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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 78 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 78/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - अग्निः छन्दः - परोष्णिक् सूक्तम् - बन्धमिचन सूक्त
    1

    वि ते॑ मुञ्चामि रश॒नां वि योक्त्रं॒ वि नि॒योज॑नम्। इ॒हैव त्वमज॑स्र एध्यग्ने ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि । ते॒ । मु॒ञ्चा॒मि॒ । र॒श॒नाम् । वि । योक्त्र॑म् । वि । नि॒ऽयोज॑नम् । इ॒ह । ए॒व । त्वम् । अज॑स्र: । ए॒धि॒ । अ॒ग्ने॒ ॥८३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वि ते मुञ्चामि रशनां वि योक्त्रं वि नियोजनम्। इहैव त्वमजस्र एध्यग्ने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वि । ते । मुञ्चामि । रशनाम् । वि । योक्त्रम् । वि । निऽयोजनम् । इह । एव । त्वम् । अजस्र: । एधि । अग्ने ॥८३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 78; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    आत्मा की उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे आत्मा !] (ते) तेरी (रशनाम्) रसरी को, (योक्त्रम्) जोते वा डोरी को और (नियोजनम्) बन्धन गाँठ को (वि) विशेष करके (वि) विविध प्रकार (वि मुञ्चामि) मैं खोलता हूँ। (अग्ने) हे अग्नि [समान बलवान् आत्मा !] (इह) यहाँ पर (एव) ही (त्वम्) तू (अजस्रः) दुःखरहित होकर (एधि) रह ॥१॥

    भावार्थ

    जो पुरुषार्थी योगी जन तीन गाँठों अर्थात् आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक क्लेशों से छूट जाते हैं, वे संसार में रह कर सबको सुखी रखते हैं ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(वि मुञ्चामि) वियोजयामि (ते) तव (रशनाम्) आध्यात्मिकक्लेशरूपां रज्जुम् (वि) विशेषेण (योक्त्रम्) अ० ३।३०।६। आधिभौतिकरूपं बन्धनसाधनम् (इह) अस्मिन् संसारे (एव) निश्चयेन (त्वम्) आत्मा (अजस्रः) नमिकम्पिस्म्यजसकमहिंसदीपो रः। पा० ३।२।१६७। नञ्+जसु हिंसायाम्-र प्रत्ययः। अहिंसितः (एधि) भव (अग्ने) अग्निवद् बलवन्नात्मन् ॥

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    विषय

    'दशना योक्न व नियोज्य' का विमोचन

    पदार्थ

    १. (ते) = तेरी (रशनाम्) = कण्ठ-बन्धनसाधनभूता बाधिका रज्जु को (विमुज्वामि) = विमुक्त करता हूँ। (योक्त्रं वि) [मुञ्चामि] = मध्यप्रदेश-बन्धनसाधनभूत रज्जुविशेष को भी विमुक्त करता हूँ तथा (नियोजनम् वि) = सर्वावयव-बन्धक नौचीन-बन्धनसाधनभूत रज्जुविशेष को भी तुझसे पृथक करता हूँ। उपरले अवयवों में, मध्य के अवयवों में अथवा निचले अवयवों में जहाँ कहीं भी कोई रोग का निदानभूत मल है, उसे तेरे शरीर से पृथक् करता हूँ। २. अब 'इन रशना, योकत्र व नियोजन के विमोचन के कारण हे (अग्ने) = अग्निवत् दीप्त पुरुष ! रोगमुक्ति के कारण चमकनेवाले पुरुष! तू (इह एव) = इस लोक में ही (अजस्त्रः) = शत्रुओं से व मृत्यु से अबाधित हुआ-हुआ (एधि) = हो।

    भावार्थ

    उत्तम, मध्यम व अधम रोगबन्धनों से मुक्त होकर, अग्निवत् दीप्त होते हुए हम इस लोक में उत्तम जीवनवाले बनें।

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे अग्नि ! (ते) तेरी (रशनाम्) रस्सी को (विमुञ्चामि) मैं [तुझसे] पृथक् कर देता हूं, (योक्त्रम्) जोतने के साधन को (वि) पृथकु कर देता हूं, (नि योजनम्) नियोजन को (वि) पृथक् करता हूं। (त्वम्) तू (इह एव) यहां ही (अजस्रः) अताडित हुआ (एधि) हो, विद्यमान रह।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में रशना आदि के वर्णन द्वारा रथ में बद्ध१ अश्व का वर्णन प्रतीत होता है। “अग्नि२" पद द्वारा सम्भवतः अश्व की वेगशक्ति को सूचित किया है। मन्त्र में "अन्योक्ति" अलंकार द्वारा शरीररथ के साथ, विविध पाशों द्वारा त्रिधाबद्ध, जीवात्मा अभिप्रेत है। और "अग्नि" द्वारा उसकी भावी ज्ञानाग्नि को सूचित किया है। यथा “ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मस त्कुरुतेऽर्जुन" (गीता)। त्रिविध पाश= उदुत्तमं वरुण पाशमस्मदवाधमं वि मध्यमं श्रथाय। अथा वयमादित्य व्रते तवानागसो अदितये स्याम स्वाहा” (ऋ० १।२४।१५)। जीवात्मा के तीन शरीर होते हैं, कारणशरीर, सूक्ष्मशरीर तथा स्थूलशरीर। स्थूलशरीर तो जीवात्मा का रथ है, और अवशिष्ट दो शरीरों के तीन तत्त्व, तीन पाश हैं, बन्धन हैं। वे हैं बुद्धि "व्यवसायात्मिका" अहंकार अर्थात् अस्मिता और मन जोकि संकल्प-विकल्प, इच्छा आदि का आश्रय है। मन अधम पाश है, और शेष दो उत्तम तथा मध्यम पाश हैं। जीवात्मा मनरूपी पाश से बद्ध हुआ नाना योनियों तथा सांसारिक जीवनों में विचरता है। यथा "निण्यः संनद्धो मनसा चरामि" (ऋ० १।११६।३७)। मन्त्र में अध्यात्मगुरु, ज्ञानाग्नि के इच्छुक अभ्यासी शिष्य को, त्रिविध पाशों से छुड़ा कर, जीवन्मुक्त अवस्था में पृथिवी में विद्यमान रहने का कथन करता है, ताकि अग्निसम्पन्न हुआ वह अन्यों को भी शक्ति प्रदान कर सके। इस का वर्णन मन्त्र (२) में हुआ है।] [१. रथ में जोते जाते समय अश्व के तीन बन्धन होते हैं। यथा "ग्रीवायां बद्धो अपि कक्ष आसति" (ऋ० ४।४०।४)। इन तीन बन्धनों को रशना, योक्त्र, तथा नियोजन द्वारा निर्दिष्ट किया है। २. सायण ने अग्नि पद द्वारा "अग्निवद् अग्निः" कह कर, अग्निवद् दीप्यमान रोगान्मुक्त पुरुष अर्थ किया है। तथा पत्नी वा सम्बोध्यते" भी कहा है। सायण ने भी अधियज्ञ दैवत अर्थ के स्थान में आधिभौतिक "पुरुष" अग्नि" का अर्थ माना है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Freedom from Bondage

    Meaning

    I release you from the cord of your physical bondage, I cut off the bonds of your mental fixations, and I strike off the bars of your spiritual illusion so that, eternal and immortal as you are, Agni, pure clairvoyant soul, you come and attain to your real nature here itself.

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    Subject

    Agnih

    Translation

    I unfasten your cord, unfasten your yoke, unfasten your halter. O fire - divine, may you flourish here for ever.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.83.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    O Agni (enlightened soul) I, the man of clairvoyance deliver you free from the cord of bodily bondage, loose the bond of worldly attachments and make you free from the fastening bondage of the action and its fruition. O eternal one! Live here in happiness.

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    Translation

    I free thee from the cord, I loose the bond, I loose the fastening. Even here in Me, O immortal soul, wax thou strong.

    Footnote

    God delivers the soul kinds of bonds, physical elemental, mental, spiritual and grants it salvation where the immortal soul resides in perfect glee. ’I’ refers to God. ‘Me also refers to God,

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(वि मुञ्चामि) वियोजयामि (ते) तव (रशनाम्) आध्यात्मिकक्लेशरूपां रज्जुम् (वि) विशेषेण (योक्त्रम्) अ० ३।३०।६। आधिभौतिकरूपं बन्धनसाधनम् (इह) अस्मिन् संसारे (एव) निश्चयेन (त्वम्) आत्मा (अजस्रः) नमिकम्पिस्म्यजसकमहिंसदीपो रः। पा० ३।२।१६७। नञ्+जसु हिंसायाम्-र प्रत्ययः। अहिंसितः (एधि) भव (अग्ने) अग्निवद् बलवन्नात्मन् ॥

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