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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 58 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 58/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कौरूपथिः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - जगती सूक्तम् - अन्न सूक्त
    2

    इन्द्रा॑वरुणा सुतपावि॒मं सु॒तं सोमं॑ पिबतं॒ मद्यं॑ धृतव्रतौ। यु॒वो रथो॑ अध्व॒रो दे॒ववी॑तये॒ प्रति॒ स्वस॑र॒मुप॑ यातु पी॒तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑वरुणा । सु॒त॒ऽपौ । इ॒मम् । सु॒तम् । सोम॑म् । पि॒ब॒त॒म् । मद्य॑म् । धृ॒त॒ऽव्र॒तौ॒ । यु॒वो: । रथ॑: । अ॒ध्व॒र: । दे॒वऽवी॑तये। प्रति॑ । स्वस॑रम् । उप॑ । या॒तु॒ । पी॒तये॑ ॥६०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रावरुणा सुतपाविमं सुतं सोमं पिबतं मद्यं धृतव्रतौ। युवो रथो अध्वरो देववीतये प्रति स्वसरमुप यातु पीतये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रावरुणा । सुतऽपौ । इमम् । सुतम् । सोमम् । पिबतम् । मद्यम् । धृतऽव्रतौ । युवो: । रथ: । अध्वर: । देवऽवीतये। प्रति । स्वसरम् । उप । यातु । पीतये ॥६०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 58; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा और प्रजा जन के कर्त्तव्य का उपदेश है।

    पदार्थ

    (सुतपौ) हे पुत्रों के रक्षा करनेवाले ! (धृतव्रतौ) उत्तम कर्मों के धारण करनेवाले ! (इन्द्रावरुणा) बिजुली और वायु के समान वर्त्तमान राजा और प्रजाजन (इमम् सुतम्) इस पुत्र को (मद्यम्) आनन्ददायक (सोमम्) ऐश्वर्य [वा बड़ी-बड़ी ओषधियों का रस] (पिबतम्=पाययतम्) पान कराओ, (युवोः) तुम दोनों का (अध्वरः) मार्ग बतानेवाला (रथः) विमान आदि यान (देववीतये) दिव्य पदार्थों की प्राप्ति के लिये और (पीतये) वृद्धि के लिये (प्रति स्वसरम्) प्रतिदिन वा प्रतिघर (उप यातु) आया करे ॥१॥

    भावार्थ

    राजा और प्रजागणों को चाहिये कि परस्पर रक्षक होकर परस्पर उन्नति करें ॥१॥ म० १, २ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−६।६८।१०, ११ ॥

    टिप्पणी

    १−(इन्द्रावरुणा) विद्युद्वायुवद्वर्त्तमानौ राजप्रजाजनौ (सुतपौ) पुत्रपालकौ (इमम्) प्रत्यक्षम् (सुतम्) पुत्रम् (सोमम्) ऐश्वर्यम्। महौषधिरसं वा (पिबतम्) अन्तर्गतण्यर्थः। पाययतम् (मद्यम्) आनन्दकरम् (धृतव्रतौ) धृतकर्माणौ (युवोः) युवयोः (रथः) विमानादियानम् (अध्वरः) अध्वन्+रा दाने-क। मार्गप्रदः (देववीतये) दिव्यपदार्थप्राप्तये (प्रति) वीप्सायाम् (स्वसरम्) दिनम्-निघं० १।९। गृहम्-निघ० ३।४। (उप) समीपे (यातु) गच्छतु (पीतये) ध्याप्योः सम्प्रसारणं च। उ० ४।११५। इति बाहुलकात् प्यैङ् वृद्धौ-क्तिनि प्रत्यये सम्प्रसारणम्। हलः। पा० ६।४।२। इति दीर्घः। वृद्धये ॥

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    विषय

    'सुतपो धृतवतौ' इन्द्रावरुणा

    पदार्थ

    २. 'इन्द्र' जितेन्द्रिय पुरुष का वाचक है तथा 'वरुण' वासनाओं का निवारण करनेवाले का संकेत करता है। हे (इन्द्रावरुणा) = जितेन्द्रिय व वासना का निवारण करनेवाले पुरुषो! आप (सुतपौ) = शरीर में उत्पन्न सोम का पान करनेवाले हो अथवा [सु-तपौ] उत्तम तपवाले हो। इम (सतं सोमम्) = इस शरीर में उत्पन्न सोम को (पिबतम्) = पीओ, इसे शरीर में ही व्याप्त करो। हे (धृतवती) = व्रतों का धारण करनेवाले इन्द्र और वरुण! (मद्यम्) = शरीर में सुरक्षित हुआ-हुआ यह सोम मद का, हर्ष का जनक है। २.हे इन्द्रावरुणा! (युवो:) = आप दोनों का रथः यह शरीर रथ (अध्वरः) = हिंसा से रहित व शत्रुओं से अपराजित है अथवा [अध्व-र] मार्ग पर आगे बढ़नेवाला है। यह (देववीतये) = दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए (प्रतिस्वसरम्) = प्रतिदिन [नि० १.९] (पीतये) = सोम के पान के लिए (उपयातु) = प्रभु के समीप जानेवाला हो। प्रात:-सायं प्रभु की उपासना में प्रवृत्त होना "सोमरक्षण' में सहायक होता है।

    भावार्थ

    हम जितेन्द्रिय व वासनाओं का निवारण करनेवाले बनकर शरीर में सोम का रक्षण करें। इस शरीर-रथ को मार्ग पर आगे-और-आगे ले-चलें। प्रभु-उपासना में प्रवृत्त होकर सोमरक्षण का ध्यान करें।

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    भाषार्थ

    (इन्द्रावरुणा) हे सम्राट्-तथा-माण्डलिक राजन् ! (सुतपौ) तुम दोनों अभिषत सोम के पीने वाले (इमम् सुतम्, सोमम्) इस अभिषुत सोम को (पिबतम्) पीओ, (मद्यम्) जो सोम कि हर्षप्रद है, (धृतव्रतौ) तुम दोनों जिन्होंने प्रजापालन का व्रत धारण किया है। (युवोः) तुम दोनों का (अध्वरः) अहिंसनीय अर्थात् सुदढ़ (रथः) रथ, (स्वसरम् प्रति) हमारे गृहों के प्रति (उपयातु) आए, (देववीतये) तुम्हारे दिव्य भोज के लिये, (पीतये) तथा सोमपान के लिये।

    टिप्पणी

    [इन्द्रावरुणा=इन्द्रावरुणौ, “इन्द्रश्च सम्राड् वरुणश्च राजा" (यजु० ८।३७)। शिष्ट व्यक्तियों का सत्कार दिव्यभोज, तथा हर्षप्रद सोमरस द्वारा करना चाहिये। मद्यम्= मदी हर्षे]।

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    विषय

    अध्यात्म सोमरस पान।

    भावार्थ

    हे (इन्द्रावरुणा) इन्द्र और वरुण आप दोनों (सुत-पौ) सोम अर्थात् ज्ञान का और आभ्यन्तर आनन्द का पान करने हारे हो। अतः (मद्यं) हर्ष और तृप्ति जनक (सुतं) इस उत्पादित (सोमम्) ज्ञान और आनन्द-रस को (धृत-व्रतौ) स्थिर, नियत, कर्मनिष्ठ और समस्त कर्मों को धारण करने में समर्थ होकर (पिबतं) पान करो, (युवोः) तुम दोनों के भीतर (रथः) रमण करने वाला (अध्वरः) कमी न हिंसित, सदा जीवित, अमर, यज्ञमय आत्मा (देव-वीतये) देव = इन्द्रियगणों से प्राप्त ज्ञान का भोग करने के लिये और (पीतये) विचार धारण में प्रतिदिन आनन्द-रस पान करने के लिये (प्रति स्वसरम्) प्रति देहरूप घट में (उप यातु) प्राप्त हो अथवा (प्रति स्वसरम् उप यातु) देह के प्रत्येक स्वयं सरण करने योग्य इन्द्रियों में व्याप्त हो अथवा प्रतिदिन प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘धृतव्रता’। (तृ०) ‘अध्वरं’। (च०) ‘याति’ इति ऋ०। अस्य ऋग्वेद्वयस्य ऋग्वेदे भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कौरुपथिर्ऋषिः। मन्त्रोक्ताविन्द्र वरुणौ देवते। १ जगती। २ त्रिष्टुप्॥ द्व्यृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Food for Strength

    Meaning

    Indra and Varuna, sun and moon, winds and waters, powers of governance and law and justice, ruler and people, seasoned and disciplined in your own law and function, protectors and promoters of your own creations, come, promote and taste of this exhilarating soma of joy distilled for you. May your chariot of love and non-violence move by paths of rectitude and visit every home every day for the protection, promotion and exhilaration of the sagely divines and brilliant people.

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    Subject

    Indra - Varuna Pair

    Translation

    O resplendent one and O venerable one, both fond of enjoying pressed out cure-juice (devotional bliss), may you observing the vows, enjoy this pressed out gladdening curejuice (devotional bliss). May your unconquered chariot approach its resting place for the entertainment of the enlightened ones and for drinking cure-juice.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.60.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    True to laws of nature these electricity and air are protecting the created world, both of these two make the people drink the pleasure etc of the created world which is pleasant and nice. Let the comfortable car or carriers made of these two be available in each house for the purpose of protection and mighty heroic actions.

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    Translation

    O valiant, calm, noble persons, you are the enjoyers of knowledge and mental joy. Enjoy knowledge and felicity, acquired through effort, the givers of joy and satisfaction, being unwavering and energetic.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(इन्द्रावरुणा) विद्युद्वायुवद्वर्त्तमानौ राजप्रजाजनौ (सुतपौ) पुत्रपालकौ (इमम्) प्रत्यक्षम् (सुतम्) पुत्रम् (सोमम्) ऐश्वर्यम्। महौषधिरसं वा (पिबतम्) अन्तर्गतण्यर्थः। पाययतम् (मद्यम्) आनन्दकरम् (धृतव्रतौ) धृतकर्माणौ (युवोः) युवयोः (रथः) विमानादियानम् (अध्वरः) अध्वन्+रा दाने-क। मार्गप्रदः (देववीतये) दिव्यपदार्थप्राप्तये (प्रति) वीप्सायाम् (स्वसरम्) दिनम्-निघं० १।९। गृहम्-निघ० ३।४। (उप) समीपे (यातु) गच्छतु (पीतये) ध्याप्योः सम्प्रसारणं च। उ० ४।११५। इति बाहुलकात् प्यैङ् वृद्धौ-क्तिनि प्रत्यये सम्प्रसारणम्। हलः। पा० ६।४।२। इति दीर्घः। वृद्धये ॥

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