अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 59/ मन्त्र 1
ऋषिः - बादरायणिः
देवता - अरिनाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शापमोचन सुक्त
1
यो नः॑ शपा॒दश॑पतः॒ शप॑तो॒ यश्च॑ नः॒ शपा॑त्। वृ॒क्ष इ॑व वि॒द्युता॑ ह॒त आ मूला॒दनु॑ शुष्यतु ॥
स्वर सहित पद पाठय: । न॒: । शपा॑त् । अश॑पत: । शप॑त: । य: । च॒ । न॒: । शपा॑त् । वृ॒क्ष:ऽइ॑व । वि॒ऽद्युता॑ । ह॒त: । आ । मूला॑त् । अनु॑ । शु॒ष्य॒तु॒ ॥६१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यो नः शपादशपतः शपतो यश्च नः शपात्। वृक्ष इव विद्युता हत आ मूलादनु शुष्यतु ॥
स्वर रहित पद पाठय: । न: । शपात् । अशपत: । शपत: । य: । च । न: । शपात् । वृक्ष:ऽइव । विऽद्युता । हत: । आ । मूलात् । अनु । शुष्यतु ॥६१.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
कुवचन के त्याग का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो (अशपतः) न शाप देनेवाले (नः) हम लोगों को (शपात्) शाप देवे, (च) और (यः) जो (शपतः) शाप देनेवाले (नः) हम लोगों को (शपात्) शाप देवे। (विद्युता) बिजुली से (हतः) मारे गये (वृक्षः इव) वृक्ष के समान वह (आ मूलात्) जड़ से लेकर (अनु) निरन्तर (शुष्यतु) सूख जावे ॥१॥
भावार्थ
जो दुष्ट धर्मात्माओं में दोष लगावे, राजा उसको यथोचित दण्ड देवे ॥१॥ इस मन्त्र का पूर्वार्द्ध आ चुका है-अ० ६।३७।३ ॥ इति पञ्चमोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
१−(यः) दुष्टः (नः) अस्मान् (शपात्) शपेत्। निन्देत् (अशपतः) अशापिनः (शपतः) शापकारिणः (यः) (च) (नः) (शपात्) (वृक्षः) (इव) (विद्युता) अशन्या (हतः) भस्मीकृतः (आ मूलात्) मूलमारभ्य (अनु) निरन्तरम् (शुष्यतु) शुष्को भवतु ॥
विषय
आक्रोश का विनाश
पदार्थ
१. (य:) = जो (अशपतः नः शपात्) = आक्रोश न करते हुए भी हमारे प्रति आक्रोश करे, (च यः) = और जो (शपत: न:) = [to swear, to take an oath] शपथ खाते हुए हमें, शपथपूर्वक यह कहते हुए भी कि हमने तुम्हारा कुछ बिगाड़ा नहीं, (शपात्) = गाली दे, वह (आमूलात्) = जड़ से इसप्रकार (अनुशुष्यतु) = सूख जाए, (इव) = जैसेकि (विद्युता हत: वृक्ष:) = विद्युत् से मारा हुआ वृक्ष सूख जाता है।
भावार्थ
हम किसी के लिए अपशब्दों का प्रयोग न करें। अपशब्दों का प्रयोक्ता जड़ से ही सूख जाता है।
हम आक्रोशों की परवाह न करते हुए मार्ग पर आगे बढ़ते चलें। यह मार्ग पर बढ़नेवाला व्यक्ति ही 'ब्रह्मा'-बड़ा बनता है। अगले सूक्त का ऋषि यही है -
भाषार्थ
(अशपतः नः) शाप न देते हुए हमें (यः) जो (शपात्) शाप देवे, (च) और [प्रत्युत्तर में] (यः) जो (शपतः नः) शाप देते हुए हमें (शपात्) [पुनः] शाप देवे, वह (विद्युता हतः) विद्युत् द्वारा मारे गये (वृक्षः इव) वृक्ष के सदृश (आ मूलात्) मूल से (अनु) अनुक्रमपूर्वक (शुष्य तु) सूख जाय।
टिप्पणी
[शाप = सनिन्द उपालम्भ (सायण)। शपात्= निन्दावाक्यैः भर्त्सयेत् (सायण)। वृक्ष पर जब विद्युत्पात होता है तो वह जड़ समेत सूख जाता है, इसी प्रकार शाप देने वाला भी सूख जाय, ऐसी भावना प्रकट की गई है। शाप देने वाले का मूल या तो सिर अभिप्रेत है, या पाद। तात्पर्य ऐसे व्यक्तियों के विनाश से है। सामाजिक जीवन प्रेममय हो जाता है। तथा “यः” और “नः” में व्यक्ति और समाज का भी ध्यान रखना होता है]।
विषय
निन्दा का प्रतिवाद।
भावार्थ
(यः) जो (अशपतः) निन्दा न करते हुए भी (नः) हमें (शपात्) बुरा भला कहे। और (यः च) जो (शपतः) प्रतिवाद रूपमें बुरा भला कहते हुए (नः) हमें (शपात्) और भला कहे वह (विद्युता हतः) बिजली की मार से मरे हुए (वृक्षइव) वृक्ष के समान (आ मूलात्) चोटी से जड़ तक (अनु शुष्यतु) सूख जाता है। व्यर्थ का निन्दक और प्रतिनिन्दक दोनों ही असत्य और मानस पाप से सूख जाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बादरायणर्ऋषिः। मन्त्रोक्तोऽरिनाशना देवता। अनुष्टुप् छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Evil of Curse
Meaning
Whoever curses us who curse not, and whoever curses us though we too revile the curse, would dry up and die out like a tree struck by lightning, upto the very roots.
Subject
Against enemy (arj-nasanam)
Translation
Whoever curses (abuses) us, while we do not curse (abuse), and whoever curses (abuses) us, while we curse (abuses), may such a person dry up from the very root like a tree struck by the lightning.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.61.1AS PER THE BOOK
Translation
Let the evil which curses us who do not curse anyone, which curses us who curse this evil, be withered from the root like a tree struck by the lightning.
Translation
Like a tree struck by lightning may the man be withered from the root, who curses us who curse him not, or, when we curse him, curseth us.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(यः) दुष्टः (नः) अस्मान् (शपात्) शपेत्। निन्देत् (अशपतः) अशापिनः (शपतः) शापकारिणः (यः) (च) (नः) (शपात्) (वृक्षः) (इव) (विद्युता) अशन्या (हतः) भस्मीकृतः (आ मूलात्) मूलमारभ्य (अनु) निरन्तरम् (शुष्यतु) शुष्को भवतु ॥
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