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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 55/ मन्त्र 1
    ऋषिः - भृगुः देवता - इन्द्रः छन्दः - विराट्परोष्णिक् सूक्तम् - मार्गस्वस्त्य अयन सूक्त
    1

    ये ते॒ पन्था॑नोऽव दि॒वो येभि॒र्विश्व॒मैर॑यः। तेभिः॑ सुम्न॒या धे॑हि नो वसो ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । ते॒ । पन्था॑न: । अव॑ । दि॒व: । येभि॑: । विश्व॑म् । ऐर॑य: । तेभि॑: । सु॒म्न॒ऽया । आ । धे॒हि॒ । न॒: । व॒सो॒ इति॑ ॥५७.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये ते पन्थानोऽव दिवो येभिर्विश्वमैरयः। तेभिः सुम्नया धेहि नो वसो ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । ते । पन्थान: । अव । दिव: । येभि: । विश्वम् । ऐरय: । तेभि: । सुम्नऽया । आ । धेहि । न: । वसो इति ॥५७.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 55; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    वेदमार्ग के ग्रहण का उपदेश।

    पदार्थ

    (वसो) हे श्रेष्ठ परमात्मन् ! (ये) जो (ते) तेरे (दिवः) प्रकाश के (पन्थानः) मार्ग (अव) निश्चय करके हैं, (येभिः) जिनके द्वारा (विश्वम्) संसार को (ऐरयः) तूने चलाया है। (तेभिः) उनके ही (सुम्नया) सुख के साथ (नः) हमें (आ धेहि) सब ओर से पुष्ट कर ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य परमेश्वर के वेदमार्ग पर चलकर शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक पुष्टि करें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(ये) (ते) तव (पन्थानः) वेदमार्गाः (अव) निश्चयेन (दिवः) प्रकाशस्य (येभिः) यैः (विश्वम्) जगत् (ऐरयः) ईर गतौ-लङ्। प्रेरितवानसि (तेभिः) तैः पथिभिः (सुम्नया) आतश्चोपसर्गे। पा० ३।१।१३६। इति सु+म्ना अभ्यासे-क। विभक्तेर्याजादेशः। सुम्नं सुखम्-निघ० ३।६। सुम्नेन सुखेन (आ) सम्यक् (धेहि) पोषय (नः) अस्मान् (वसो) हे श्रेष्ठपरमात्मन् ॥

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    विषय

    दिवः पन्थानः

    पदार्थ

    १. हे (वसो) = सबको उत्तम निवास देने व सबमें बसनेवाले प्रभो! (ये) = जो (ते) = आपके (दिवः पन्थान:) = प्रकाश के मार्ग हैं, देवयान मार्ग हैं, (येभिः) = जिन मार्गों से आप (विश्वम् अव ऐरयः) = सम्पूर्ण विश्व को यहाँ नीचे [पृथिवी पर] प्रेरित करते हैं, (तेभिः) = उन मार्गों से (न:) = हमें (सुम्न्या धेहि) = सुख में स्थापित कीजिए।

    भावार्थ

    हम प्रभु-निर्दिष्ट प्रकाश-मार्गों में चलते हुए सुख प्राप्त करें। इन प्रकाशमार्गों से विचलित न होनेवाला 'अथर्वा' अगले सूक्त का ऋषि है -

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    पदार्थ

    शब्दार्थ =  ( वसो ) = हे श्रेष्ठ परमेश्वर !  ( ये ) = जो  ( ते ) = आपके  ( दिवः पन्थान: ) = प्रकाश के मार्ग  ( अव ) = निश्चय करके हैं  ( येभिः ) = जिनके द्वारा  ( विश्वम् ) = संसार को  ( ऐरय: ) = आप ने चलाया है।  ( तेभिः ) = उन से ही  ( सुम्नया ) = सुख के साथ  ( न: ) = हमें  ( आधेहि ) = सब ओर से पुष्ट करो । 

    भावार्थ

    भावार्थ = जिज्ञासु पुरुषों को चाहिये कि परमात्मा के बताये वेदमार्ग पर चल अपनी और अपने देशवासियों की शारीरिक, सामाजिक और आत्मिक उन्नति करें ।

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    भाषार्थ

    (वसो) हे वसाने वाले ! (ये ते पन्थानः) जो तेरे मार्ग (दिवः) द्युलोक के (अव) अवस्तात् अर्थात् अधोदेश में हैं, (येभिः) जिन द्वारा (विश्वम्) सब सौर परिवार को (ऐरयः) तू प्रेरणा दे रहा है, (तेभिः) उन मार्गों द्वारा (नः) हमें (सुम्नया) सुख में (धेहि) स्थापित कर।

    टिप्पणी

    [अव दिवः = शतपथब्राह्मण के “अग्निचयन" प्रकरण में "विराजं दिवम्" को पञ्चमी चिति कहा है, और इस के नीचे "ऊर्ध्वमन्तरिक्षात् अर्वाचीनं दिवः” द्वारा आदित्य और आदित्य-परिवार को चतुर्थी चिति कहा है, जिसे कि व्याख्येयमन्त्र में "अव दिवः" कहा है। इस समग्र आदित्य परिवार (solar system) की प्रेरणा वसुनामक परमेश्वर करता है, जिसे कि मन्त्र (१) में शचीपति" भी कहा है। शची का अर्थ “कर्म" भी है, यथा “शची कर्मनाम" (निघं० २।१)। मन्त्र में “ऐरयः" द्वारा प्रेरणा का कथन हुआ है, अतः प्रेरक को कर्माधिपति होना चाहिये। पांच चितियों का वर्णन मत्कृत "शतपथस्थ अग्निचयन समीक्षा" में निम्न प्रकार है। यथा प्रथमा चितिः पृ० ६३; द्वितीया चितिः पृ० १०४; तृतीया चितिः पृ० ११५; चतुर्थी चितिः पृ० १२४; पञ्चमी चितिः पृ० १५०। चतुर्थी चिति को "अवदिवः" कहा है। इस चतुर्थी चिति का सम्बन्ध अस्मदादि प्राणियों के साथ है। सुम्नया= सुम्ने, सप्तमी के स्थान में याच् आदेश। सुम्नम् सुखनाम (निघं० ३।६)। सुम्नम्= जिस द्वारा मन सुप्रसन्न होता है, वह सुख है]।

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    विषय

    आनन्द की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) परमात्मन् ! (ते) तेरे (ये) जो (पन्थानः) मार्ग या प्रेरक शक्तियां हैं (दिवः) जिन्होंने कि प्रकाशमान सूर्य तथा समग्र द्युलोक को भी (अव) अपने अधीन रखा हुआ है (येभिः) जिन्हों से (विश्वम्) समस्त संसार को (ऐरयः) तू चला रहा हैं, (तेभिः) उन शक्तियों से हे (वसो) समस्त संसार को बसाने हारे प्रभो ! (नः) हमें (सुम्नया) सुखकारी दशा में (आ धेहि) रख। अध्यात्म में—द्यौ ब्रह्माण्डकपाल के नीचे जो प्राणमार्ग हैं जिन से (विश्वम्) समस्त देह प्रेरित, संचलित होता है उन इन्द्रियों या प्राणों सहित हे वसो ! आत्मन् ! हमें (सुम्नया) सुम्ना = सुमना = सुषुम्ना नाड़ी के द्वारा समाधि दशा में प्राप्त करा। विशेष देखो सामवेद भाष्य सं० [ १७२ ]

    टिप्पणी

    ‘ये ते पन्था अधो दिवो येभिर्व्यव्श्वमैरयः। उत श्रोषन्तु नो भुवः॥’ इति साम०। तत्र वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता। ‘सुम्ने। आ’ इति सायणाभिमतः पदच्छेदः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्ऋषिः। इन्द्रो देवता। विराड् परा उष्णिक्। एकर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Vedic Way

    Meaning

    O Vasu, lord giver of peace and settlement, all those paths of yours by which you move the world of existence onward are paths of heavenly light here on earth. By those very paths of light, pray, establish us in a life of peace and progress without violence to anyone.

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    Subject

    Indrah

    Translation

    What your paths are there, along which you urge this universe to move under the sky, by very those, O excellent Lord, may you place us in happiness.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.57.2AS PER THE BOOK

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    Translation

    O All-supporting Divinity! please bring me into pleasure and plenty through the ways whereby you keep the heavenly region under your control and govern and operate the energies of whole universe.

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    Translation

    O God, the Creator of the universe. Thy urging powers have controlled the entire solar system, wherewith Thou administerest the whole world; Keep us in safety through them.

    Footnote

    Them: Urging powers.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(ये) (ते) तव (पन्थानः) वेदमार्गाः (अव) निश्चयेन (दिवः) प्रकाशस्य (येभिः) यैः (विश्वम्) जगत् (ऐरयः) ईर गतौ-लङ्। प्रेरितवानसि (तेभिः) तैः पथिभिः (सुम्नया) आतश्चोपसर्गे। पा० ३।१।१३६। इति सु+म्ना अभ्यासे-क। विभक्तेर्याजादेशः। सुम्नं सुखम्-निघ० ३।६। सुम्नेन सुखेन (आ) सम्यक् (धेहि) पोषय (नः) अस्मान् (वसो) हे श्रेष्ठपरमात्मन् ॥

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    য়ে তে পন্থানোব দিবো য়েভির্বিশ্বমৈরয়ঃ।

    তেভিঃ সুম্নয়া ধেহি নো বসো।।৬৮।।

    (অথর্ব ৭।৫৫।১)

    পদার্থঃ (বসো) হে সকলের নিবাস প্রদানকারী পরমাত্মা! (তে) তোমার (য়ে) যে (দিবঃ পন্থানঃ) দিব্য পথ বা মার্গ রয়েছে (য়েভিঃ) যার দ্বারা (বিশ্বম্ অব) বিশ্ব সংসারকে নিশ্চিতভাবে (ঐরয়ঃ) চালনা করছ, (তেভিঃ) সেই পথে বা মার্গে (নঃ) আমাদের (সুম্নয়া ধেহি) সুখের সহিত পরিচালনা করো।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ পরমাত্মার যে দিব্য মার্গ বা বিধান রয়েছে, যার দ্বারা তিনি সমগ্র বিশ্ব পরিচালনা করছেন; পরমাত্মার নিকট প্রার্থনা এই যে, তিনি যেন সেই দিব্য বেদ মার্গে আমাদেরকে, আমাদের বুদ্ধিকেও পরিচালিত করেন ।।৬৮।।

     

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