अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 53/ मन्त्र 1
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - आयुः, बृहस्पतिः, अश्विनौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
1
अ॑मुत्र॒भूया॒दधि॒ यद्य॒मस्य॒ बृह॑स्पतेर॒भिश॑स्ते॒रमु॑ञ्चः। प्रत्यौ॑हताम॒श्विना॑ मृ॒त्युम॒स्मद्दे॒वाना॑मग्ने भि॒षजा॒ शची॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒मु॒त्र॒ऽभूया॑त् । अधि॑ । यत् । य॒मस्य॑ । बृह॑स्पते: । अ॒भिऽश॑स्ते: । अमु॑ञ्च: । प्रति॑ । औ॒ह॒ता॒म् । अ॒श्विना॑ । मृ॒त्युम् । अ॒स्मत् ।दे॒वाना॑म् । अ॒ग्ने॒ । भि॒षजा॑ । शची॑भि: ॥५५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अमुत्रभूयादधि यद्यमस्य बृहस्पतेरभिशस्तेरमुञ्चः। प्रत्यौहतामश्विना मृत्युमस्मद्देवानामग्ने भिषजा शचीभिः ॥
स्वर रहित पद पाठअमुत्रऽभूयात् । अधि । यत् । यमस्य । बृहस्पते: । अभिऽशस्ते: । अमुञ्च: । प्रति । औहताम् । अश्विना । मृत्युम् । अस्मत् ।देवानाम् । अग्ने । भिषजा । शचीभि: ॥५५.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्वानों के कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(अग्ने) हे सर्वव्यापक परमेश्वर ! (यत्) जिस कारण से (अमुत्रभूयात्) परलोक में होनेवाले भय से और (बृहस्पतेः) बड़ों के रक्षक (यमस्य) नियमकर्त्ता राजा के [सम्बन्धी] (अभिशस्तेः) अपराध से (अधि) अधिकारपूर्वक (अमुञ्चः) तूने छुड़ाया है। (देवानाम्) विद्वानों में (भिषजा) वैद्यरूप (अश्विना) माता-पिता [वा अध्यापक, उपदेशक] ने (मृत्युम्) मृत्यु [मरण के कारण दुःख] को (अस्मत्) हम से (शचीभिः) कर्मों द्वारा (प्रति) प्रतिकूल (औहताम्) हटाया है ॥१॥
भावार्थ
परमेश्वर ने वेद द्वारा बताया है कि मनुष्य गुप्त मानसिक कुविचार छोड़कर परलोक में नरकपतन से, और प्रकट शारीरिक पाप छोड़ कर राजा के दण्ड से बचकर आनन्दित रहें ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−२७।९ ॥
टिप्पणी
१−(अमुत्रभूयात्) भुवो भावे। पा० ३।१।१०७। अमुत्र+भू-क्यप्। परजन्मनि भाविनो भयात्। परलोकगमनान्मरणाद् वा (अधि) अधिकृत्य (यत्) यस्मात्कारणात् (यमस्य) नियन्तू राज्ञः (बृहस्पतेः) महतां पालकस्य (अभिशस्तेः) अपराधात् (अमुञ्चः) लङि रूपम्। मोचितवानसि (प्रति) प्रतिकूलम् (औहताम्) उहिर् अर्दने-लङ्। नाशितवन्तौ (अश्विना) मातापितरौ। अध्यापकोपदेशकौ (मृत्युम्) मरणकारणम् (अस्मत्) अस्मत्तः (देवानाम्) विदुषां मध्ये (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमेश्वर (भिषजा) अ० २।९।३। भिषजौ वैद्यरूपौ (शचीभिः) कर्मभिः-निघ० २।१ ॥
विषय
"यम व बृहस्पति' की अभिशस्ति से बचना
पदार्थ
१. हे (अग्रे) = अग्रणी प्रभो। (यत्) = जब अमुत्रभूयात् [परलोके भवन अमुत्रभूयम्] परलोक में होने से, अर्थात् मृत्यु से या प्रतिक्षण परलोक की बातें करते रहकर इस लोक को सुन्दर न बनाने से आप (अधि अमुञ्च:) = हमें मुक्त करते है, (यमस्य अभिशस्ते:) = यम के हिंसन से, अर्थात् नियमपूर्वक [Regular] जीवन न बिताने से मुक्त करते हैं तथा (बृहस्पतेः) [अभिशस्ते:] = बृहस्पति के हिंसन से, अर्थात स्वाध्याय द्वारा ज्ञानवृद्धि न करने से मुक्त करते हैं, अर्थात् जब हम [क] परलोक की बातें न करके इस लोक को सुन्दर बनाने में लगते हैं, [ख] जब हम नियमपूर्वक, सूर्य-चन्द्रमा की भाँति व्यवस्थित जीवन बिताते हैं, [ग] और जब हम स्वाध्यायशील बनते हैं, तब (अश्विना) = प्राणापान (अस्मत्) = हमसे (मृत्युम) = मृत्यु को (प्रत्यौहताम्) = दूर करते हैं। २. हे प्रभो! ये [अश्विना] प्राणापान (शचीभिः) = शक्तियों के द्वारा (देवानां भिषजा) = इन्द्रियों के वैद्य हैं। प्राणसाधना के द्वारा इन्द्रियों के दोष दग्ध हो जाते हैं और मनुष्य पूर्ण स्वस्थ बनता है।
भावार्थ
हम परलोक का चिन्तन न करते रहकर इस लोक को सुन्दर बनाएँ। २. 'यम' का हिंसन न करें, अर्थात् सूर्य-चन्द्र की तरह नियमित जीवनवाले बनें। ३. बृहस्पति का हिंसन न करें, अर्थात् स्वाध्यायशील बनें। ४. प्राणसाधना में प्रवृत्त हों। ऐसा करने पर ये प्राणापान हमें स्वस्थ बनाकर दीर्घजीवी बनाएँगे।
भाषार्थ
(बृहस्पते) हे बृहस्पति ! तूने (अमुत्र भूयात् अधि) 'अमुत्र' अर्थात् उस परलोक में “भूयात्” अर्थात् सम्भाव्य उत्पत्ति से तथा (यमस्य) मृत्यु सम्बन्धी (अभिशस्तेः) विनाश से (यत्) जो (अमुञ्चः) तूने हमें मुक्त कर दिया है, तो (अग्ने) हे सर्वाग्रणी ! [आप की प्रेरणा द्वारा] ( देवानाम् भिषजौ) देवों में के चिकित्सक (अश्विनौ) दो अश्वी (अस्मत्) हम से (मृत्युम्) शीघ्र मृत्यु को भी (शवीभिः) वचनों द्वारा (प्रत्यौहताम्) निवारित करें ।
टिप्पणी
[बृहस्पति है परमेश्वर, बृहतः ब्रह्माण्डस्य पतिः, अथवा बृहत्याः वेदवाचः पतिः। बृहस्पति ही अग्नि है, सर्वाग्रणी है। "अमुञ्चः" द्वारा प्रतीत होता है कि आयु के प्रार्थी जीवन्मुक्तावस्था में हैं, वे शतवर्षों तक की आयु के लिये प्रार्थी हैं, या और भी दीर्घायु के लिये प्रार्थी हैं। अश्विनौ= अश्विनौ को नासत्यौ भी कहते हैं (ऋ० ७।३६।४)। नासत्यौ= = "नासिकाप्रभवौ बभूवतुरिति वा" (निरुक्त ६।३।१३)। नासिका से पैदा होते हैं प्राण-और-अपान। ये दो दिव्य पदार्थों - सूर्य, चन्द्र अग्नि, विद्युत् आदि पदार्थों में– चिकित्सकरूप हैं, भिषक् हैं। प्राण-अपान क्रिया द्वारा वायु फुफसों [फेफड़ों] में जाकर रक्त को शुद्ध करती है और शुद्ध रक्त शरीर में प्रवाहित होकर शरीर के रोगों का उपचार करता और शक्ति प्रदान करता है, इसलिये अश्विनौ मृत्यु से रक्षा करते हैं। इन्हीं प्राण-अपानों का वर्णन मुक्त के शेष मन्त्रों में हुआ है। प्राणापानौ देवानां भिषजौ]।
विषय
दीर्घायु की प्रार्थना।
भावार्थ
हे (बृहस्पते*) इंन्द्रियों के पालक ! हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! (यद्) जब तू जीव (अमुत्र-भूयात्*) परलोक या परकाल में होनेवाले (यमस्य) सर्वनियामक, यमस्वरूप प्रभु की दी (अभि-शस्तेः) मरणवेदना से अपने को (अमुञ्चः) मुक्त कर लेता है तब (अश्विना) अश्विगण अर्थात् प्राण अपान, (देवानां भिषजा) देवगण अर्थात् इन्द्रियों या विद्वज्जनों के चिकित्सक होकर (शचीभिः) अपनी शक्तियों के द्वारा (अस्मत्) हम से (मृत्युम्) देह और आत्मा के छूट जाने की घटना को (प्रति औहताम्) दूर करें। अथवा (अश्विनौ) शल्यतन्त्र और औषधतन्त्र के ज्ञाता दोनों प्रकार के चिकित्सक लोगों के मृत्यु के भय को दूर करें।
टिप्पणी
प्र०। ‘अमुत्रभूयादध’ इति यजु०। सम्बुद्धावपि छान्दसः सोर्लोपाभावः इति सायणः। अमुत्र। भूयात। इति पदच्छेदः इति उव्वटः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ब्रह्मा ऋषिः। आयुष्यकारिणो बृहस्पतिरश्विनौ यमश्च देवताः। १ त्रिष्टुप्। ३ भुरिक्। ४ उष्णिग्गर्भा आर्षी पंक्ति:। ५ अनुष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Good Health and Age
Meaning
O Agni, lord of life and light, and since you have saved us from the possible malediction of Yama, lord of life and death, and his justice beyond there in the other world, and from the justice of Brhaspati, Spirit of expansive nature’s dynamics of change, now, O Lord, we pray, may the Ashvins, physicians of divinities, prana and apana energies, with their power and acts, ward off death from us before fullness and achievement of fulfilment.
Subject
Ayuh, Brhaspatih and Asvinau
Translation
When you, O Brhaspati did release us from yama’s other world existence (amutra-bhuyat) from male- diction Asvins took back death from us, O Agni, The renowned physician of the gods, (Also Yv. XXVII.9)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.55.1AS PER THE BOOK
Translation
O most powerful wise! let Ashvinoau, exhaling and inhaling breaths which are the health—giving forces amongst all the forces working in the body chase the death for from us their mightily powers when you have saved me from the curse, the otherworldly torture of the yama, the Divine power who dispenses justice.
Translation
O learned fellow, the guardian of big persons, be free from the fruit of sins in the next birth. Chase death far from him who follows the instructions of the religious and law-abiding persons. O skilled physician, just as the teacher and preacher achieve their aim by dint of deeds and wisdom, so shouldst thou skillfully prepare efficacious medicines, whereby thou preservest the health of the people!
Footnote
See Yajur, 27-9.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(अमुत्रभूयात्) भुवो भावे। पा० ३।१।१०७। अमुत्र+भू-क्यप्। परजन्मनि भाविनो भयात्। परलोकगमनान्मरणाद् वा (अधि) अधिकृत्य (यत्) यस्मात्कारणात् (यमस्य) नियन्तू राज्ञः (बृहस्पतेः) महतां पालकस्य (अभिशस्तेः) अपराधात् (अमुञ्चः) लङि रूपम्। मोचितवानसि (प्रति) प्रतिकूलम् (औहताम्) उहिर् अर्दने-लङ्। नाशितवन्तौ (अश्विना) मातापितरौ। अध्यापकोपदेशकौ (मृत्युम्) मरणकारणम् (अस्मत्) अस्मत्तः (देवानाम्) विदुषां मध्ये (अग्ने) हे सर्वव्यापक परमेश्वर (भिषजा) अ० २।९।३। भिषजौ वैद्यरूपौ (शचीभिः) कर्मभिः-निघ० २।१ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal