अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 81/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वा
देवता - सावित्री, सूर्यः, चन्द्रमाः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - सूर्य-चन्द्र सूक्त
1
पू॑र्वाप॒रं च॑रतो मा॒ययै॒तौ शिशू॒ क्रीड॑न्तौ॒ परि॑ यातोऽर्ण॒वम्। विश्वा॒न्यो भुव॑ना वि॒चष्ट॑ ऋ॒तूँर॒न्यो वि॒दध॑ज्जायसे॒ नवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपू॒र्व॒ऽअ॒प॒रम् । च॒र॒त॒: । मा॒यया॑ । ए॒तौ । शिशू॒ इति॑ । क्रीड॑न्तौ । परि॑ । या॒त॒: । अ॒र्ण॒वम् । विश्वा॑ । अ॒न्य: । भुव॑ना । वि॒ऽचष्टे॑ । ऋ॒तून् । अ॒न्य: । वि॒ऽदध॑त् । जा॒य॒से॒ । नव॑: ॥८६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
पूर्वापरं चरतो माययैतौ शिशू क्रीडन्तौ परि यातोऽर्णवम्। विश्वान्यो भुवना विचष्ट ऋतूँरन्यो विदधज्जायसे नवः ॥
स्वर रहित पद पाठपूर्वऽअपरम् । चरत: । मायया । एतौ । शिशू इति । क्रीडन्तौ । परि । यात: । अर्णवम् । विश्वा । अन्य: । भुवना । विऽचष्टे । ऋतून् । अन्य: । विऽदधत् । जायसे । नव: ॥८६.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सूर्य, चन्द्रमा के लक्षणों का उपदेश।
पदार्थ
(एतौ) यह दोनों [सूर्य, चन्द्रमा] (पूर्वापरम्) आगे-पीछे (मायया) बुद्धि से [ईश्वरनियम से] (चरतः) विचरते हैं, (क्रीडन्तौ) खेलते हुए (शिशू) [माता-पिता के दुःख हटानेवाले] दो बालक [जैसे] (अर्णवम्) अन्तरिक्ष में (परि) चारों ओर (यातः) चलते हैं। (अन्यः) एक [सूर्य] (विश्वा) सब (भुवना) भुवनों को (विचष्टे) देखता है, (अन्यः) दूसरा तू [चन्द्रमा] (ऋतून्) ऋतुओं को [अपनी गति से] (विदधत्) बनाता हुआ [शुक्ल पक्ष में] (नवः) नवीन (जायसे) प्रगट होता है ॥१॥
भावार्थ
सूर्य और चन्द्रमा ईश्वरनियम से आकाश में घूमते हैं और सूर्य, चन्द्र आदि लोकों को प्रकाश पहुँचाता है। चन्द्रमा शुक्लपक्ष के आरम्भ से एक-एक कला बढ़कर वसन्त आदि ऋतुओं को बनाता है ॥१॥ मन्त्र १, २ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं-म० १०।८५।१८, १९ ॥
टिप्पणी
१−(पूर्वापरम्) यथा तथा, पूर्वापरपर्य्यायेण (चरतः) विचरतः (मायया) ईश्वरप्रज्ञया (एतौ) सूर्य्याचन्द्रमसौ (शिशू) शिशुः शंसनीयो भवति शिशीतेर्वा स्याद् दानकर्मणश्चिरलब्धो गर्भो भवति-निरु० १०।३९। शः कित् सन्वच्च। उ० १।२०। शो तनूकरणे-उ प्रत्ययः, श्यति पित्रोर्दुखानीति शिशुः। बालकौ यथा (क्रीडन्तौ) विहरन्तौ (परि) सर्वतः (यातः) गच्छतः (अर्णवम्) अ० १।१०।४। समुद्रम्। अन्तरिक्षम् (विश्वा) सर्वाणि (अन्यः) सूर्यः (भुवना) चन्द्रादिलोकान् (विचष्टे) विविधं पश्यति। प्रकाशयति (ऋतून्) वसन्तादिकालान् (अन्यः) चन्द्रमाः (विदधत्) कुर्वन् (जायसे) प्रादुर्भवसि (नवः) नवीनः शुक्लपक्षे ॥
विषय
सूर्य और चन्द्र
पदार्थ
१. प्रथम सूर्य गति करता है, चन्द्र उसके पीछे गतिवाला होता है। इसप्रकार (एतौ) = ये सूर्य और चन्द्र (पूर्वापरम्) = पौर्वापर्य से, आगे-पीछे, (मायया) = प्रभु की माया [निर्माणशक्ति] से प्रेरित हुए-हुए (चरतः) = धुलोक में गतिवाले होते हैं। (तौ) = वे दोनों शिशु की भाँति भ्रमण के कारण (शिशू) = दो बालकों की भाँति (क्रीडन्तौ) = विहरण करते हुए (अर्णवं परियात:) = [अणासि उदकानि अस्मिन् सन्ति इति अर्णवः अन्तरिक्षम्] अन्तरिक्ष में विचरते हैं। २. उन दोनों में (अन्य:) = एक आदित्य (विश्वा भुवना विचष्टे) = सब लोकों को प्रकाशमय करता है और (अन्य:) = दूसरा चन्द्रमा (ऋतून विदधत्) = वसन्तादि ऋतुओं को और तदवयवभूत मासों व अर्धमासों को बनाता हुआ (नवः जायते) = नया-नया उत्पन्न होता है। [चन्द्रमा में कलाओं के हास व वृद्धि के कारण 'नया उत्पन्न होता है। ऐसा कहा गया है]।
भावार्थ
सूर्य प्रकाश प्राप्त कराता है, चन्द्रमा ऋतुओं का निर्माण करता है। ज्ञानी दोनों में ही प्रभु की अद्भुत महिमा को देखते हैं।
भाषार्थ
(शिशु) दो शिशुओं के सदृश (क्रीडन्तौ) क्रीडा करते हुए, (एतौ) ये दो सूर्य और चन्द्र, (मायया) परमेश्वरीय प्रज्ञा द्वारा प्रेरित हुए, (पूर्वापरम्) आगे-पीछे (अर्णवम्) अन्तरिक्ष-समुद्र के (परि) पार तक (यातः) जाते हैं तथा, (चरतः) विचरते हैं। (अन्यः) इन दो में से एक सूर्य (विश्वा भुवना) सब भुवनों को (विचष्टे) देखता है, (अन्य) दूसरा हे चन्द्रमा ! तू (नवः) नया-नया (जायसे) पैदा होता है (ऋतून विदधत्) ऋतुओं का विधान करता हुआ। (तथा अथर्व १४।१।२३; गृहस्थ)।
टिप्पणी
[माया प्रज्ञानाम (निघं० ३।९)। ऋतून्= सप्ताह, अर्धमास और मास का विधान करता हुआ चन्द्रमा ऋतुओं का निर्माण करता है। दो मास ही तो ऋतु हैं। मन्त्र, विवाह के मन्त्रों में भी पठित है (अथर्व० १४।१।२३)। अतः मन्त्र में सूर्य= पति; और चन्द्रमा= पत्नी। पत्नी प्रतिमास को प्रकट करती हुई, नव-नव सन्तानरूप में नव-नव रूपों वाली होती रहती है]।
विषय
सूर्य और चन्द्र।
भावार्थ
(एतौ) ये दोनों सूर्य और चन्द्र (क्रीडन्तौ) खेलते हुए (शिशु) दो बालकों के समान (मायया) उस प्रभु की निर्माण शक्ति से प्रेरित होकर (पूर्वापरम्) एक दूसरे के आगे पीछे (चरतः) विचरते हैं और (अर्णवम्) इस महान् अन्तरिक्ष को (परि यातः) पार करते हैं। (अन्यः) उनमें से एक सूर्य (विश्वा) समस्त (भुवना) लोकों को (वि चष्टे) प्रकाशित करता है और (अन्यः) दूसरा, चान्द जो कि (ऋतून्) ऋतुओं को (विदधत्) उत्पन्न करता हुआ (नवः) नये रूप से (जायसे) प्रकट हुआ करता है।
टिप्पणी
(द्वि०) ‘यातोऽध्वरम्’ (तृ०) ‘विश्वान्यन्यो भुवानाभिचष्टे’, ‘विदधज्जायते’ इहि पाठभेदाः ऋ०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। सावित्री सूर्याचन्द्रमसौ च देवताः। १, ६ त्रिष्टुप्। २ सम्राट। ३ अनुष्टुप्। ४, ५ आस्तारपंक्तिः। षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Two Divine Children
Meaning
One after the other, two bright children play with wondrous energy going round the seas across space. One illuminates all regions of the universe, the other, you, O moon, keeping and displaying your time and seasons, are born anew every month.
Subject
Savitr, Surya, Moon
Translation
Moving one after the other with their wondrous power, these two young children in their play, go around the ocean. One of them illumines all the beings; and you, the other one, making the seasons, are born a new. (Also Rg. X.85.18)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.86.1AS PER THE BOOK
Translation
These Sun and Moon playing their roles move afterwards and forward of each other by their wondrous operation like the two children and cross ground vault of heaven. One of them the Sun illuminates all the objects and another one, the moon arranging the season springs a new with change of phases.
Translation
Forward and backward by the wondrous law of God, move these two youths, disporting, round the space. One illumines all worlds, and the other arranging seasons, is born again.
Footnote
These two youths: Sun and Moon. One refers to the Sun. Other refers to the Moon.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(पूर्वापरम्) यथा तथा, पूर्वापरपर्य्यायेण (चरतः) विचरतः (मायया) ईश्वरप्रज्ञया (एतौ) सूर्य्याचन्द्रमसौ (शिशू) शिशुः शंसनीयो भवति शिशीतेर्वा स्याद् दानकर्मणश्चिरलब्धो गर्भो भवति-निरु० १०।३९। शः कित् सन्वच्च। उ० १।२०। शो तनूकरणे-उ प्रत्ययः, श्यति पित्रोर्दुखानीति शिशुः। बालकौ यथा (क्रीडन्तौ) विहरन्तौ (परि) सर्वतः (यातः) गच्छतः (अर्णवम्) अ० १।१०।४। समुद्रम्। अन्तरिक्षम् (विश्वा) सर्वाणि (अन्यः) सूर्यः (भुवना) चन्द्रादिलोकान् (विचष्टे) विविधं पश्यति। प्रकाशयति (ऋतून्) वसन्तादिकालान् (अन्यः) चन्द्रमाः (विदधत्) कुर्वन् (जायसे) प्रादुर्भवसि (नवः) नवीनः शुक्लपक्षे ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal