि वह पों पर अन्नदान करनेवाली, प्रभुस्तवन की वृत्तिवाली, दिव्य गुणों की धारिका, यज्ञशेष का सेवन करनेवाली बने। ऐसा होने पर ही वह उत्तम सन्तति को जन्म दे पाती है।

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    भाषार्थ

    (सिनीवालि) हे अन्नवाली अथवा प्रेम से बांधने वाली, तथा सुन्दर बालों वाली, केशों वाली ! (पृथुष्टुके) प्रथित स्तुति वाली ! अथवा विस्तृत केशगुच्छवाली ! (या देवानाम् स्वसा असि) जो तू देवों अर्थात् दिव्यकोटि के विद्वानों की बहिन है, वह तू (आहुतम्, हव्यम्) गर्भाधान संस्कार में आहुतिरूप में दिये वीर्य हव्य की (जुषस्व) प्रीतिपूर्वक सेवा कर, सुरक्षा कर (देवि) हे दिव्यगुणों वाली! (नः) हम पारिवारिक जनों को (प्रजाम् दिदिड्ढि) उत्तम अपत्य प्रदान कर।

    टिप्पणी

    [याज्ञिक सम्प्रदायानुसार सिनीवाली है पूर्वा-अमावास्या अर्थात् दृष्टचन्द्रा अमावास्या अर्थात् दृष्टेन्दुकृष्णा चतुर्दशी। परन्तु निरुक्तानुसार सिनीवाली और तत्सम्बन्धी कुहू है "देवपत्न्यौ" (११।३।३१; पद २२)। अतः मन्त्रव्याख्या निरुक्तानुसार की गई है। मन्त्र में सनीवाल को देवों की स्वसा कहा भी है। अतः सिनीवाली मानुषी है। साथ ही यह अपत्योत्पादन भी करती है। अन्नभण्डार की स्वामिनी भी है 'सिनमन्नं भवति सिनाति भूतानि" (निरुक्त)। अथवा सिनम्= षिञ् बन्धने (स्वादिः) प्रेमपाश द्वारा बान्धने वाली। स्तुका= स्तौतेः निष्ठातकारस्य वर्णोपजनः छान्दसः (सायण)। प्रजाम्= प्र (प्रकृष्ट) + जा१ (अपत्यनाम), "विजामातुः" शब्द की व्याख्या में (निरुक्त ६।२।९)। दिदिड्ढि= दिश् या दिह, का लोट्]। [१. जा अपत्यनाम (निघं० २।२)]

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    विषय

    सभा पृथिवी और स्त्री का वर्णन।

    भावार्थ

    हे देवि ! विश्पत्नि ! दिव्य गुणों वाली प्रजाओं का पालन करने वाली ! हे (सिनीवालि) अन्न का प्रदान करने वाली ! अथवा प्रेमबद्धे ! हे स्त्रि ! हे (पृथुस्तुके) बहुत से पुत्रों वाली या बहुतों से प्रशंसित ! या विशाल मध्यभाग वाली ! या उत्तम कामनावति ! या पृथु = द्युलोक के प्रति सदा खुली रहने वाली ! तू (देवानाम्) देव = वायु, सूर्य, जल, मेघ आदि दिव्य पदार्थों के साथ (स्वसा) स्वयं स्वभावतः नैसर्गिक रूप में संगत है। तू (आ-हुतम्) आहुति किये हुए (हव्यम्) अन्न को, या वीर्य को जो बीज रूप से तेरे में बोते हैं उसे (जुषस्व) प्रेम से स्वीकार कर और (नः) हमें (प्रजां) प्रजा को उत्कृष्ट रूप से उत्पन्न हो जाने पर (दिदिड्ढि) प्रदान कर। महर्षि दयानन्द ने मन्त्र को स्त्री के वर्णन में लगाया है।

    टिप्पणी

    ऋग्वेदे गृत्समद ऋषिः स्तुकः केशभारः, स्तुतिः, कामो वा इति महीधरः पृथुसंयमितकेशभारा इति उव्वटः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। विश्पत्नी देवता। १, २ अनुष्टुप्। ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Gift of Fertility

    Meaning

    O Sinivali, gracious lady of the home, beautiful and adorable, you are a sister of divinities, the very spirit of fertility. Pray love and accept the sacred gift of love of conjugality and bless us with noble progeny.

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    Subject

    Sinivali

    Translation

    O procreative power (Sinivali), praised by multitude, who are inspirer of the enlightened ones, may you accept and enjoy our offered oblations; O divine ones, bless us with progeny.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.48.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    Sinivali, the first part of dark-night which is the sister of Sun-rays, is worthy of all prays. This accepts the oblations offered in the yajnas performed on the occasion and this pleasant one becomes the source of giving us good progeny.

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    Translation

    As one with water quencheth fire, so O Knowledge calm this person’s jealousy, that burneth like heat of fire, or like flame that rageth through the wood.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(सिनीवालि) अ० २।२६।२। षिञ् बन्धने-नक्, ङीप्+बल जीवने दाने च-अण्, ङीप्। हे अन्नवति-निरु० ११।३१। यद्वा सिनी प्रेमबद्धा चासौ बलकारिणी च तत्सम्बुद्धौ (पृथुष्टुके) सृवृभूशुषिमुषिभ्यः कक्। उ० ३।४१। इति ष्टुञ् स्तुतौ-कक्। बहुस्तुतियुक्ते (या) (देवानाम्) दिव्यगुणानाम् (असि) भवसि (स्वसा) अ० ५।५।१। सु+अस दीप्तौ ग्रहणे च−ऋन्। सुष्ठु दीपयित्री ग्रहीत्री वा (जुषस्व) सेवस्व (हव्यम्) ग्राह्यम् (आहुतम्) समन्तात् स्वीकृतं व्यवहारम् (प्रजाम्) सुसन्तानरूपाम् (देवि) कमनीये विदुषि (दिदिड्ढि) दिश दाने-लोटि, शपः श्लु। दिश। देहि (नः) अस्मभ्यम् ॥

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