अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 66/ मन्त्र 1
ऋषिः - ब्रह्मा
देवता - ब्राह्मणम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्म सूक्त
2
यद्य॒न्तरि॑क्षे॒ यदि॒ वात॒ आस॒ यदि॑ वृ॒क्षेषु॒ यदि॒ वोल॑पेषु। यदश्र॑वन्प॒शव॑ उ॒द्यमा॑नं॒ तद्ब्राह्म॒णं पुन॑र॒स्मानु॒पैतु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयदि॑ । अ॒न्तरि॑क्षे । यदि॑ । वाते॑ । आस॑ । यदि॑ । वृ॒क्षेषु॑ । यदि॑ । वा॒ । उल॑पेषु । यत् । अश्र॑वन् । प॒शव॑: । उ॒द्यमा॑नम् । तत् । ब्राह्म॑णम् । पुन॑: । अ॒स्मान् । उ॒प॒ऽऐतु॑ ॥६८.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्यन्तरिक्षे यदि वात आस यदि वृक्षेषु यदि वोलपेषु। यदश्रवन्पशव उद्यमानं तद्ब्राह्मणं पुनरस्मानुपैतु ॥
स्वर रहित पद पाठयदि । अन्तरिक्षे । यदि । वाते । आस । यदि । वृक्षेषु । यदि । वा । उलपेषु । यत् । अश्रवन् । पशव: । उद्यमानम् । तत् । ब्राह्मणम् । पुन: । अस्मान् । उपऽऐतु ॥६८.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
वेदविज्ञान की व्याप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(यदि=यत्) जो [ब्रह्मज्ञान] (अन्तरिक्षे) आकाश में, (यदि) जो (वाते) वायु में (यदि) जो (वृक्षेषु) वृक्षों में, (वा) और (यदि) जो (उलपेषु) कोमल तृणों [अन्न आदि] में (आस) व्याप्त था। (यत्) जिस (उद्यमानम्) उच्चारण किये हुए को (पशवः) सब प्राणियों ने (अश्रवन्) सुना है, (तत्) वह (ब्राह्मणम्) वेद विज्ञान (पुनः) बारंबार [अथवा परजन्म में] (अस्मान्) हमें (उपैतु) प्राप्त होवे ॥१॥
भावार्थ
ईश्वरज्ञान सब पदार्थों में, और सब पदार्थ ईश्वरज्ञान में हैं, मनुष्य उस ईश्वरज्ञान को नित्य और जन्म-जन्म में प्राप्त करके मोक्षपदभागी होवें ॥१॥
टिप्पणी
१−(यदि) यत्। ब्राह्मणम् (अन्तरिक्षे) आकाशे (यदि) (वाते) वायौ (आस) अस गतिदीप्त्यादानेषु-लिट्। व्याप्तं बभूव (यदि) (वृक्षेषु) सेवनीयेषु तरुषु (यदि) (वा) अवधारणे। समुच्चये (उलपेषु) विटपविष्टपविशिपोलपाः। उ० ३।१४५। बल संवरणे-कप् प्रत्ययः, सम्प्रसारणम्। कोमलतृणेषु। अन्नादिषु (यत्) ब्राह्मणम् (अश्रवन्) शृणोतेर्लङि छान्दसः शप्। अशृण्वन् (पशवः) अ० २।२६।१। मनुष्यादिप्राणिनः (उद्यमानम्) वद् व्यक्तायां वाचि कर्मणि शानच्, यक्, यजादित्वात् सम्प्रसारणम्। उच्चार्यमाणम् (तत्) (ब्राह्मणम्) तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। ब्रह्मन्-अण्। अन्। पा० ६।४।१६७। न टिलोपः। ब्रह्मणः परमेश्वरस्य ब्राह्मणस्य वेदम्। वेदविज्ञानम् (पुनः) वारं वारम्। परजन्मनि वा (अस्मान्) उपासकान् (उपैतु) उप+आ+एतु। प्राप्नोतु ॥
विषय
पशवः ब्राह्मणं अश्रवन्
पदार्थ
१. (यदि) = यदि (अन्तरिक्षे) = इस विशाल अन्तरिक्ष में (ब्राह्मणम्) = ब्रह्मज्ञान (आस) = है। अन्तरिक्ष अपने सब लोक-लोकान्तरों द्वारा प्रभु के स्वरूप का ज्ञान करा रहा है, (यदि वाते) = अथवा निरन्तर बहनेवाले वायु में जो ब्रह्मज्ञान है, यदि (वृक्षेषु) = यदि वृक्षों की रचना में जो प्रभु की महिमा का प्रादुर्भाव हो रहा है, (यदि वा उलपेषु) = अथवा इन कोमल तणों में भी ब्रह्म की महिमा दिख रही है। अन्तरिक्ष के अनन्त लोक-लोकान्तर तो प्रभु की महिमा का प्रकाश कर ही रहे हैं, वायु भी किस प्रकार जीवन का आधार बनती है? वृक्षों के मूल में डाला हुआ पानी किस प्रकार शिखर तक पहुँचता है? कुशा घास में शरीर के सब मलों के संहार की क्या अद्भुत शक्ति है? २. इन सबसे (उद्यमानम्) = उच्चारण किये जाते हुए (यत्) = जिस ब्रह्मज्ञान को (पशव:) = [पश्यन्ति इति] तत्त्वद्रष्टा पुरुष ही (अश्रवन्) = सुन पाते हैं, (तत्) [बाह्मणम्] = वह ब्रह्मज्ञान (पुनः) = फिर (अस्मान् उपतु) = हमें प्राप्त हो। हम भी इन अन्तरिक्ष आदि से उच्चारित होते हुए ब्रह्मज्ञान को सुननेवाले बनें।
भावार्थ
अन्तरिक्ष, वायु, वृक्ष व पत्थरों में सर्वत्र प्रभुमहिमा का प्रादुर्भाव हो रहा है। इस उच्चरित होती हुई महिमा को तत्त्वद्रष्टा पुरुष ही सुना करते हैं। यह ब्रह्मज्ञान हमें भी प्राप्त हो।
भाषार्थ
(यदि अन्तरिक्षे) यदि अन्तरिक्ष में, (यदि वाते) यदि चलती वायु में, (यदि वृक्षेषु) यदि वृक्षों के समीप, (यदि वा) अथवा (उलपेषु) झाड़ियों के समीप (आस, ब्राह्मणम्) ब्रह्म-पाठ हुआ था, (यद्) जिस का (उद्यमानम्) उच्चारण (पशवः१ अश्रवन्) पशुओं ने सुना है, (तत्) तो वह ब्रह्म-पाठ (अस्मान्) हमें (पुनः) फिर (उपैतु) प्राप्त हो।
टिप्पणी
[मन्त्र में ब्राह्मणम्" द्वारा "ब्रह्मयज्ञ" का वर्णन हुआ है। इसे सन्ध्योपासन तथा वेदपाठ भी कहते हैं। सन्ध्योपासन एकान्त देश में होना चाहिये। मनुस्मृति (२।१०४) में कहा है कि "सावित्रीमप्यधीयीत गत्वारण्यं समाहितः”। “अरण्यम्" के अभिप्राय को मन्त्र में "वृक्षेषु, उलपेषु" द्वारा प्रकट किया है। देखो "सत्यार्थप्रकाश" तृतीय समुल्लास। ब्राह्मणम का अर्थ है "ब्रह्मणः इदम्” अर्थात् ब्रह्मसम्बन्धी पाठ। ब्रह्म का अर्थ है वेद। ब्राह्मण शब्द द्वारा ब्राह्मणग्रन्थ अभिप्रेत नहीं। ब्राह्मणग्रन्थ तो ब्रह्म अर्थात् वेद या वेदमन्त्रों के व्याख्यानरूप हैं। उनका निर्देश मूलवेद में सम्भव नहीं। मन्त्र का अभिप्राय यह है कि ब्रह्मयज्ञ नियतसमय में करना चाहिये इस में कालातिपात नहीं होना चाहिये। उपासक कहीं भी हो उसे नियत काल में चाहे खुले अन्तरिक्ष में, चाहे बहती वायु में, चाहे वृक्षों और झाड़ियों के समीप, चाहे गोशाला के समीप,-जब भी ब्रह्मयज्ञ का काल उपस्थित हो जाय सन्ध्योपासन, और वेदपाठ के लिये बैठ जाना चाहिये। और यदि कारणवश ब्रह्मयज्ञ में विघ्न उपस्थित हो गया हो, और ब्रह्मयज्ञ ठीक प्रकार न हुआ हो तो "पुनः" विघ्न-बाधा से रहित स्थान में ब्रह्मयज्ञ कर लेना चाहिये, यह “पुनरस्मान् उपैतु" का अभिप्राय प्रतीत होता है]। [१. पशुओं के समीप अर्थात् गोशाला आदि के समीप ब्रह्मयज्ञ करने से पशुओं की आवाजें विघ्नकारी हो जाती हैं। "पशवः अश्रवन्” द्वारा पशुओं की समीपता अभिप्रोत है।]
इंग्लिश (4)
Subject
Vibrations of Brahma
Meaning
That presence and omniscience of universal spirit which vibrates in space, in the wind, which is in trees, which is in herbs and grasses, which men of vision and imagination visualise and hear manifesting omnipresent, may that divine presence of Brahma and the divine Voice come and bless us again and again, constantly.
Subject
Brahmanam
Translation
If in the mid-space, if in the wind (vata), if in the trees or if in the grasses it was, which the animals (wild as well as domestic) heard being spoken, may that divine knowledge (brahmanam) come to us a gain.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.68.1AS PER THE BOOK
Translation
Let always come to us Brahmanam, the omnific Loges, endowed with Divine knowledge which is in the firmament, which is in the air, which is in the trees, which is in the grass and which uttered finds its place in Pashavah, the animal of inarticulate speech and men of articulate speech.
Translation
God is present in the atmosphere, in the wind, in the trees and in the bushes. He pervades all living beings. We realize that Visible God again and again.
Footnote
Again and again: In this life as well as the next one.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(यदि) यत्। ब्राह्मणम् (अन्तरिक्षे) आकाशे (यदि) (वाते) वायौ (आस) अस गतिदीप्त्यादानेषु-लिट्। व्याप्तं बभूव (यदि) (वृक्षेषु) सेवनीयेषु तरुषु (यदि) (वा) अवधारणे। समुच्चये (उलपेषु) विटपविष्टपविशिपोलपाः। उ० ३।१४५। बल संवरणे-कप् प्रत्ययः, सम्प्रसारणम्। कोमलतृणेषु। अन्नादिषु (यत्) ब्राह्मणम् (अश्रवन्) शृणोतेर्लङि छान्दसः शप्। अशृण्वन् (पशवः) अ० २।२६।१। मनुष्यादिप्राणिनः (उद्यमानम्) वद् व्यक्तायां वाचि कर्मणि शानच्, यक्, यजादित्वात् सम्प्रसारणम्। उच्चार्यमाणम् (तत्) (ब्राह्मणम्) तस्येदम्। पा० ४।३।१२०। ब्रह्मन्-अण्। अन्। पा० ६।४।१६७। न टिलोपः। ब्रह्मणः परमेश्वरस्य ब्राह्मणस्य वेदम्। वेदविज्ञानम् (पुनः) वारं वारम्। परजन्मनि वा (अस्मान्) उपासकान् (उपैतु) उप+आ+एतु। प्राप्नोतु ॥
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