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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 65 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 65/ मन्त्र 1
    ऋषिः - शुक्रः देवता - अपामार्गवीरुत् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दुरितनाशन सूक्त
    1

    प्र॑ती॒चीन॑फलो॒ हि त्वमपा॑मार्ग रु॒रोहि॑थ। सर्वा॒न्मच्छ॒पथाँ॒ अधि॒ वरी॑यो यावया इ॒तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒ती॒चीन॑ऽफल: । हि । त्वम् । अपा॑मार्ग । रु॒रोहि॑थ । सर्वा॑न् । मत् । श॒पथा॑न् । अधि॑ । वरी॑य: । य॒व॒या॒: । इ॒त: ॥६७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रतीचीनफलो हि त्वमपामार्ग रुरोहिथ। सर्वान्मच्छपथाँ अधि वरीयो यावया इतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रतीचीनऽफल: । हि । त्वम् । अपामार्ग । रुरोहिथ । सर्वान् । मत् । शपथान् । अधि । वरीय: । यवया: । इत: ॥६७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 65; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    वैद्य के कर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (अपामार्ग) हे सर्वसंशोधक वैद्य ! [वा अपामार्ग औषध !] (त्वम्) तू (हि) निश्चय करके (प्रतीचीनफलः) प्रतिकूलगतिवाले रोगों का नाश करनेवाला (रुरोहिथ) उत्पन्न हुआ है। (इतः मत्) इस मुझसे (सर्वान्) सब (शपथान्) शापों [दोषों] को (अधि) अधिकारपूर्वक (वरीयः) अतिदूर (यवयाः) तू हटा देवे ॥१॥

    भावार्थ

    जैसे वैद्य अपामार्ग आदि औषध से रोगों को दूर करता हैं, वैसे ही विद्वान् अपने आत्मिक और शारीरिक दोषों को हटावे ॥१॥ अपामार्ग औषध विशेष है, जिससे कफ़ बवासीर, खुजली, उदररोग और विषरोग का नाश होता है−देखो अ० ४।१७।६ ॥

    टिप्पणी

    १−(प्रतीचीनफलः) अ० ५।१९।७। प्रतिकूलगतिमतां रोगाणां विदारकः (हि) निश्चयेन (त्वम्) (अपामार्ग) अ० ४।१७।६। हे सर्वथा संशोधक वैद्य। औषधविशेष (रुरोहिथ) रुह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च-लिट् उत्पन्नो बभूविथ (सर्वान्) (मत्) मत्तः (शपथान्) शापान् दोषान् (अधि) अधिकृत्य (वरीयः) उरुतरम्। अति दूरम् (यावयाः) यु मिश्रणामिश्रणयोः-लेटि, आडागमः, सांहितिको दीर्घः। पृथक् कुर्याः (इतः) अस्मात् ॥

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    विषय

    प्रतीचीनफल:

    पदार्थ

    १. हे अपामार्ग सब दोषों को दूर करके हमारे जीवनों को शुद्ध करनेवाले प्रभो! (त्वम) = आप (हि) = निश्चय से (प्रतीचीनफल:) = प्रत्यक्ष, साक्षात् होकर ही [जिफला विशरणे] पापों को विशीर्ण करनेवाले हैं। जिसके हृदय में आपका साक्षात्कार होता है, आप उसके पापों को नष्ट कर देते है। आप (रुरोहिथ) = हृदय देश में प्रादुर्भूत होते हैं। [रुह प्रादुर्भावे]। आप (सर्वान) = सब शपथान आक्रोशों को, अपशब्दों को (इत: मत्) = यहाँ मुझसे (वरीयः) [उरुतरं अत्यर्थम्] = बहुत दूर (यावयाः) = पृथक् कर दीजिए।

    भावार्थ

    प्रभु अपामार्ग है, हमारे जीवनों का शोधन करनेवाला है। शोधन होता तभी है, जब हृदय-देश में प्रभु का साक्षात्कार हो। यह साक्षात्कार हमारे जीवन से सब आक्रोशों को दूर फेंक देता है। उपासक कभी अपशब्द नहीं बोलता।

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    भाषार्थ

    (अपामार्ग) हे दोषशोधक औषध ! (हि) यतः (त्वम्) तू (प्रतीचीनफलः) प्रतीचीनफल हुई (रुरोहिथ) प्रादुर्भूत हुई है, (मत् अधि) मुझ से (सर्वान् शपथान्) सब शपथों को (इतः) इस फल द्वारा (वरीयः यावय) दूर तक पृथक् कर दे।

    टिप्पणी

    [प्रतीचीनफलः= प्रत्यङ्मुखफल१ वाली औषध या वीरुद् (सायण)। शपथान्= शपथ अर्थात् सौगन्ध, कसम। सौगन्ध सदा झूठी होती है, यह मनोविकार है। सम्भवतः अपामार्ग इस मनोविकार का शोधन कर देता हो। अपामार्ग = अप + मृजूष शुद्धौ (अदादिः) दोष को अपगत करके मार्जन करने वाली, शुद्ध करने वाली। अपामार्ग = Achyranther asper। यह औषध होम्योपेथिक Aconite के समान गुणों वाली है जिसका प्रयोग नाना मानसिक विकारों में होता है]। [१. "प्रत्यङ्मुखफल" का अभिप्राय अस्पष्ट है।]

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    विषय

    पापनिवारक ‘अपामार्ग’ का स्वरूप वर्णन।

    भावार्थ

    हे (अपामार्ग) अपामार्ग लते ! (स्वम्) तू जिस प्रकार (प्रतीचीनफलः) अपने फलों को अपने से छूने वाले के प्रति कष्टदायी होकर अपने फलों को उसको वस्त्रों से चिपटा देती है इसलिये ‘प्रतीचीनफल’ वाली होकर (रुरोहिथ) उगा करती है। इसलिये तेरे पास कोई नहीं जाता। इसी प्रकार हे (अपामार्ग) पाप लेशों को दूर से परे रखने वाले पुरुष ! तू भी (प्रतीचीनफलः) अपने शत्रुओं के लिये विपरीत फल उत्पन्न करने वाले कामों को करता हुआ (रुरोहिथ) वृद्धि को प्राप्त हो। और (मत्) मुझ से (सर्वान्) समस्त (शपथान्) आक्रोश या निन्दाजनक भावों को (इतः) अभी इसी काल से (वरीयः) सर्वथा (अधि यवय) परे कर। अथवा अपामार्ग शब्द से आत्मा का ही सम्बोधन किया गया है। है (अपामार्ग) कर्मपरिशोधक आत्मन् ! तू (प्रतीचीन-फलः) प्रत्यक्, साक्षात् होकर ही फलने हारा या स्वतः फलरूप होकर (रुरोहिथ) अधिक बलवान् पुष्ट होता है। मुझसे (शपथान्) सब पाप भावों को (इतः) यहां इस देह से (अधि यवय) दूर कर। देखो अथर्व ० ४। १९। ७॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    दुरितापमृष्टिप्रार्थी शुक्र ऋषिः। अपामार्गवीरुद् देवता। अनुष्टुप छन्दः। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Apamarga Herb

    Meaning

    Apamarga, of reverting and reverted growth is your fruit, you grow all-cure, versatile: Reversion of disease is the result. Pray throw off all cursed diseases from us to farthest of the far distance.

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    Subject

    Apamargah

    Translation

    O plant (apamarga - Achyyrantes aspera; literally one that wipes off), you have grown with retroverted fruit. May you drive all the abuses and curses away from me to the farthest distance from here.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.67.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    This Apamarga (Achyranthes Aspera) having retroverted fruit or being an antidote against diseases, springs and grows. Let it drive away diseases concerned with it into most remote distance.

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    Translation

    O soul, the purifier of deeds, being the direct reaper of the fruit of actions, thou growest more powerful. Remove completely far from this body all sentiments of sin!

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(प्रतीचीनफलः) अ० ५।१९।७। प्रतिकूलगतिमतां रोगाणां विदारकः (हि) निश्चयेन (त्वम्) (अपामार्ग) अ० ४।१७।६। हे सर्वथा संशोधक वैद्य। औषधविशेष (रुरोहिथ) रुह बीजजन्मनि प्रादुर्भावे च-लिट् उत्पन्नो बभूविथ (सर्वान्) (मत्) मत्तः (शपथान्) शापान् दोषान् (अधि) अधिकृत्य (वरीयः) उरुतरम्। अति दूरम् (यावयाः) यु मिश्रणामिश्रणयोः-लेटि, आडागमः, सांहितिको दीर्घः। पृथक् कुर्याः (इतः) अस्मात् ॥

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