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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
    ऋषिः - उपरिबभ्रवः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - उपरिबभ्रव सूक्त
    1

    भ॒द्रादधि॒ श्रेयः॒ प्रेहि॒ बृह॒स्पतिः॑ पुरए॒ता ते॑ अस्तु। अथे॒मम॒स्या वर॒ आ पृ॑थि॒व्या आ॒रेश॑त्रुं कृणुहि॒ सर्व॑वीरम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भ॒द्रात् । अधि॑ । श्रेय॑: । प्र । इ॒हि॒ । बृह॒स्पति॑: । पु॒र॒:ऽए॒ता । ते॒ । अ॒स्तु॒ । अथ॑ । इ॒मम् । अ॒स्या: । वरे॑ । आ । पृ॒थि॒व्या: । आ॒रेऽश॑त्रुम् । कृ॒णु॒हि॒ । सर्व॑ऽवीरम् ॥९.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भद्रादधि श्रेयः प्रेहि बृहस्पतिः पुरएता ते अस्तु। अथेममस्या वर आ पृथिव्या आरेशत्रुं कृणुहि सर्ववीरम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भद्रात् । अधि । श्रेय: । प्र । इहि । बृहस्पति: । पुर:ऽएता । ते । अस्तु । अथ । इमम् । अस्या: । वरे । आ । पृथिव्या: । आरेऽशत्रुम् । कृणुहि । सर्वऽवीरम् ॥९.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    आत्मा की उन्नति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] (भद्रात्) एक मङ्गल कर्म से (श्रेयः) अधिक मङ्गलकारी कर्म को (अधि) अधिकारपूर्वक (प्र इहि) अच्छे प्रकार प्राप्त हो, (बृहस्पतिः) बड़े-बड़े लोकों का पालक परमेश्वर (ते) तेरा (पुरएता) अग्रगामी (अस्तु) होवे। (अथ) फिर तू (इमम्) इस [अपने आत्मा] को (अस्याः पृथिव्याः) इस पृथिवी के (वरे) श्रेष्ठ फल में (आरेशत्रुम्) शत्रुओं से दूर (सर्ववीरम्) सर्ववीर, सब में वीर (आ) सब ओर से (कृणुहि) बना ॥१॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य परमेश्वर के आश्रय से अधिक-अधिक उन्नति करते हुए आगे बढ़े जाते हैं, वे ही सर्ववीर निर्विघ्नता से अपना जीवन सुफल करते हैं ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(भद्रात्) मङ्गलात्कर्मणः (अधि) अधिकृत्य (श्रेयः) प्रशस्य-ईयसुन्। प्रशस्यतरं कर्म (प्र) प्रकर्षेण (इहि) प्राप्नुहि (बृहस्पतिः) बृहतां लोकानां पालकः परमेश्वरः (पुरएता) अग्रगामी (ते) तव (अथ) अनन्तरम् (अस्याः) दृश्यमानायाः (वरे) वरणीये फले (आ) समन्तात् (पृथिव्याः) भूलोकस्य (आरेशत्रुम्) आरे दूरे शत्रवो यस्य तम् (कृणुहि) कृवि हिंसाकरणयोः। कुरु। (सर्ववीरम्) सर्वेषु वीरम्। एकवीरम् ॥

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    विषय

    उपरिबभ्रू

    पदार्थ

    १. हे पुरुष! तू (भद्रात् अधि) = [अधि पञ्चम्यर्थानुवादी] एक मंगल से (श्रेयः) = उत्कृष्ट मंगल को (प्रेहि) = प्राप्त हो। उत्तरोत्तर तेरे मंगल की वृद्धि हो। इस संसार-यात्रा में (बृहस्पतिः) = वह ब्रह्मणस्पति प्रभु (ते पुरः एता अस्तु) = तेरा अग्रगामी [मार्गदर्शक] हो। प्रभुस्मरणपूर्वक तू अधिकाधिक मंगलकार्यों को करनेवाला बन। २. (अथ) = अब हे प्रभो। [उत्तरार्धे बृहस्पति: सम्बोध्यते-सा०] बृहस्पते! (आप इमम्) = इस पुरुष को (अस्याः पृथिव्याः वरे) = दूर चले गये हैं शत्रु जिसके, ऐसा तथा (सर्ववीरम्) = सब वीर सन्तानोंवाला (कृणुहि) = कीजिए।

    भावार्थ

    अपने को ऊपर और ऊपर ले-जानेवाला यह उपरिबभ्रु' एक से दूसरे कल्याण कर्म को प्राप्त हो। प्रभु इसके मार्गदर्शक हों, इसे इस पृथिवी पर उत्कृष्ट स्थान में स्थापित करके शत्रुरहित व वीर सन्तानोंवाला बनाएँ।

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    भाषार्थ

    (भद्रात् अधि) भद्रमार्ग से (श्रेयः) श्रेयमार्ग की ओर (प्रेहि) तू जा, (बृहस्पतिः) बृहद्-ब्रह्माण्ड का पति परमेश्वर (ते) तेरा (पुरएता) अग्रगामी (अस्तु) हो, मार्गदर्शक हो। (अथ) तदनन्तर हे बृहस्पति ! (इमम्) इस श्रेयमार्गी को (अस्याः पृथिव्याः) इस पृथिवी के (वरे) उत्कृष्ट स्थान में (आ) पूर्णतया (कृणुहि) स्थापित कर और (सर्ववीरम्) सब प्रयत्न शक्तियों समेत (शत्रुम्) इसके शत्रु को (आरे) दूर (कृणुहि) कर।

    टिप्पणी

    [सूक्त (७) के मन्त्र में दैत्यभावों के स्थान में दिव्यभावों को हृदय में स्थापित करने का वर्णन हुआ है। यह है भद्रमार्ग। इस भद्रमार्ग से श्रेयमार्ग की ओर जाने का कथन इस मन्त्र में हुआ है। श्रेयमार्ग की ओर जाने में परमेश्वर को अगुआ कर उसका पदानुगामी बनना चाहिये, ताकि श्रेयमार्गी पथभ्रष्ट न हो जाय। इस श्रेय मार्ग पर चलते हुए कामादि शत्रु, निज प्रबल शक्तियों सहित इसे श्रेयमार्ग से विचलित करने की चेष्टा करते हैं, उन्हें परमेश्वर की प्रार्थना, उपासना पूर्वक दूर करते रहना चाहिये]।

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    विषय

    उत्तम मार्गदर्शक।

    भावार्थ

    हे पुरुष ! तू (भद्रात्) शारीरिक और इहलोक के सुख से भी (अधि) ऊपर विद्यमान (श्रेयः) परम कल्याण, श्रेष्ठतम पद को (प्र इहि) प्राप्त हो। (बृहस्पतिः) समस्त महान् लोकों का स्वामी, वेदवाणी का विद्वान् पथदर्शक (ते) तेरे (पुरः- एता अस्तु) सामने, आगे आगे चलने वाला हो। वह तुझे सदा उत्तम उत्तम मार्ग दर्शावे। (अथ) और (इमम्) इस जीव को (अस्याः) इस (पृथिव्याः) पृथिवी के (वरे) उत्तम, वरण करने योग्य, श्रेष्ठ, शांतियुक्त, परम उच्च स्थान पर (सर्व-वीरम्) सब स्थानों में और प्रजाओं में वीर सामर्थ्यवान् और (आरे-शत्रुम्) शत्रुओं से रहित, निर्भय (कृणुहि) कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उपरिबभ्रव ऋषिः। बृहस्पतिर्देवता। त्रिष्टुप्। एकर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Rise Higher

    Meaning

    O man, go forward on your path from good to better and higher, and may Brhaspati, Lord of expansive universe and master of Vedic speech be your guide and leader. And then on the best part of this blessed earth, make this all-heroic honourable human order free from enmity, dissension and negativity.

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    Subject

    Brhaspatih

    Translation

    From good, may you move forward to the better. May the Lord supreme be your leader arid guide. O Lord, may you establish this (sacrificer) in the finest place on this earth; make him far from enemies and having all the brave heroes around him.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.9.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    O man! go forward on your path from good to better. May the Lord of Vedic speech be your guide and leader. You place your spirit within the recess of heart which is the excellent part of gross body and keep it after from internal foes(passion, aversion etc) and nearer to all the encouraging virtues.

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    Translation

    O man, go forward on thy way from good to better. May God, the Lord of all vast worlds, precede thy steps and guide thee. O God, place this man within the earth's enclosure, afar from foes and valiant amongst all.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(भद्रात्) मङ्गलात्कर्मणः (अधि) अधिकृत्य (श्रेयः) प्रशस्य-ईयसुन्। प्रशस्यतरं कर्म (प्र) प्रकर्षेण (इहि) प्राप्नुहि (बृहस्पतिः) बृहतां लोकानां पालकः परमेश्वरः (पुरएता) अग्रगामी (ते) तव (अथ) अनन्तरम् (अस्याः) दृश्यमानायाः (वरे) वरणीये फले (आ) समन्तात् (पृथिव्याः) भूलोकस्य (आरेशत्रुम्) आरे दूरे शत्रवो यस्य तम् (कृणुहि) कृवि हिंसाकरणयोः। कुरु। (सर्ववीरम्) सर्वेषु वीरम्। एकवीरम् ॥

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