अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 71/ मन्त्र 1
परि॑ त्वाग्ने॒ पुरं॑ व॒यं विप्रं॑ सहस्य धीमहि। धृ॒षद्व॑र्णं दि॒वेदि॑वे ह॒न्तारं॑ भङ्गु॒राव॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठपरि॑ । त्वा॒ । अ॒ग्ने॒ । पुर॑म् । व॒यम् । विप्र॑म् । स॒ह॒स्य॒ । धी॒म॒हि॒ । धृ॒षत्ऽव॑र्णम् । दि॒वेऽदि॑वे । ह॒न्तार॑म् । भ॒ङ्गु॒रऽव॑त: ॥७४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
परि त्वाग्ने पुरं वयं विप्रं सहस्य धीमहि। धृषद्वर्णं दिवेदिवे हन्तारं भङ्गुरावतः ॥
स्वर रहित पद पाठपरि । त्वा । अग्ने । पुरम् । वयम् । विप्रम् । सहस्य । धीमहि । धृषत्ऽवर्णम् । दिवेऽदिवे । हन्तारम् । भङ्गुरऽवत: ॥७४.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सेनापति के गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(सहस्य) हे बल के हितकारी ! (अग्ने) तेजस्वी सेनापति ! (पुरम्) दुर्गरूप, (विप्रम्) बुद्धिमान्, (धृषद्वर्णम्) अभयस्वभाव, (भङ्गुरावतः) नाश करनेवाले कर्म से युक्त [कपटी] के (हन्तारम्) नाश करनेवाले (त्वा) तुझको (दिवे दिवे) प्रति दिन (वयम्) हम (परि धीमहि) परिधि बनाते हैं ॥१॥
भावार्थ
प्रजागण शूर वीर सेनापति पर विश्वास करके शत्रुओं के नाश करने में उससे सहायता लेवें ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८७।२२ ॥
टिप्पणी
१−(परिधीमहि) अ० ७।१७।२। परिधिरूपेण धारयेम (त्वा) त्वाम् (अग्ने) तेजस्विन् सेनापते (पुरम्) दुर्गरूपं (वयम्) प्रजागणाः (विप्रम्) मेधाविनम् (सहस्य) अ० ४।५।१। सहसे बलाय हित (धृषद्वर्णम्) धर्षकरूपम् (दिवे दिवे) प्रति दिनम् (हन्तारम्) नाशयितारम् (भङ्गुरावतः) भञ्जभासमिदो घुरच्। पा० ३।२।१६१। भञ्जो आमर्दने-घुरच्। चजोः कु घिण्ण्यतोः पा० ७।३।५२। कुत्वम्। भञ्जनकर्मयुक्तस्य कपटिनः पुरुषस्य ॥
विषय
'पुर, विप्र, धृषद्वर्ण, शत्रुहन्ता' प्रभु
पदार्थ
१. हे (सहस्य) = शत्रुमर्षकबल से सम्पन्न (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (वयम्) = हम (त्वा) = आपको (परिधीमहि) = अपने चारों और धारण करते हैं। आपसे सुरक्षित हुए-हुए हम शत्रुओं से आक्रान्त नहीं होते। २. हम उन आपको धारण करते हैं, जो आप (पुरम्) = पालन व पूरण करनेवाले हो, (विप्रम्) = ज्ञानी हो, (धृषद्वर्णम्) = धर्षकरूप हो, शत्रुओं का धर्षण करनेवाले और (दिवेदिवे) = प्रतिदिन (भंगुरावत:) = भग्नशील कर्मवाले राक्षसों के (हन्तारम्) = विनष्ट करनेवाले हो।
भावार्थ
प्रभु 'पुर, विप्र, धृषद्वर्ण व शत्रुहन्ता' हैं। प्रभु को अपने चारों ओर धारण करते हुए हम शत्रुओं से आक्रान्त नहीं होते।
भाषार्थ
(अग्ने) हे अग्रणी प्रधानमन्त्रिन् ! (सहस्य) हे बलशालिन् ! (त्वा विप्रम्) तुझ मेधावी को (वयम्) हम (पुरम् परि धीमहि) दुर्ग के सदृश परिधिरूप करते हैं, (धृषङ् वर्णम्) तुम धर्षकरूप को, (दिवेदिवे) प्रतिदिन (भङ्गुरावतः) नियम भङ्ग करने वालों के (हन्तारम्) हुननकर्ता को।
टिप्पणी
[पुर= दुर्ग, उपमावाचक पद लुप्त। जैसे राजवर्ग द्वारा स्वरक्षार्थ दुर्ग का आश्रय लिया जाता है, वैसे हम प्रजाजन प्रधानमन्त्री का आश्रय लेते हैं] ।
विषय
दुष्ट पुरुषों के नाश का उपदेश।
भावार्थ
हे (अग्ने सहस्य) बल से उत्पन्न राजन् ! (वयं) हम लोग (पुरं) सब मनोरथों के पूरक (विप्रं) विद्वान् मेधावी (धृषद्वर्णम्) सब शत्रुओं के पराजय करने में प्रसिद्ध, (भङ्गुरावतः) राष्ट्र को तोड़ फोड़ डालने वाले लोगों का (हन्तारं) विनाश करने हारे (त्वा) तुझको (दिवे दिवे) प्रति दिन, सदा (धीमहि) अपने राष्ट्र में पुष्ट करके स्थापित करें। देहस्वरूप राष्ट्र में आत्मा को हृदय में और ब्रह्माण्ड में ईश्वर को भी इसी प्रकार हम धारण करें।
टिप्पणी
(च०) ‘भंगुरावतम् इति’ ऋ०, यजु०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। अग्निर्देवता। अनुष्टुप् छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Tribute to Agni
Meaning
Agni, O supreme commander, fiery leader, first, perfect and impenetrable like a formidable fort, day in and day out we think of, remember and do homage to you, veteran wise, embodiment of patience, fortitude and unchallengeable might, image of terror, and shaker and destroyer of the violent and the killer.
Subject
Agnih
Translation
O adorable Lord, full of strength, in every respect we meditate on you; who are sustainer of all, wise, of unbearable glare, and destroyer of fickle-mindedness. (Also Yv. XI.26)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.74.1AS PER THE BOOK
Translation
O Mighty Self-effulgent God! Thou art finite, intelligent, All-overpowering force and the destroyer of the activities of treachery and deception. We establish Thy contact in my heart every day.
Translation
O powerful King, we, thy subjects, establish as our lord, thee, the fulfiller of all desires, a sage, renowned for suppressing all foes, and the destroyer of deceitful persons who disintegrate the state!
Footnote
See Rigveda, 10-87-22.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(परिधीमहि) अ० ७।१७।२। परिधिरूपेण धारयेम (त्वा) त्वाम् (अग्ने) तेजस्विन् सेनापते (पुरम्) दुर्गरूपं (वयम्) प्रजागणाः (विप्रम्) मेधाविनम् (सहस्य) अ० ४।५।१। सहसे बलाय हित (धृषद्वर्णम्) धर्षकरूपम् (दिवे दिवे) प्रति दिनम् (हन्तारम्) नाशयितारम् (भङ्गुरावतः) भञ्जभासमिदो घुरच्। पा० ३।२।१६१। भञ्जो आमर्दने-घुरच्। चजोः कु घिण्ण्यतोः पा० ७।३।५२। कुत्वम्। भञ्जनकर्मयुक्तस्य कपटिनः पुरुषस्य ॥
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