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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 62/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कश्यपः देवता - अग्निः छन्दः - जगती सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
    1

    अ॒यम॒ग्निः सत्प॑तिर्वृ॒द्धवृ॑ष्णो र॒थीव॑ प॒त्तीन॑जयत्पु॒रोहि॑तः। नाभा॑ पृथि॒व्यां निहि॑तो॒ दवि॑द्युतदधस्प॒दं कृ॑णुतां॒ ये पृ॑त॒न्यवः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । अ॒ग्नि: । सत्ऽप॑ति:। वृ॒ध्‍दऽवृ॑ष्ण: । र॒थीऽइ॑व । प॒त्तीन् । अ॒ज॒य॒त् । पु॒र:ऽहि॑त: । नाभा॑ । पृथि॒व्याम् ।‍ निऽहि॑त: । दवि॑द्युतत् । अ॒ध॒:ऽप॒दम् । कृ॒णु॒ता॒म् । ये । पृ॒त॒न्यव॑: ॥६४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमग्निः सत्पतिर्वृद्धवृष्णो रथीव पत्तीनजयत्पुरोहितः। नाभा पृथिव्यां निहितो दविद्युतदधस्पदं कृणुतां ये पृतन्यवः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । अग्नि: । सत्ऽपति:। वृध्‍दऽवृष्ण: । रथीऽइव । पत्तीन् । अजयत् । पुर:ऽहित: । नाभा । पृथिव्याम् ।‍ निऽहित: । दविद्युतत् । अध:ऽपदम् । कृणुताम् । ये । पृतन्यव: ॥६४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 62; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    सेनापति के लक्षण का उपदेश।

    पदार्थ

    (अयम्) इस (सत्पतिः) श्रेष्ठों के रक्षक, (वृद्धवृष्णः) बड़े बलवाले, (पुरोहितः) सबके अगुआ (अग्निः) अग्निसमान तेजस्वी सेनापति ने (रथी इव) रथवाले योधा के समान (पत्तीन्) [शत्रु की] सेनाओं को (अजयत्) जीत लिया है। (पृथिव्याम्) पृथिवी पर (नाभा) नाभि में (निहितः) स्थापित किया हुआ (दविद्युतत्) अत्यन्त प्रकाशमान वह [उनको] (अधस्पदम्) पाँव के तले (कृणुताम्) कर लेवे, (ये) जो (पृतन्यवः) सेना चढ़ानेवाले हैं ॥१॥

    भावार्थ

    जो शूरवीर पुरुष सब शत्रुओं को जीत कर सज्जनों की रक्षा करे, वही गोलाकार पृथिवी के बीच में सब ओर से चक्रवर्ती राजा होकर संसार में उपकारी बने ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(अयम्) प्रसिद्धः (अग्निः) अग्निवत्तेजस्वी सेनापतिः (सत्पतिः) सतां सज्जनानां पालकः (वृद्धवृष्णः) इण्सिञ्जि०। उ० ३।२। वृषु सेचने-नक्। वृष्णं बलम्। प्रवृद्धबलः (रथी) रथ-इनि। रथवान् योद्धा (इव) यथा (पत्तीन्) पदिप्रथिभ्यां नित्। उ० ४।१८३। पद गतौ स्थैर्ये च-ति। शत्रुसेनाः (अजयत्) जितवान् (पुरोहितः) अ० ३।१९।१। अग्रगामी (नाभा) नाभौ मध्यदेशे (पृथिव्याम्) भूमौ (निहितः) स्थापितः। अभिषिक्तः (दविद्युतत्) दाधर्त्तिदर्द्धर्त्ति०। पा० ७।४।६५। द्युत दीप्तौ यङ्लुकि शतृ। अत्यर्थं द्योतमानः (अधस्पदम्) पादस्याधो देशे (कृणुताम्) करोतु (ये) शत्रवः (पृतन्यवः) अ० ७।३४।१। संग्रामेच्छवः ॥

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    विषय

    काश्यप मरीचि' का जीवन

    पदार्थ

    १. (अयम्) = यह कश्यप (अग्नि:) = अग्नणी है, स्वयं उन्नति-पथ पर चलता हुआ औरों को भी उन्नति-पथ पर ले-चलता है। (सत्पतिः) = सज्जनों का रक्षक है। (वृद्धवृष्ण:) = बढ़े हुए बलवाला है। शत्रुओं को इसप्रकार (अजयत्) = जीत लेता है, (इव) = जैसेकि (रथी पत्तीन) = एक रथी पैदलों पर विजय पानेवाला होता है। यह शरीररूप रथ पर आरूढ़ हुआ-हुआ काम, क्रोध आदि शत्रुओं का पराभव करता है। (पुरोहित:) = यह औरों के सामने [पुर:] आदर्शरूप से स्थापित [हित:] होता है, इसका जीवन औरों के लिए आदर्श उपस्थित करता है। २. (पृथिव्याम् नाभा) = [अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः] यज्ञों में [पृथिवी के केन्द्रभूत यज्ञों में] (निहित:) = स्थापित होता है और (दविद्युतत्) = खूब ही चमकता है। यह यज्ञशील पुरुष उनको (अधस्पदं कृणुताम्) = पाँव तले रोदनेवाला हो, (ते पृतन्यवः) = जो शत्रु इसके साथ संग्राम के इच्छुक होते हैं, उन शत्रुओं को मार डालने से ही तो यह 'मरीचि' कहलाता है।

    भावार्थ

    हम शत्रुओं को समाप्त करके 'मरीचि' बनें। ज्ञान की रुचिवाले, शक्तिसम्पन्न [वृद्धवृष्णः] व यज्ञशील बनें, तभी हमारा जीवन दीस व औरों के लिए आदर्श होगा।

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    भाषार्थ

    (अयम्) यह (अग्निः) अग्रणी प्रधानमन्त्री (सत्पतिः) प्रजा का सच्चा रक्षक है, (वृद्धवृष्णः) प्रवृद्ध बलशाली, तथा (पुरोहितः) अगुआ हो कर हितकारी है, (रथी इव) रथयोद्धा के सदृश (पत्तीन्) पदाति-सैनिकों पर (अजयत्) विजय पाता है। (पृथिव्याम्) राष्ट्रभूमि में (नाभा = नाभौ) केन्द्रस्थान में (निहितः) स्थापित हुआ (दविद्युतत्) तेज में चमकता है। (ये) जो शत्रु (पृतन्यवः) सेना द्वारा हमारे साथ संग्राम चाहते हैं उन्हें (अधस्पदम्) हमारे पादों तले (कृणुताम्) करे।

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    विषय

    जितेन्द्रिय राजा और आचार्य

    भावार्थ

    (भयम्) यह (अग्निः) ज्ञानवान् परमेश्वर और आचार्य, राजा, (सत्-पतिः) सज्जन पुरुषों और सद् ब्रह्मचारियों का पालक, (वृद्ध-वृष्णः) महाबलशाली, आयु में वृद्ध, और अर्थात् ज्ञानवृद्ध-पुरुषों द्वारा बलवान्, (पुरः-हित) मुखिया और सब के आगे प्रधान पद पर स्थापित होकर, (रथी इव) रथी जिस प्रकार (पत्तीन्) पैदल सैनिकों पर (अजयत्) विजय पा लेता है उसी प्रकार यह भी विषय वासना रूपी शत्रुओं तथा देश के शत्रुओं पर विजय पाए हुए है। (पृथिव्यां) विस्तृत संसार की (नाभा) नाभि अर्थात् केन्द्र में (निहितः) स्थापित सूर्य जिस प्रकार (दविद्युतत्) निरन्तर सब को प्रकाशित कर रहा है इसी प्रकार परमेश्वर सब संसार को प्रकाशित करता है, आचार्य शिष्यगण को विद्या से प्रकाशित करता है और राजा राष्ट्र में ज्ञान का प्रकाश करता है। (ये) जो (पृतत्यवः) कामादि दुश्मन और हमारे देश के दुश्मन पृतना = सेना लेकर हम पर चढ़ आवें, (अधः पदं कृणुताम्) उन्हें आप नीचा करें, कुचलें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप मारीच ऋषिः। अग्निर्देवता। जगती छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Heroic Brave

    Meaning

    This Agni, blazing hero, veteran, virile lover and protector of Truth and the truthful, conquers the pedestrian fighters like a chariot hero. Leader and pioneer, shining in glory at the centre of the earth, may he crush the onslaughts of strife and hostility under the foot.

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    Subject

    Agnih

    Translation

    This fire-divine, the sustainer of the good, increased in might, leading in front, conquers just as a chariot-warrior conquers foot-soldiers. Being placed at the navel of the earth (i.e., the altar), this shines up. May he put them under foot, who want to invade us.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.64.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    This fire is the preserver of all the worldly things that exist, it is exceedingly powerful and present in the things before they are produced, it like a warrior conquers all the obstructive forces. It laid on in the centre of earth shines and let it used scientifically lay our enemies beneath us.

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    Translation

    This Omniscient God, the Guardian of the virtuous. Almighty, Foremost of all, conquers all passions, the spiritual foes, just as a car-warrior conquers footmen. Just as the sun laid in the centre of the world lends light to all, so does God illumine the universe. May He lay our enemies below our feet.

    Footnote

    Enemies: Foes like lust, anger and those who attack us with an army (64-1) Griffith following Sayana has translated Apa as waters, and कृष्ण शकुनि as black raven, which is not so logical and rational. Apa means internal moral forces in man granted by God. कृष्ण means fascinating, शकुनि means overpowering sin.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(अयम्) प्रसिद्धः (अग्निः) अग्निवत्तेजस्वी सेनापतिः (सत्पतिः) सतां सज्जनानां पालकः (वृद्धवृष्णः) इण्सिञ्जि०। उ० ३।२। वृषु सेचने-नक्। वृष्णं बलम्। प्रवृद्धबलः (रथी) रथ-इनि। रथवान् योद्धा (इव) यथा (पत्तीन्) पदिप्रथिभ्यां नित्। उ० ४।१८३। पद गतौ स्थैर्ये च-ति। शत्रुसेनाः (अजयत्) जितवान् (पुरोहितः) अ० ३।१९।१। अग्रगामी (नाभा) नाभौ मध्यदेशे (पृथिव्याम्) भूमौ (निहितः) स्थापितः। अभिषिक्तः (दविद्युतत्) दाधर्त्तिदर्द्धर्त्ति०। पा० ७।४।६५। द्युत दीप्तौ यङ्लुकि शतृ। अत्यर्थं द्योतमानः (अधस्पदम्) पादस्याधो देशे (कृणुताम्) करोतु (ये) शत्रवः (पृतन्यवः) अ० ७।३४।१। संग्रामेच्छवः ॥

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