अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 82/ मन्त्र 4
अन्व॒ग्निरु॒षसा॒मग्र॑मख्य॒दन्वहा॑नि प्रथ॒मो जा॒तवे॑दाः। अनु॒ सूर्य॑ उ॒षसो॒ अनु॑ र॒श्मीननु॒ द्यावा॑पृथि॒वी आ वि॑वेश ॥
स्वर सहित पद पाठअनु॑ । अ॒ग्नि: । उ॒षसा॑म् । अग्र॑म् । अ॒ख्य॒त् । अनु॑ । अहा॑नि । प्र॒थ॒म: । जा॒तऽवे॑दा: । अनु॑ । सूर्य॑: । उ॒षस॑: । अनु॑ । र॒श्मीन् । अनु॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । आ । वि॒वे॒श॒ ॥८७.४॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्वग्निरुषसामग्रमख्यदन्वहानि प्रथमो जातवेदाः। अनु सूर्य उषसो अनु रश्मीननु द्यावापृथिवी आ विवेश ॥
स्वर रहित पद पाठअनु । अग्नि: । उषसाम् । अग्रम् । अख्यत् । अनु । अहानि । प्रथम: । जातऽवेदा: । अनु । सूर्य: । उषस: । अनु । रश्मीन् । अनु । द्यावापृथिवी इति । आ । विवेश ॥८७.४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेद के विज्ञान का उपदेश।
पदार्थ
(अग्निः) सर्वव्यापक परमेश्वर ने (उषसाम्) उषाओं के (अग्रम्) विकास को (अनु) निरन्तर, [उसी] (प्रथमः) सब से पहिले वर्तमान (जातवेदाः) उत्पन्न वस्तुओं के ज्ञान करानेवाले परमेश्वर ने (अहानि) दिनों को (अनु) निरन्तर (अख्यत्) प्रसिद्ध किया है। (सूर्यः) [उसी] सूर्य [सब में व्यापक वा सबको चलानेवाले परमेश्वर] ने (उषसः) उषाओं में (अनु) लगातार, (रश्मीन्) व्यापक किरणों में (अनु) लगातार, (द्यावापृथिवी) सूर्य और पृथिवी में (अनु) लगातार (आ विवेश) प्रवेश किया है ॥४॥
भावार्थ
जिस परमेश्वर ने सूक्ष्म और स्थूल पदार्थों को रच कर सबको अपने वश में कर रक्खा है, वही सब मनुष्य का उपास्य है ॥४॥
टिप्पणी
४−(अनु) निरन्तरम् (अग्निः) सर्वव्यापक ईश्वरः (उषसाम्) प्रभातवेलानाम् (अग्रम्) प्रादुर्भावम् (अख्यत्) ख्यातेर्लुङ्। अ० ७।७३।६। प्रख्यातवान् (अनु) (अहानि) दिनानि (प्रथमः) प्रथमानः (जातवेदाः) अ० १।७।२। जातानि वस्तूनि वेदयति ज्ञापयतीति सः (अनु) (सूर्यः) सर्वव्यापकः। सर्वप्रेरकः परमेश्वरः (उषसः) प्रभातकालान् (रश्मीन्) अ० २।३२।१। व्यापकान् किरणान् (अनु) (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (आ विवेश) समन्तात् प्रविष्टवान् ॥
विषय
'प्रकाशक व व्यापक' प्रभु
पदार्थ
१. वह (अग्रि:) = अग्नणी [प्रकाशमान्] प्रभु (उषसाम् अग्नम् अनु अख्यत्) = उषाकालों के भी पूर्वभाग को क्रम से प्रकाशित करता है। वह (प्रथमः) = सर्वत्र विस्तृत (जातवेदा:) = सवर्ड प्रभु ही (अहानि अनु) [अख्यत्] = दिनों को अनुक्रम से प्रकाशित करता है। २. वही प्रभु (सूर्यः अनु) = [सूर्य]-सूर्य को प्रकाशित करता है, (उषसः अनु) = उषाकालों को प्रकाशित करता है, (रश्मीन अनु) = समस्त रश्मियों को [प्रकाशमय पिण्डों को] प्रकाशित करता है। वह प्रभु ही (द्यावापृथिवी आविवेश) = द्युलोक व पृथिवीलोक में सर्वत्र व्याप्त हो रहा है। वे प्रभु सब पिण्डों व लोकों में अनप्रविष्ट हो रहे हैं।
भावार्थ
प्रभु ही उषाकालों, दिनों, सूर्य व अन्य ज्योतिर्मय पिण्डों को प्रकाशित कर रहे हैं। वे ही द्यावापृथिवी में सर्वत्र व्याप्त हो रहे हैं।
भाषार्थ
(जातवेदाः) उत्पन्न पदार्थों को जानने वाला, (प्रथमः अग्निः) अनादि सर्वाग्रणी परमेश्वर (उषसाम्; अग्रम्) उषाओं के पूर्व के काल को (अनु अख्यत्) अनुकूलरूप में प्रख्यापित करता है, (अहानि) दिनों को (अनु) अनुकूलरूप में [प्रख्यापित किया है], (सूर्यः) सूर्यस्थित अग्नि ने या सूर्य के समान प्रकाशमान उस अग्नि ने (उषसः) उषाओं को (अनु) अनुकूलरूप में [प्रकाशित किया है] (रश्मीन्) रश्मियों को (अनु) अनुकूलरूप में प्रकाशित करने वाला परमेश्वर (द्यावापृथिवी) द्युलोक और पृथिवी में (आविवेश) सर्वत्र प्रविष्ट हुआ है। अख्यत्= अन्तर्भावितण्यर्थः।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह कि परमेश्वराग्नि१ ने उषाकाल के पूर्व के काल को, दिनों, उषाओं, सौर रश्मियों को प्रकाशित किया है। वह परमेश्वराग्नि सूर्य में प्रविष्ट है, या सूर्यसदृश स्वतः प्रकाशमान है, आदित्यवर्णी है। वह द्युलोक में प्रविष्ट होकर नक्षत्रों ताराओं को प्रकाशित कर रहा है, और पृथिवी में पार्थिव अग्नि को प्रकाशित कर रहा है। यह सब कुछ हमारे जीवनों के लिये अनुकूलरूप है। क्योंकि यह सब जगत् हमारे भोग और अपवर्ग के लिये है, अतः हमारी उन्नति के लिये अनुकूल है। 'भोगापवर्गार्थम् दृश्यम्” (योग २।१८)।] [१. मन्त्र यजुर्वेद में भी किंचित् पाठभेद से पठित है (११।१७)। व्याख्या में महीधराचार्य ने अग्नि के सम्बन्ध में कहा है कि "सर्वप्रकाशको लोकस्रष्टा अग्निः, त पश्येम"। इस प्रकार महीधर ने भी अग्नि द्वारा परमेश्वर ही माना है।]
विषय
ईश्वर से बलों की याचना।
भावार्थ
(अग्निः) जो प्रकाशमान, प्रजापति (उषसाम्) उषाकालों के भी (अग्रम्) पूर्व भाग को (अनु अख्यत्) क्रम से प्रकाशित करता है। और वही (जातवेदाः) समस्त पदार्थों का ज्ञाता और सर्वज्ञ प्रभु (प्रथमः) सबसे प्रथम, सबका आदि मूल (अनु) पश्चात् भी (अहानि) सब दिनों का (अख्यत्) प्रकाश किया करता है। वही (सूर्यः अनु) सूर्य को प्रकाशित करता है। वही (उषसः-अनु) उषाकालों को प्रकाशित करता और (रश्मीन् अनु) समस्त ज्योतिर्मय प्रकाशमान तारों को भी प्रकाशित करता है और वही (द्यावापृथिवी अनु) द्यु और पृथिवी इन दोनों लोकों में भी (आविवेश) सर्वत्र व्यापक है।
टिप्पणी
पुरोधा ऋषियजुर्वेदे। (तृ० च०) ‘अनु सूर्यस्य पुरुत्रा च रश्मीननु द्यावापृथिवी आततन्थ’ इति यजु०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सम्पत्कामः शौनक ऋषिः। अग्निर्देवता। १, ४, ५, ६ त्रिष्टुप्, २ ककुम्मती बृहती, ३ जगती। षडृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Prayer to Agni
Meaning
Agni, cosmic spirit all pervasive, first presence self-manifestive omniscient of all forms, potential and actual, exists in advance of the dawns and days, and pervades the sun, the dawns, the radiating rays and the earth and heaven (as they come into existence).
Translation
The adorable Lord illuminates the beginnings of the dawns; He the foremost and omniscient illuminates the days as well. Following the sun, following the dawns, and following the rays, He has entered heaven and earth thoroughly.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.87.4AS PER THE BOOK
Translation
The fire which is earliest force Present in the created objects, illuminates first the dawns and the days. Shining in Sun, in dawns, in beams this enters into heaven and earth.
Translation
God illumines the fore-part of Dawns. The Immemorial Omniscient God then brings to light the days. He creates the Sun, the Mornings and the stars. He pervades the Heaven and Earth.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४−(अनु) निरन्तरम् (अग्निः) सर्वव्यापक ईश्वरः (उषसाम्) प्रभातवेलानाम् (अग्रम्) प्रादुर्भावम् (अख्यत्) ख्यातेर्लुङ्। अ० ७।७३।६। प्रख्यातवान् (अनु) (अहानि) दिनानि (प्रथमः) प्रथमानः (जातवेदाः) अ० १।७।२। जातानि वस्तूनि वेदयति ज्ञापयतीति सः (अनु) (सूर्यः) सर्वव्यापकः। सर्वप्रेरकः परमेश्वरः (उषसः) प्रभातकालान् (रश्मीन्) अ० २।३२।१। व्यापकान् किरणान् (अनु) (द्यावापृथिवी) सूर्यभूलोकौ (आ विवेश) समन्तात् प्रविष्टवान् ॥
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