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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 72/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - इन्द्र सूक्त
    2

    उत्ति॑ष्ठ॒ताव॑ पश्य॒तेन्द्र॑स्य भा॒गमृ॒त्विय॑म्। यदि॑ श्रा॒तं जु॒होत॑न॒ यद्यश्रा॑तं म॒मत्त॑न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । ति॒ष्ठ॒त॒ । अव॑ । प॒श्य॒त॒ । इन्द्र॑स्य । भा॒गम् । ऋ॒त्विय॑म् । यदि॑ । श्रा॒तम् । जु॒होत॑न । यदि॑ । अश्रा॑तम् । म॒मत्त॑न ॥७५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तिष्ठताव पश्यतेन्द्रस्य भागमृत्वियम्। यदि श्रातं जुहोतन यद्यश्रातं ममत्तन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । तिष्ठत । अव । पश्यत । इन्द्रस्य । भागम् । ऋत्वियम् । यदि । श्रातम् । जुहोतन । यदि । अश्रातम् । ममत्तन ॥७५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 72; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    पुरुषार्थ करने का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्यो !] (उत् तिष्ठत) खड़े हो जाओ, (इन्द्रस्य) बड़े ऐश्वर्यवाले मनुष्य के (ऋत्वियम्) सब काल में मिलनेवाले (भागम्) ऐश्वर्यसमूह को (अव पश्यत) खोजो। (यदि) जो (श्रातम्) वह परिपक्व [निश्चित] है, (जुहोतन) ग्रहण करो, (यदि) जो (अश्रातम्) अपरिपक्व [अनिश्चित] है, [उसे पक्का, निश्चित करके] (ममत्तन) तृप्त [भरपूर] करो ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य बड़े मनुष्यों के समान निश्चित ऐश्वर्य प्राप्त करें, और अनिश्चित कर्म को विवेकपूर्वक निश्चित करके समाप्त करें ॥१॥ मन्त्र १-३ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−१०।१७९।१-३ ॥

    टिप्पणी

    १−(उत्तिष्ठत) ऊर्ध्वं तिष्ठत। पौरुषं कुरुत (अवपश्यत) निरीक्षध्वम् (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतो मनुष्यस्य, (भागम्) भग-अण् समूहे। ऐश्वर्यसमूहम् (ऋत्वियम्) अ० ३।२०।१। सर्वेषु ऋतुषु कालेषु भवम् (यदि) सम्भावनायाम् (श्रातम्) श्रीञ् पाके-क्त। अपस्पृधेथामानृचुः०। पा० ६।१।३६। इति श्राभावः। पक्वम्। निश्चितम् (जुहोतन) हु दानादानादनेषु। लोटि तस्य तनप्, जुहुत। गृह्णीत (यदि) (अश्रातम्) अपक्वम्। अनिश्चितम् (ममत्तन) मद तृप्तयोगे। लोटि शपः श्लु। मदयत। तर्पयत। समाधत्त ॥

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    विषय

    'श्रातं जुहोतन' ब्रह्मचर्य से गृहस्थ में

    पदार्थ

    १. प्रभु कहते हैं कि (उत्तिष्ठत) = उठो, आलस्य को छोड़ो, लेटे ही न रहो। (अवपश्यत) = अपने अन्दर देखनेवाले बनो। अपनी कमियों को देखकर उन्हें दूर करनेवाले बनो। (इन्द्रस्य) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता जीव के (ऋत्वियम्) = समय पर प्राप्त (भागम्) = कर्तव्यभाग को देखनेवाले बनो। जो तुम्हारा प्रस्तुत कर्तव्य है, उसे देखकर उसके पालन में तत्पर होवो। जीवन के प्रथमा श्रम में 'ज्ञान-प्राप्ति' ही मुख्य कर्तव्य है। उस ज्ञान-प्रासिरूप कर्तव्य को देखकर उस ज्ञान-प्राप्ति में लंगे रहना ही ब्रह्मचारी के लिए शोभा देता है। २. आचार्य का कर्तव्य है कि यदि वह (श्रातम्) = यह अनुभव करे कि उसका विद्यार्थी ज्ञानपरिपक्व हो गया है, तो उस ज्ञानपरिपक्व विद्यार्थी को (जुहोतन) = आहुत कर दे, उसकी गृहस्थयज्ञ में आहुति दे दे, उसे गृहस्थ में प्रवेश की स्वीकृति दे दे, परन्तु यदि (अश्रातम्) = वह अभी ज्ञानपरिपक्व नहीं हुआ तो (ममत्तन) = उसे [पचत-सा०] अभी और पक्व करने का यत्न करे अथवा उसे अभी ज्ञान-प्राप्ति में ही आनन्द लेने के लिए प्रेरित करे।

    भावार्थ

    उठो, अपनी कमियों को दूर करो। ब्रह्मचर्याश्चम में अपने को ज्ञानपरिपक्व करके गृहस्थ में जाने के लिए तैयारी करो।

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    भाषार्थ

    [हे सेवको !] (उत् तिष्ठत) उठो, तैय्यार होओ, और (ऋत्वियम्) काल प्राप्त (इन्द्रस्य) सम्राट् के (भागम्) सेवनीय भोजन की (अव पश्यत) देखभाल करो। (यदि श्रातम्) यदि भोजन पक गया है तो (जुहोतन) [बलिवैश्वदेव सम्बन्धी] आहुतियाँ दो, (यदि अश्रातम्) यदि नहीं पका तो (ममत्तन) राजस्तुति सम्बन्धी गान करो। [राजा के रसोई के अध्यक्ष कथन मन्त्र में है]।

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    विषय

    योग द्वारा प्रतिमा का तप।

    भावार्थ

    हे लोगो ! (उत् तिष्ठत) उठो, (अव पश्यत) देखो (इन्द्रस्य) इन्द्र, राजा का (ऋत्वियम्) ऋतु अनुकूल (भागम्) भाग (यदि श्रातं) यदि परिक्व होगया है तो (जुहोतन) दे दो (यदि अश्रातं) यदि नहीं पका है तो (ममत्तन) पकाओ। अध्यात्म में—हे साधक नेता, उठो इन्द्र आत्मा के (भागं) सेवन करने योग्य (ऋत्वियं) सत्य ज्ञान, ब्रह्ममय, प्राप्तम मोक्ष पद को देखो (यदि श्रातं) उसका परिपाक होगया है तो उसको आत्मा के निमित्त अर्पण करो। यदि नहीं पक्व हुआ हो तो उसको तपस्या से परिपक्व कर लो। अथवा (ऋत्वियं, भाग) ऋतु=प्राण सम्बन्धि भाग, अंश इन्द्रिय गण का निरीक्षण करो, यदि वह ज्ञान और तप द्वारा पक्व हैं तो उनको आत्मा में लीन करलो यदि नहीं तो उनको तप से पक्व् करलो।

    टिप्पणी

    ऋग्वेदे प्रथमस्य शिविरौशीनर ऋषिः। द्वितीयस्य प्रतर्दनः काशिराजः, तृतीयस्य वसुमना रोहिदश्व ऋषिः। (तृ०) ‘यदिश्रातो’, (च०) ‘यद्यश्रातो’, इति ऋ०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। इन्द्रो देवता। १ अनुष्टुप्, २, ३ त्रिष्टुप्। तृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Purushartha

    Meaning

    Arise, O friends, watch out for the seasonal share of lndra, supreme ruler. If it is ripe and ready, offer. If not yet ripe and ready, wait, accelerate and exhilarate.

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    Subject

    Indrah

    Translation

    Rise; look at the share of the resplendent Lord, appropriate for the season. If it is cooked, offer it to Him: if it is uncooked, go on cooking. (Also Rg.X.179.1)

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.75.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    O man! Rise up and look upon the share fixed for Indra, the ruler according to the season of the anum. If it is ripe give it to him and if it.is not ripe let it be ripe.

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    Translation

    O worshippers arise, visualize salvation attainable by soul. If the soul is fully developed for it, let it achieve salvation, if not, make it fit for salvation through penance!

    Footnote

    See Rigveda, 10-179-1

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(उत्तिष्ठत) ऊर्ध्वं तिष्ठत। पौरुषं कुरुत (अवपश्यत) निरीक्षध्वम् (इन्द्रस्य) परमैश्वर्यवतो मनुष्यस्य, (भागम्) भग-अण् समूहे। ऐश्वर्यसमूहम् (ऋत्वियम्) अ० ३।२०।१। सर्वेषु ऋतुषु कालेषु भवम् (यदि) सम्भावनायाम् (श्रातम्) श्रीञ् पाके-क्त। अपस्पृधेथामानृचुः०। पा० ६।१।३६। इति श्राभावः। पक्वम्। निश्चितम् (जुहोतन) हु दानादानादनेषु। लोटि तस्य तनप्, जुहुत। गृह्णीत (यदि) (अश्रातम्) अपक्वम्। अनिश्चितम् (ममत्तन) मद तृप्तयोगे। लोटि शपः श्लु। मदयत। तर्पयत। समाधत्त ॥

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