अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 63/ मन्त्र 1
पृ॑तना॒जितं॒ सह॑मानम॒ग्निमु॒क्थ्यैर्ह॑वामहे पर॒मात्स॒धस्था॑त्। स नः॑ पर्ष॒दति॑ दु॒र्गाणि॒ विश्वा॒ क्षाम॑द्दे॒वोऽति॑ दुरि॒तान्य॒ग्निः ॥
स्वर सहित पद पाठपृ॒त॒ना॒ऽजित॑म् । सह॑मानम् । अ॒ग्निम् । उ॒क्थै: । ह॒वा॒म॒हे॒ । प॒र॒मात् । स॒धऽस्था॑त्। स: । न॒: । प॒र्ष॒त् । अति॑ । दु॒:ऽगानि॑ । विश्वा॑ । क्षाम॑त् । दे॒व: । अति॑ । दु॒:ऽ0इ॒तानि॑ । अ॒ग्नि: ॥६५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
पृतनाजितं सहमानमग्निमुक्थ्यैर्हवामहे परमात्सधस्थात्। स नः पर्षदति दुर्गाणि विश्वा क्षामद्देवोऽति दुरितान्यग्निः ॥
स्वर रहित पद पाठपृतनाऽजितम् । सहमानम् । अग्निम् । उक्थै: । हवामहे । परमात् । सधऽस्थात्। स: । न: । पर्षत् । अति । दु:ऽगानि । विश्वा । क्षामत् । देव: । अति । दु:ऽ0इतानि । अग्नि: ॥६५.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सेनापति के कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(पृतनाजितम्) संग्राम जीतनेवाले, (सहमानम्) विजयी, (अग्निम्) अग्निसमान तेजस्वी सेनापति को (उक्थैः) स्तुतियों के साथ [उसके] (परमात्) बहुत ऊँचे (सधस्थात्) निवासस्थान से (हवामहे) हम बुलाते हैं। (सः) वह (देवः) व्यवहारकुशल (अग्निः) तेजस्वी सेनापति (विश्वा) सब (दुर्गाणि) दुर्गों को (अति) उलाँघ कर और (दुरितानि) विघ्नों को (अति) हटाकर (नः) हमें (पर्षत्) पार लगावे, और (क्षामत्) समर्थ करे ॥१॥
भावार्थ
जो शूर सेनापति शत्रुओं के गढ़ तोड़ कर विजय पाता है, वही प्रजापालन में समर्थ होता है ॥१॥
टिप्पणी
१−(पृतनाजितम्) संग्रामजेतारम् (सहमानम्) षह अभिभवने नैरुक्तो धातुः। अभिभवन्तम्। विजयिनम् (अग्निम्) अग्निवत्तेजस्विनं सेनापतिम् (उक्थैः) वक्तव्यैः स्तोत्रैः (हवामहे) आह्वयामः (परमात्) उत्कृष्टात् (सधस्थात्) निवासात् (सः) (नः) अस्मान् (पर्षत्) अ० ६।३४।१। पारयेत् (अति) उल्लङ्घ्य (दुर्गाणि) दुर्गमनान् शत्रुकोट्टान् (विश्वा) सर्वाणि (क्षामत्) क्षमूष् सहने णिचि, लेटि, अडागमः। क्षामयेत् समर्थयेत् (देवः) व्यवहारकुशलः (अति) अतीत्य (दुरितानि) विघ्नान् (अग्निः) सेनापतिः ॥
विषय
'सर्वमहान् मरीचि'-प्रभु
पदार्थ
१. (पृतनाजितम्) = सब संग्रामों को विजित करनेवाले, प्रभुकृपा से ही तो संग्रामों में विजय होती है। (सहमानम्) = शत्रुओं का मर्षण करनेवाले (अग्निम्) = अग्रणी प्रभु को (उक्थैः) = स्तोत्रों से (परमात् सधस्थात्) = सर्वोत्कृष्ट सहस्थान [हृदय] से (हवामहे) = पुकारते हैं। जीवात्मा व परमात्मा का मिलकर रहने का स्थान हृदय ही है। हृदयदेश से ही प्रभु का आह्वान होता है। ये प्रभ ही पुकारे जाने पर हमारे शत्रुओं का संहार करते हैं। २. (स:) = वे प्रभु (नः) = हमें (विश्वा दुर्गाणि) = सब कठिनताओं से (अतिपर्षत) = पार करें। वह (देव:) = प्रकाशमय (अग्रिः) = अग्रणी प्रभु (दुरितानि) = सब अशुभ आचरणों को (अति क्षामत्) = [सै क्षये] नष्ट कर दें।
भावार्थ
वे अग्रणी प्रभु हमें सब संग्रामों में विजयी बनाएँ। वे हमें दुर्गा-कठिनाइयों से पार करें तथा हमारे दुरितों को विनष्ट करें।
सब दुरितों को दूर करके यह अपने जीवन को बड़ा संयत करता है। संयत करनेवाला यह 'यम' है। यम ही अगले सूक्त का ऋषि है -
भाषार्थ
(पृतनाजितम्) सेनाविजयी, (सहमानम्) पराभवकारी अथवा सहनशील (अग्निम्) अग्रणी को (परमात् सधस्थात्) दूर देश से भी (उक्थैः) स्तुतिवचनों द्वारा (हवामहे) हम बुला लाते हैं । (सः) वह (नः) हमें (विश्वा दुर्गाणि) सब दुर्गम कष्टों से (अति पर्षत्) पार करे, (अग्निः देवः) वह अग्रणी-देव (दुरितानि) हमारे कष्टों को (अति क्षामत्) पूर्णतया क्षीण कर दे।
टिप्पणी
[राष्ट्र के विपत्तिग्रस्त होने पर दूरदेशस्थ योग्य व्यक्ति को भी प्रार्थित कर आना चाहिये। क्षामत् = क्षै क्षये (भ्वादिः) + क्तः। "क्षायो मः” (अष्टा० ८।२।५३) द्वारा क्त के "त" को "म"। “तत् करोति” अर्थ में णिच्, लेट्, तिप् के "इ" का लोप (इतश्च लोपः ०अष्टा० ३।४९७) अट् "णि" का लोप (सायण)]।
विषय
राजा का आमन्त्रण।
भावार्थ
(पृतना-जितम्) सेनाओं द्वारा संग्राम का विजय करने वाले, (सहमानम्) शत्रु को दबानेवाले, (अग्निम्) अनि के समान तेजस्वी परन्तप राजा की, उसके (परमात्) परम अर्थात् सबसे उत्कृष्ट होकर हमारे बीच में (सघ-स्थात्) हमारे साथ रहने के कारण, (हवामहे) हम स्तुति करते हैं, उसको अपनी रक्षा और शिक्षा के लिये आदर से बुलाते हैं, क्योंकि (सः) वह (नः) हमें (विश्वा) समस्त (दु-गानि) दुर्गम स्थानों से (अति पर्षत्) पार कर देता है। और वही (देवः) सर्व व्यवहारकुशल राजा, (अग्निः) अग्नि के समान समस्त पापों को भस्म करने हारा, दुष्टों का तापकारी, (दुः-इतानि) सब दुष्ट कर्मों का (अति क्षामद) सर्वथा नाश करे।
टिप्पणी
हैनरी-ह्विटनि आदयः ‘क्षामद्’ इत्यस्यस्थानं ‘क्रामद्’ इति वाञ्छन्ति। तदयुक्तम्। क्वाषि तथानुपलम्भात्। ‘क्षामत’ इति नाशकरर्णार्थस्य क्षायः क्तान्तस्य णिचि लेटि रूपम्।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मरीचिः काश्यप ऋषिः। जातवेदा देवता। जगती छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Saviour
Meaning
With hymns of adoration we invoke and call Agni, conqueror of hosts, patient, challenging and subduing, to come from the farthest of far places, and we pray to the pioneer warring Agni that he may lead us successfully across all strongholds of the enemy and destroy all evils and despicables of life from the earth.
Subject
Jatavedah
Translation
With our praise-songs, we call the fire-divine (adorable Lord), the conqueror of enemy-hordes, the overpowerer, form his highest abode. May he get us across all difficulties. May the shining fire-divine conduct us across the troubles.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.65.1AS PER THE BOOK
Translation
We with its full description laud the properties of this fire which is the means of conquering the enemies, which is most overpowering force and which (in light form) proceeds from the vast solar space. Let this mighty fire remove away our all the insurmountable obstacles and the troubles.
Translation
We call with lauds from his most lofty position, victorious King, conqueror in battles. May he convey us over all distresses, may the fiery king destroy all our vices.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(पृतनाजितम्) संग्रामजेतारम् (सहमानम्) षह अभिभवने नैरुक्तो धातुः। अभिभवन्तम्। विजयिनम् (अग्निम्) अग्निवत्तेजस्विनं सेनापतिम् (उक्थैः) वक्तव्यैः स्तोत्रैः (हवामहे) आह्वयामः (परमात्) उत्कृष्टात् (सधस्थात्) निवासात् (सः) (नः) अस्मान् (पर्षत्) अ० ६।३४।१। पारयेत् (अति) उल्लङ्घ्य (दुर्गाणि) दुर्गमनान् शत्रुकोट्टान् (विश्वा) सर्वाणि (क्षामत्) क्षमूष् सहने णिचि, लेटि, अडागमः। क्षामयेत् समर्थयेत् (देवः) व्यवहारकुशलः (अति) अतीत्य (दुरितानि) विघ्नान् (अग्निः) सेनापतिः ॥
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