अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 76/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वा
देवता - अपचिद् भैषज्य्म्
छन्दः - विराडनुष्टुप्
सूक्तम् - गण्डमालाचिकित्सा सूक्त
1
आ सु॒स्रसः॑ सु॒स्रसो॒ अस॑तीभ्यो॒ अस॑त्तराः। सेहो॑रर॒सत॑रा लव॒णाद्विक्ले॑दीयसीः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । सु॒ऽस्रस॑: । सु॒ऽस्रस॑: । अस॑तीभ्य: । अस॑त्ऽतरा: । सेहो॑: । अ॒र॒सऽत॑रा: । ल॒व॒णात् । विऽक्ले॑दीयसी: ॥८०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
आ सुस्रसः सुस्रसो असतीभ्यो असत्तराः। सेहोररसतरा लवणाद्विक्लेदीयसीः ॥
स्वर रहित पद पाठआ । सुऽस्रस: । सुऽस्रस: । असतीभ्य: । असत्ऽतरा: । सेहो: । अरसऽतरा: । लवणात् । विऽक्लेदीयसी: ॥८०.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
१-५ रोगनाश
पदार्थ
(आ) सब ओर से (सुस्रसः) बहुत बहनेवाले पदार्थ से (सुस्रसः) बहुत बहनेवाली और (असतीभ्यः) बहुत बुरी [पीड़ाओं] से (असत्तराः) अधिक बुरी, (सेहोः) सेहु [नीरस वस्तु विशेष] से (अरसतराः) नीरस [शुष्कस्वभाव] और (लवणात्) लवण से (विक्लेदीयसीः) अधिक गल जानेवाली [गण्डमालाओं] को [नष्ट कर दिया है-म० ३] ॥१॥
भावार्थ
मन्त्र १ तथा २ का सम्बन्ध (निर्हाः) “नष्ट कर दिया है” क्रिया मन्त्र ३ के साथ है। जैसे गण्डमालायें कभी सूख जाती, कभी हरी हो जाती हैं, ऐसी ही कुवासनायें कभी निर्बल और कभी सबल हो जाती हैं ॥१॥
टिप्पणी
१−(आ) समन्तात् (सुस्रसः) सु+स्रसु पतने-क्विप्। अनिदितां हल उपधायाः ङ्किति। पा० ६।४।२४। इति नलोपः। अतिस्रवणशीलात्पदार्थात् (सुस्रसः) अत्यर्थं स्रवणशीलाः (असतीभ्यः) दुष्टाभ्यः (असत्तराः) अधिक−दुष्टाः (सेहोः) भृमृशीङ्०। उ० १।७। षिञ् बन्धने-उ, हुगागमः। सेहुनामनिःसारपदार्थविशेषात् (अरसतराः) अधिकशुष्काः (लवणात्) नन्दिग्रहिपचादि०। पा० ३।१।१३४। लूञ् छेदने-ल्यु। सैन्धवादिक्षाररसभेदात् (विक्लेदीयसीः) क्लिदू आर्द्रीभावे-घञ्, विविधः क्लेदो यासां ता विक्लेदाः। तत ईयसुन्, ङीप्। शसि रूपम्। अधिकस्रवणशीलाः ॥
विषय
गण्डमाला में लवण का प्रयोग
पदार्थ
१. (सुस्त्रस:) = अतिशयेन स्रवणशील-सर्वदा पूय [पस] आदि के रूप में स्रवणशील, अतएव (असतीभ्यः) = पीड़ित करनेवाले रोगी व्यक्तियों से भी (असत्तरा:) = अतिशयेन बाधिका ये गण्डमालाएँ (आसुस्वस:) = समन्तात् निरवशेषेण स्रवणशील हों, नि:शेष स्रवण से ये नष्ट हो जाएँ। २. (सेहो:) = [सेहुर्नाम विप्रकीर्णावयवः अत्यन्तं नि:सारस्तूलादिरूपः पदार्थः] अत्यन्त नीरस तूल आदि रूप पदार्थ से भी (असत्तरा:) = ये गण्डमालाएँ नि:सारतर है, पाकावस्था से पूर्व ये बाधिका हैं ही नहीं। अब ये कक्षादिसन्धि-प्रदेशों में व्याप्त हुई-हुई व्रणरूपेण बाधित करने लगती हैं। सब अवयवों में व्याप्त हो जाने के बाद (लवणात्) = लवण से (विक्लेदीयसी:) = अतिशयेन विविध क्लेदनवाली होती हैं। लवण के प्रयोग से ये गण्डमालाएँ पूय आदि के रूप में स्रवणशील हो जाती हैं और इसप्रकार लवणवाली होकर ये नष्ट हो जाती हैं।
भावार्थ
पूय आदि के सवणवाली व सेहु के समान शुष्क गण्डमालाएँ भी लवण के प्रयोग से क्लिन्न होकर खूब लवणशील हो जाती है। सवणशील होकर ही ये नष्ट होती हैं।
भाषार्थ
(सुखसः) पीप का अतिस्राव करने वाली गण्डमाला की अपेक्षा (आसुस्रसः) पूर्णतया स्रवणशील गण्डमाला हो जॉय, (असतीभ्यः) सत्तारहित वस्तुओं की अपेक्षा भी (असत्तराः) अधिक असद रूप गण्डमाला हो जांय। (सेहोः) पराभवनीय अर्थात् भङ्गुर वस्तु की अपेक्षा भी (अरसतराः) अधिक रसरहित अर्थात् निःसार गण्डमाला हो जांय (लवणात्) नमक से भी (विक्लेदीयसीः) अधिक क्लेद वाली गण्डमाला हो जांय।
टिप्पणी
[लवण वायु में रखा स्वयं क्लिन्न हो जाता है, इसी प्रकार गण्डमालाएं भी स्वयं क्लिन्न होकर पीपरहित होकर सूख जांय। अथवा "लवणाद् विक्ले दीयसीः" का यह अभिप्राय है कि गण्डमाला के फोड़ों पर लवण तथा अन्य योगों के साथ लवण का लेप करने से फोड़े पीप के स्राव द्वारा सूखकर शीघ्र ठीक हो जाते हैं (चक्रदत्त गण्डमालाधिकार, श्लोक ५,१४,३५,५८,६०)]।
विषय
गण्डमाला की चिकित्सा और सुसाध्य के लक्षण।
भावार्थ
(असतीभ्यः) बुरी से भी, (असत्-तराः) बुरी, बिगड़ी हुई, अपची या गण्डमाला की फोड़ियां यदि (सु-स्रसः) अच्छी प्रकार बह रही हैं तो (आ सु-स्त्रसः) वे शीघ्र ही सुगम रीति से विनष्ट हो जाती हैं। और यदि (सेहोः) वे शुष्क पदार्थ से भी अधिक (अरस-तरा) रसहीन, सुखी हैं तो वे (लवणात्) नमक छिड़ककर मलने से (वि-क्लेदीयसीः) विशेष रूप से जल छोड़ने लग जाती हैं।
टिप्पणी
नमक का प्रयोग हम पूर्व लिख आये हैं। रस छोड़ती हुई गण्डमालाएं शीघ्र आराम हो जाती हैं यह वैद्यक का सिद्धान्त है। ‘सु स्त्रसः’ पद को विदेशियों ने बहुत बदलने की चेष्टा की है, वह मन्त्र का तात्पर्य न समझने के कारण है। ‘मन्त्रोषधिप्रयोगेण निःशेषं स्रवणेन विनश्यन्तु’ इति सायणः॥ इदं सूक्तं चतुॠचं ‘विद्म वै’ इत्यादि द्वयृचं सूक्तमित्यनुक्रमणिका। उपलब्धसंहितासु उभयं संभूय षडर्चं पठ्यते। अर्थभेदात् विनियोगभेदाच्च आद्ययोरेकं सूक्तम्, ततस्तिसृणामेकम्, तत एकस्या एकमिति विवेकः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। अपचित-भिषग् देवता। १ विराड् अनुष्टुप्। ३, ४ अनुष्टुप्। २ परा उष्णिक्। ५ भुरिग् अनुष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्। षडर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Cure of Excrescences
Meaning
Pustules more flowing than most, more painful than most, drier than most, more putrefying than with salt, O physician, cure.
Subject
Apacid Bhais-ajyam
Translation
Oozing more even than the much-oozing, more malignant than the malignant, drier than sehu, more perspiring (vikelediyasih) even than the salt.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.80.1AS PER THE BOOK
Translation
The pustules which are more dangerous than the dangerous ones if dropping rapidly disappear easily. The pustules which are more dry than a dry thing become moistened to drop with the use of salt.
Translation
Even the worst pimples of pustules freely festering, can be easily cured. If they are more sapless than a dried up bone, the sprinkling of salt makes them suppurate.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(आ) समन्तात् (सुस्रसः) सु+स्रसु पतने-क्विप्। अनिदितां हल उपधायाः ङ्किति। पा० ६।४।२४। इति नलोपः। अतिस्रवणशीलात्पदार्थात् (सुस्रसः) अत्यर्थं स्रवणशीलाः (असतीभ्यः) दुष्टाभ्यः (असत्तराः) अधिक−दुष्टाः (सेहोः) भृमृशीङ्०। उ० १।७। षिञ् बन्धने-उ, हुगागमः। सेहुनामनिःसारपदार्थविशेषात् (अरसतराः) अधिकशुष्काः (लवणात्) नन्दिग्रहिपचादि०। पा० ३।१।१३४। लूञ् छेदने-ल्यु। सैन्धवादिक्षाररसभेदात् (विक्लेदीयसीः) क्लिदू आर्द्रीभावे-घञ्, विविधः क्लेदो यासां ता विक्लेदाः। तत ईयसुन्, ङीप्। शसि रूपम्। अधिकस्रवणशीलाः ॥
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