अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 50/ मन्त्र 9
अक्षाः॒ फल॑वतीं॒ द्युवं॑ द॒त्त गां क्षी॒रिणी॑मिव। सं मा॑ कृ॒तस्य॒ धार॑या॒ धनुः॒ स्नाव्ने॑व नह्यत ॥
स्वर सहित पद पाठअक्षा॑: । फल॑ऽवतीम् । द्युव॑म् । द॒त्त । गाम् । क्षी॒रिणी॑म्ऽइव । सम् । मा॒ । कृ॒तस्य॑ । धार॑या । धनु॑: । स्नाव्ना॑ऽइव । न॒ह्य॒त॒ ॥५२.९॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्षाः फलवतीं द्युवं दत्त गां क्षीरिणीमिव। सं मा कृतस्य धारया धनुः स्नाव्नेव नह्यत ॥
स्वर रहित पद पाठअक्षा: । फलऽवतीम् । द्युवम् । दत्त । गाम् । क्षीरिणीम्ऽइव । सम् । मा । कृतस्य । धारया । धनु: । स्नाव्नाऽइव । नह्यत ॥५२.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
मनुष्यों के कर्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(अक्षाः) हे व्यवहारकुशल पुरुषो ! (क्षीरिणीम्) बड़ी दुधेल (गाम् इव) गौ के समान (फलवतीम्) उत्तम फलवाली (द्युवम्) व्यवहार शक्ति (दत्त) दान करो। (कृतस्य) कर्म की (धारया) धारा [प्रवाह] से (मा) मुझको (सम् नह्यत) यथावत् बाँधो (इव) जैसे (स्नाव्ना) डोरी से (धनुः) धनुष को [बाँधते हैं] ॥९॥
भावार्थ
मनुष्य विद्वानों से अनेक विद्यायें प्राप्त करके अपना जीवन सुफल करें ॥९॥
टिप्पणी
९−(अक्षाः) अक्ष-अर्शआद्यच्। व्यवहारकुशलाः (फलवतीम्) उत्तमफलयुक्ताम् (द्युवम्) दीव्यतेर्भावे-क्विप्। च्छ्वोः शूडनुनासिके च। पा० ६।४।१९। इत्यूठ्, अमि उवङादेशः। व्यवहारशक्तिम् (दत्त) प्रयच्छत (गाम्) धेनुम् (क्षीरिणीम्) बहुदोग्ध्रीम् (इव) यथा (मा) माम् (कृतस्य) विहितस्य कर्मणः (धारया) प्रवाहेण (धनुः) चापम् (स्नाव्ना) स्नामदिपद्यर्ति० उ० ४।११३। स्ना शौचे-वनिप्। वायुवाहिन्या नाड्या। स्नायुनिर्मितया मौर्व्या (इव) यथा (सम् नह्यत) संयोजयत ॥
विषय
पुरुषार्थमय जीवन
पदार्थ
१. (अक्षा:) = हे इन्द्रियो! आप मुझे (फलवती धुवम्) = सफल सार्थक व्यवहार को [दिव् व्यवहारे] दत्त-दो। मैं इन्द्रियों से जिन क्रियाओं को करूं, वे सब क्रियाएँ सफल हों। मेरे लिए यह व्यवहार इसप्रकार फलवाला हो (इव) = जैसे (क्षीरिणीं गाम्) = दूधवाली गौ होती है। मुझसे किया गया व्यवहार मेरे लिए दुधारू गौ के समान लाभप्रद हो। २. हे इन्द्रियो! (मा) = मुझे (कृतस्य धारया) = पुरुषार्थ के धारण से इसप्रकार (संनहात) = बाँध दो, (इव) = जैसेकि (धनुः स्नाना) = धनुष को स्नायु-निर्मित डोरी से बाँधते हैं। मेरे इस पुरुषार्थरूपी धनुष का एक सिरा मस्तिष्क हो, दूसरा हृदय। इन दोनों सिरों को कसकर मैं विद्या व श्रद्धा के साथ कर्मरूप तीरों को चलानेवाला बनें।
भावार्थ
मैं इन्द्रियों से सदा उत्तम पुरुषार्थ को सिद्ध करनेवाला बनूं। मैं श्रद्धा और विद्या के साथ कर्म करता हुआ सफल जीवनवाला बनूं।
भाषार्थ
(अक्षाः) हे अक्षो ! (फलवतीम् द्यूवम्) फलवाली द्यूतक्रीड़ा (दत्त) मुझे देओ, जोकि (क्षीरिणीम् गाम्) दुग्धवाली गौ के (इव) सदृश हो। (कृतस्य) "कृत" की (धारया) धारा द्वारा (मा) मुझे (स नद्यत) संनद्ध करो, (इव) जैसे कि (धनुः) धनुषु को (स्नाव्ना) तान्त द्वारा संसद्ध किया जाता है।
टिप्पणी
["अक्षाः" के दो अर्थ हैं, (१) द्यूतक्रीड़ा के पासे; (२) न्यायालय के अभियोग, मुकद्दमे (देखो मन्त्र १)। फलसम्बन्धी व्यग्रता या चिन्ता दोनों पक्षों में समान है, "अक्षाः" का सम्बोधन भी उभयपक्ष में समान है। परन्तु "धारा" द्वारा जो प्रवाह सूचित होता है वह "कर्म१" में तो सम्भव है, परन्तु परिमाण में परिमित "अक्ष" अर्थात् पासे में नहीं। "स्नाव" भी लम्बी होती है, अतः उसे भी धारारूप समझा जा सकता है। अतः मन्त्रपठित "कृतस्य" का अर्थ "कर्मणः" उचित प्रतीत होता है। "द्यूतम्" शब्द भी जहाँ "द्यूतक्रीड़ा" का वाचक है, वह साथ ही "विजयेच्छा" का भी वाचक हो सकता है। यथा “दिवु क्रीडाविजिगीषा" आदि (दिवादिः)]। [१. एक काम को लगातार करते रहना यही उस काम की धारा है, प्रवाह है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Victory by Karma
Meaning
O citizens of the land, active, enlightened and balanced all in your orbit, give me brilliant fruitful knowledge of life and the world like the mother cow overflowing with milk, and join me with the main stream of action at the optimum as the string binds the bow at both ends.
Translation
O my sense-organs, provide me with a fruitful game like a cow streaming milk. May you unite me with the stream of action just as a string binds (the two ends of) a bow.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.52.9AS PER THE BOOK
Translation
O men of worldly dealings! give me the fruitful knowledge of worldly dealings like the cow giving milk. Unite me with gains as the bow-string binds the bow.
Translation
O men of practical wisdom, just as a rich man gives a milch cow in charity, so grant me fruitful knowledge. Just as the bowstring binds the bow, so unite me with the tradition of noble deeds.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(अक्षाः) अक्ष-अर्शआद्यच्। व्यवहारकुशलाः (फलवतीम्) उत्तमफलयुक्ताम् (द्युवम्) दीव्यतेर्भावे-क्विप्। च्छ्वोः शूडनुनासिके च। पा० ६।४।१९। इत्यूठ्, अमि उवङादेशः। व्यवहारशक्तिम् (दत्त) प्रयच्छत (गाम्) धेनुम् (क्षीरिणीम्) बहुदोग्ध्रीम् (इव) यथा (मा) माम् (कृतस्य) विहितस्य कर्मणः (धारया) प्रवाहेण (धनुः) चापम् (स्नाव्ना) स्नामदिपद्यर्ति० उ० ४।११३। स्ना शौचे-वनिप्। वायुवाहिन्या नाड्या। स्नायुनिर्मितया मौर्व्या (इव) यथा (सम् नह्यत) संयोजयत ॥
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