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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 60 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 60/ मन्त्र 1
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - वास्तोष्पतिः, गृहसमूहः छन्दः - परानुष्टुप्त्रिष्टुप् सूक्तम् - रम्यगृह सूक्त
    1

    ऊर्जं॒ बिभ्र॑द्वसु॒वनिः॑ सुमे॒धा अघो॑रेण॒ चक्षु॑षा मि॒त्रिये॑ण। गृ॒हानैमि॑ सु॒मना॒ वन्द॑मानो॒ रम॑ध्वं॒ मा बि॑भीत॒ मत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऊर्ज॑म् । बिभ्र॑त् । व॒सु॒ऽवनि॑: । सु॒ऽमे॒धा: । अघो॑रेण । चक्षु॑षा । मि॒त्रिये॑ण । गृ॒हान् । आ । ए॒मि॒ । सु॒ऽमना॑: । वन्द॑मान: । रम॑ध्वम् । मा । बि॒भी॒त॒ । मत् ॥६२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऊर्जं बिभ्रद्वसुवनिः सुमेधा अघोरेण चक्षुषा मित्रियेण। गृहानैमि सुमना वन्दमानो रमध्वं मा बिभीत मत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऊर्जम् । बिभ्रत् । वसुऽवनि: । सुऽमेधा: । अघोरेण । चक्षुषा । मित्रियेण । गृहान् । आ । एमि । सुऽमना: । वन्दमान: । रमध्वम् । मा । बिभीत । मत् ॥६२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 60; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    कुवचन के त्याग का उपदेश।

    पदार्थ

    (ऊर्जम्) पराक्रम (बिभ्रत्) धारण करता हुआ, (वसुवनिः) धन उपार्जन करनेवाला, (सुमेधाः) उत्तम बुद्धिवाला, (अघोरेण) अभयानक, (मित्रियेण) मित्र के (चक्षुषा) नेत्र से [देखता हुआ] (सुमनाः) सुन्दर मनवाला, (वन्दमानः) [तुम्हारे] गुण बखानता हुआ मैं (गृहान्) घर के लोगों में (आ एमि) आता हूँ। (रमध्वम्) तुम प्रसन्न होओ, (मत्) मुझ से (मा बिभीत) भय मत करो ॥१॥

    भावार्थ

    स्त्री-पुरुष शरीर और आत्मा का बल और धन आदि पदार्थ प्राप्त करके बड़ी प्रीति से प्रसन्नचित्त रह कर गृहस्थाश्रम को सिद्ध करें ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है-अ० ३।४१ ॥

    टिप्पणी

    १−(ऊर्जम्) पराक्रमम् (बिभ्रत्) धारयन् (वसुवनिः) छन्दसि वनसनरक्षिमथाम्। पा० ३।२।२७। वसु+वन सम्भक्तौ-इन्। वसुनो धनस्य सम्भक्ता, उपार्जकः (सुमेधाः) अ० ५।११।११। सुबुद्धियुक्तः (अघोरेण) अभयानकेन (चक्षुषा) नेत्रेण पश्यन्ति शेषः (मित्रियेण) अ० २।२८।१। मित्र-घ। मित्रसम्बन्धिना (गृहान्) गृहस्थान् पुरुषान् (ऐमि) आगच्छामि (सुमनाः) शोभनज्ञानः (वन्दमानः) युष्मान् स्तुवन् (मा बिभीत) भयं मा प्राप्नुत (मत्) मत्तः ॥

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    विषय

    आदर्श पति

    पदार्थ

    १. 'घर में पति का आदर्श क्या है?' इसका चित्रण करते हुए पति के मुख से ही कहलाते हैं कि (ऊर्ज बिभ्रत्) = बल और प्राणशक्ति को धारण करता हुआ (वसुवनि:) = धन का विजय [उपार्जन] करनेवाला, (सुमेधा:) = उत्तम बुद्धिवाला, (अघोरेण मित्रियेण चक्षुषा) = अभयानक स्नेहभरी दृष्टि से युक्त हुआ-हुआ मैं (गृहान् ऐमि) = [आ एमि] घर के लोगों को प्राप्त करता हूँ। २. मैं (सुमना:) = प्रशस्त [प्रसन्न] मनवाला (वन्दमान:) = अभिवादन व स्तुति करता हुआ आता हूँ। (रमध्वम्) = तुम प्रसन्न होवो। (मा बिभीत मत्) = मुझसे भयभीत न होवो। घर में पिता के आने पर घरवालों को प्रसन्नता का अनुभव हो। उनके कठोर स्वभाव के कारण घरवाले भयभीत न हों और अप्रसन्नता का अनुभव न करें।

    भावार्थ

    आदर्श गृहस्थ वह है जिसका शरीर प्राणशक्ति-सम्पन्न है, जो धन का अर्जन करनेवाला है, प्रेमभरी दृष्टि से युक्त है, प्रशस्त मनवाला व प्रभुस्तवन की वृत्तिवाला है।

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    भाषार्थ

    (ऊर्जम् विभ्रत्) बलप्रद अन्न धारण करता हुआ, (वसुवनिः) धन का विभाग करने वाला, (सुमेधाः) उत्तम मेधा वाला, तथा (अघोरेण) प्रेममयी तथा (मित्रियेण) मैत्री भरी (चक्षुषा) चक्षु के साथ (गृहान्) घरवासियों के पास (ऐमि१) मैं आता हूं। (सुमनाः) सुप्रसन्न मन वाला मैं, (वन्दमानः) वन्दना करता हुआ [आता हूं], (रमध्वम्) तुम सुखी होओ, (मत्) मुझ से (मा बिभीत) भय न करो।

    टिप्पणी

    [वर्णन से प्रतीत होता है कि गृहपति, धनार्जन के लिये, बहुकाल तक घर से बाहर रहा है, और उसकी मुखाकृति आदि में पर्याप्त अन्तर आ गया है। इसलिये वह निज परिवार को गृहपति होने का विश्वास दिला रहा है]। [१. ऐमि, आयतः नः= एक वचन तथा बहुवचन एक ही व्यक्ति के निर्देशक है, 'अस्मदो द्वयोश्च' (अष्टा० १।२।५९)।]

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    विषय

    गृह स्वामि और गृह-बन्धुओं के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    मैं गृहपति जब (गृहान्) अपने घर, स्त्री, पुत्र आदि के पास (एमि) आऊँ तब (ऊर्जम्) पुष्टिकारक अन्न को (बिभ्रत्) लिये हुए आऊँ। और आकर (वसु-वनिः) आवासयोग्य अन्न, वस्त्र, धन आदि को सब में बाटूं और (सु-मेधाः) उत्तम शुद्ध बुद्धि से युक्त होकर (अघोरेण) अघोर, सौम्य, प्रसन्न (मित्रियेण) स्नेहपूर्ण (चक्षुषा) दृष्टि से सबको देखूं और (सु-मनाः) शुभ प्रसन्नचित्त होकर सबको (वन्दमानः) नमस्कार करूं। हे गृह के वासियो ! और स्त्रियों ! भाइयो ! (रमध्वं) आप लोग आनन्द-प्रसन्न रहो, (मत्) मुझसे (मा बिभीत) किसी प्रकार का भय मत करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ब्रह्मा ऋषिः। रम्या गृहाः वास्तोष्पतयश्च देवलः। पराऽनुष्टुभः। सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Happy Home

    Meaning

    Bearing strength and enthusiasm, comfortable with money and success, happy at heart and noble in understanding and intelligence, I come and take residence in the home with the inmates, looking at all with a loving friendly eye, full of respect for all. O friends and members of the family, enjoy yourselves, fear nothing, not me. (Thus the house-holder enters the new home, let us say, to settle after his education and training.

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    Subject

    Houses - Vastospatih

    Translation

    Goodly wise, full of vigour, having won riches, here I come to these my houses with mild and friendly looking ones, good-hearted and greeting. Rejoice; have no fear from me.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.62.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    I, the house-holder bringing power and perseverance, having wealth in my possession; accomplished with knowledge with amicable and unterrifying eye, with delightful spirit and praising all come to the people of my house, let them not be afraid of me and be delightful.

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    Translation

    When I come from a distant place to the inmates of my house, I bring nutritious foodstuffs for them, distribute money amongst them, prudently look upon them with amicable eye that strikes no terror. Full of glee I salute them all, and say “O inmates of the house, be glad and joyful, be not afraid of me”!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(ऊर्जम्) पराक्रमम् (बिभ्रत्) धारयन् (वसुवनिः) छन्दसि वनसनरक्षिमथाम्। पा० ३।२।२७। वसु+वन सम्भक्तौ-इन्। वसुनो धनस्य सम्भक्ता, उपार्जकः (सुमेधाः) अ० ५।११।११। सुबुद्धियुक्तः (अघोरेण) अभयानकेन (चक्षुषा) नेत्रेण पश्यन्ति शेषः (मित्रियेण) अ० २।२८।१। मित्र-घ। मित्रसम्बन्धिना (गृहान्) गृहस्थान् पुरुषान् (ऐमि) आगच्छामि (सुमनाः) शोभनज्ञानः (वन्दमानः) युष्मान् स्तुवन् (मा बिभीत) भयं मा प्राप्नुत (मत्) मत्तः ॥

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