अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 87/ मन्त्र 1
यो अ॒ग्नौ रु॒द्रो यो अ॒प्स्वन्तर्य ओष॑धीर्वी॒रुध॑ आवि॒वेश॑। य इ॒मा विश्वा॒ भुव॑नानि चा॒क्लृ॒पे तस्मै॑ रु॒द्राय॒ नमो॑ अस्त्व॒ग्नये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒ग्नौ । रु॒द्र: । य: । अ॒प्ऽसु । अ॒न्त: । य: । ओष॑धी: । वी॒रुध॑: । आ॒ऽवि॒वेश॑ । य: । इ॒मा । विश्वा॑ । भुव॑नानि । च॒क्लृ॒पे । तस्मै॑ । रु॒द्राय॑ । नम॑: । अ॒स्तु॒ । अ॒ग्नये॑ ॥९२.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अग्नौ रुद्रो यो अप्स्वन्तर्य ओषधीर्वीरुध आविवेश। य इमा विश्वा भुवनानि चाक्लृपे तस्मै रुद्राय नमो अस्त्वग्नये ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अग्नौ । रुद्र: । य: । अप्ऽसु । अन्त: । य: । ओषधी: । वीरुध: । आऽविवेश । य: । इमा । विश्वा । भुवनानि । चक्लृपे । तस्मै । रुद्राय । नम: । अस्तु । अग्नये ॥९२.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
ईश्वर की महिमा का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो (रुद्रः) रुद्र, ज्ञानवान् परमेश्वर (अग्नौ) अग्नि में, (यः) जो (अप्सु अन्तः) जल के भीतर है, (यः) जिसने (ओषधीः) उष्णता रखनेवाली अन्न आदि ओषधियों में और (वीरुधः) विविध प्रकार उगनेवाली वेलों वा बूटियों में (आविवेश) प्रवेश किया है। (यः) जिसने (इमा) इन (विश्वा) सब (भुवनानि) लोकों [उपस्थित पदार्थों] को (चक्लृपे) रचा है, (तस्मै) उस (अग्नये) सर्वव्यापक (रुद्राय) रुद्र, दुःखनाशक परमेश्वर को (नमः) नमस्कार (अस्तु) होवे ॥१॥
भावार्थ
जो अद्भुतस्वरूप, सर्वप्रकाशक, सर्वान्तर्यामी परमात्मा है, सब मनुष्य उसकी उपासना करके अपनी उन्नति करें ॥१॥
टिप्पणी
१−(यः) (अग्नौ) सूर्यविद्युदादिरूपे (रुद्रः) अ० २।२७।६। रु गतौ-क्विप्, तुक् रो मत्वर्थे। ज्ञानवान् परमेश्वरः (यः) (अप्सु) जलेषु (अन्तर्) मध्ये (यः) (ओषधीः) अ० १।२३।१। उष्णत्वधारिका अन्नादिरूपाः (वीरुधः) अ० १।३२।१। विरोहणशीला लतादिरूपाः (आविवेश) प्रविष्टवान् (यः) (इमा) दृश्यमानानि (विश्वा) सर्वाणि (भुवनानि) भूतजातानि। लोकान् (चक्लृपे) कृप मिश्रीकरणे चिन्तने च-लिट्। कृपो रो लः। पा० ८।२।१८। इति लत्वम्, अभ्यासस्य सांहितिको दीर्घः। रचितवान् (तस्मै) (रुद्राय) अ० २।२७।६। रु वधे-क्विप्, तुक्+रु वधे-ड। दुःखनाशकाय (नमः) नतिः (अस्तु) (अग्नये) सर्वव्यापकाय ॥
विषय
सर्वत्र प्रविष्ट, सर्वनिर्माता' प्रभु
पदार्थ
१. (यः रुद्रः) = जो शत्रुओं को रुलानेवाले प्रभु (अग्नौ) = अग्नि में यष्टव्यत्वेन (आविवेश) = प्रविष्ट हो रहे हैं, (यः) = जो (अप्सु अन्त:) = जलों में वरुणात्मना प्रविष्ट हैं, (यः वीरुधः ओषधी:) = जो विविधरूप से उगनेवाली फलपाकान्त लताओं में सोमात्मना प्रविष्ट हैं, (य:) = जो प्रभु (इमा विश्वा भुवनानि) = इन सब भुवनों को (चाक्लृपे) = क्लुप्त [निर्मित] करते हैं, (तस्मै) = उस रुद्राय सर्वजगत् स्रष्टा, सर्वजगदनुप्रविष्ट (रुद्रात्मा) = (अग्नये) = अग्रणी प्रभु के लिए (नमः अस्तु) = नमस्कार हो।
भावार्थ
वे रुद्ररूप प्रभु अग्नि, जल व लताओं में अनुप्रविष्ट हो रहे हैं। प्रभु ही सब भुवनों का निर्माण करते हैं। उस रुद्रात्मा अग्नि के लिए नमस्कार हो।
रुद्र का उपासक वीरुध् ओषधियों द्वारा सर्प-विष का विनाश करनेवाला यह 'गरुत्मान' [गरुड़] बनता है [गरुत्-Eating, swallowing]। यह विष को मानो खा ही जाता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
पदार्थ
शब्दार्थ = ( यः रुद्रः अग्नौ ) = जो दुष्टों को रुदन करानेवाला रुद्र भगवान्, अग्नि में ( यः अप्सु अन्तः ) = जो जलों के मध्य में ( यः वीरुध ओषधी: ) = जो अनेक प्रकार से उत्पन्न होनेवाली ओषधियों में ( आविवेश ) = प्रविष्ट हो रहा है, ( यः इमा विश्वा भुवनानि ) = जो रुद्र इन दृश्यमान सर्व भूतों के उत्पन्न करने में ( चाक्लृपे ) = समर्थ है ( तस्मै रुद्राय नमो अस्तु अग्नये ) = उस सर्व जगत् में प्रविष्ट ज्ञान स्वरूप रुद्र के प्रति हमारा बारम्बार नमस्कार हो ।
भावार्थ
भावार्थ = हे दुष्टों को रुलानेवाले रुद्र प्रभो ! आप अग्नि जल और अनेक प्रकार की ओषधियों में प्रविष्ट हो रहे हैं और आप चराचर सब भूतों के उत्पन्न करने में महा समर्थ हैं, इसलिए सर्वजगत् के स्रष्टा और सब में प्रविष्ट ज्ञान स्वरूप ज्ञानप्रद आप रुद्र भगवान् को हम बारम्बार सविनय प्रणाम करते है,कृपा करके इस प्रणाम को स्वीकार करें ।
भाषार्थ
(यः रुद्रः) जो रुद्र (अग्नौ) अग्नि में (यः) जो (अप्सु अन्तः) जलों के भीतर, (यः) जो (वीरुधः) विविध रूप में प्रादुर्भूत हुआ (ओषधीः) ओषधियों में (आविवेश) प्रविष्ट है। (यः) जिसने (इमा= इमान, विश्वा= विश्वानि) इन सब (भुवनानि) भुवनों को (चाक्लृपे) रचा है, (तस्मै अग्नये) उस सर्वाग्रणी (रुद्राय) रुद्र के लिये (नमः अस्तु) नमस्कार हो।
टिप्पणी
[रुद्रः = रोदयतीति रुद्रः। जो कि कर्मानुसार प्राणियों को रुलाता है]
विषय
रुद्र, ईश्वर का स्मरण।
भावार्थ
(यः) जो (रुद्रः) रोदनकारी, तीक्ष्ण शक्ति (अग्नौ) अग्नि में प्रविष्ट है, और (यः) जो (अप्सु अन्तः) जलों के भीतर है, और (यः) जो (ओषधीः) ओषधियों और (वीरुधः) लताओं में (आ-विवेश) प्रविष्ट है, और (यः) जो (इमाः) इन (विश्वा) समस्त (भुवनानि) भुवनों को (चाक्लृपे) बनाती है, उस (अग्नये) अग्निस्वरूप (रुद्राय) रुद्र के लिये (नमः) हमारा नमस्कार और आदरभाव है। अर्थात् जिस प्रभु की शक्तियां अग्नि में तेजोरूप से, जल में स्नेहरूपसे, ओषधियों में रस और पुष्टिरूप से, और लता वनस्पतियों में रोग दूर करने की शक्तिरूप से विद्यमान है, और जो समस्त भुवनों को नाना रूप और सामर्थ्यों से युक्त बनाता है, हम उस प्रभु का सदा स्मरण करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। रुद्रो देवता। जगती छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Omnipresent Rudra
Meaning
That inspiring vitality of life which is in fire, which is in the waters, which inspires and pervades in herbs and trees, which pervades and informs all these worlds of the universe, to that Rudra-Agni, pranic life energy, light and warmth of life, homage and salutations!
Subject
Rudrah
Translation
The vital breath (terrible punisher), which is in the fire, which is within the waters, which has entered the herbs and the plants; which has formed all these beings, to that vital breath (terrible punisher), to the fire, we bow in reverence.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.92.1AS PER THE BOOK
Translation
My obeisance be to Rudra (God who is the chastiser of sinners) who is pervading the fire, the waters, the medicinal herbs and the plants, and to Him who creates this entire universe.
Translation
To the Wise God in the fire, to Him Who dwells in floods, to Him Who hath entered into herbs and plants, to Him Who formed and fashioned all these worlds, to Him the sin-subduing God, the All-pervading, reverence be paid!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(यः) (अग्नौ) सूर्यविद्युदादिरूपे (रुद्रः) अ० २।२७।६। रु गतौ-क्विप्, तुक् रो मत्वर्थे। ज्ञानवान् परमेश्वरः (यः) (अप्सु) जलेषु (अन्तर्) मध्ये (यः) (ओषधीः) अ० १।२३।१। उष्णत्वधारिका अन्नादिरूपाः (वीरुधः) अ० १।३२।१। विरोहणशीला लतादिरूपाः (आविवेश) प्रविष्टवान् (यः) (इमा) दृश्यमानानि (विश्वा) सर्वाणि (भुवनानि) भूतजातानि। लोकान् (चक्लृपे) कृप मिश्रीकरणे चिन्तने च-लिट्। कृपो रो लः। पा० ८।२।१८। इति लत्वम्, अभ्यासस्य सांहितिको दीर्घः। रचितवान् (तस्मै) (रुद्राय) अ० २।२७।६। रु वधे-क्विप्, तुक्+रु वधे-ड। दुःखनाशकाय (नमः) नतिः (अस्तु) (अग्नये) सर्वव्यापकाय ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
Misc Websites, Smt. Premlata Agarwal & Sri Ashish Joshi
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
Sri Amit Upadhyay
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
Sri Dharampal Arya
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal