अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 88/ मन्त्र 1
ऋषिः - गरुत्मान्
देवता - तक्षकः
छन्दः - त्र्यवसाना बृहती
सूक्तम् - सर्पविषनाशन सूक्त
2
अपे॒ह्यरि॑र॒स्यरि॒र्वा अ॑सि वि॒षे वि॒षम॑पृक्था वि॒षमिद्वा अ॑पृक्थाः। अहि॑मे॒वाभ्यपे॑हि॒ तं ज॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । इ॒हि॒ । अरि॑: । अ॒सि॒ । अरि॑: । वै । अ॒सि॒ । वि॒षे । वि॒षम्। अ॒पृ॒क्था॒: । वि॒षम् । इत् । वै । अ॒पृ॒क्था॒: । अहि॑म् । ए॒व । अ॒भि॒ऽअपे॑हि । तम् । ज॒हि॒ ॥९३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अपेह्यरिरस्यरिर्वा असि विषे विषमपृक्था विषमिद्वा अपृक्थाः। अहिमेवाभ्यपेहि तं जहि ॥
स्वर रहित पद पाठअप । इहि । अरि: । असि । अरि: । वै । असि । विषे । विषम्। अपृक्था: । विषम् । इत् । वै । अपृक्था: । अहिम् । एव । अभिऽअपेहि । तम् । जहि ॥९३.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
कुसंस्कार के नाश का उपदेश।
पदार्थ
[हे विष !] (अप इहि) चला जा, (अरिः असिः) तू शत्रु है, (अरिः) तू शत्रु (वै) ही (असि) है। (विषे) विष में (विषम्) विष को (अपृक्थाः) तूने मिला दिया है, (विषम्) विष को (इत्) ही (वै) हाँ (अपृक्थाः) तूने मिला दिया है, (अहिम्) साँप के पास (एव) ही (अभ्यपेहि) तू चला जा, (तम्) उसको (जहि) मार डाल ॥१॥
भावार्थ
जैसे विष में विष मिलने से अधिक प्रचण्ड हो जाता है, वैसे ही मनुष्य की इन्द्रियाँ एक तो आप ही पाप की ओर चलायमान होती हैं, फिर कुसंस्कार वा कुसंगति पाकर अधिक प्रचण्ड विषैली हो जाती हैं। जैसे वैद्य विष को विष से मारता है, वैसे ही विद्वान् जितेन्द्रियता से इन्द्रिय दोष को मिटावे ॥१॥
टिप्पणी
१−(अपेहि) अपगच्छ (अरिः) हिंसकः शत्रुः (असि) (वै) खलु (असि) (विषे) (विषम्) (अपृक्थाः) पृची सम्पर्के लुङ्। संयोजितवानसि (इत्) एव (अहिम्) अ० २।५।५। आहन्तारं सर्पम् (एव) (अभ्यपेहि) अभिलक्ष्य समीपं गच्छ (तम्) अहिम् (जहि) मारय। अन्यद् गतम् ॥
विषय
सर्प-विष चिकित्सा
पदार्थ
१. हे सर्पविष! (अपेहि) = तू हमसे दूर हो। (अरि: असि) = तू हमारा शत्रु है। तू (वा) = निश्चय से (अरि:) = शत्रु (असि) = है। (विषे) = [अर्शाद्यच्] विषवाले सर्प में (विषम् अपृक्था:) = विष को सम्पृक्त कर । (इत् वा) = निश्चय से (विषम् अपृक्था:) = विष को विषवाले सर्प से ही संयुक्त कर। २. हे विष! तू जिसका विष है (तम्) = उस (अहिं एव) = आहन्ती सौंप को ही (अभ्यपेहि) = लक्ष्य करके समीपता से प्राप्त हो और वहाँ जाकर उस सांप को (जहि) = विनष्ट कर । साँप जिसे काटे, वह यदि उस सौंप को काट ले तो सर्प-विष सर्प में ही लौटकर साँप का विनाश कर देता है।
भावार्थ
सर्प-विष की सर्वोच्च चिकित्सा यही है कि सर्पदष्ट पुरुष सर्प को ही डस ले। सर्प का विष सर्प में ही चला जाएगा और उसे ही मारनेवाला बनेगा।
अगले सूक्त का ऋषि 'सिन्धुढीप' है [सिन्धवो द्वीपो यस्य, द्वीप-A place of refuge,protection] यह जलों में रक्षण को ढूँढता हुआ प्रार्थना करता है कि -
भाषार्थ
[हे गरुड़ !] (अपेहि) तू जा, (अरिः असि) [सांप का] शत्रु तू है, (अरिः वै असि) निश्चय से तू शत्रु है। (विषे) साँप के विष में (विषम्) अपना विष (अपृक्थाः) तूने मिला दिया है, (विषम्, इत्, वै अपृक्थाः) निश्चय से अपना विष तू ने मिला दिया है। (अहिम्, एव) सांप को ही (अभि) लक्ष्य कर के (अपेहि) तू जा, (तम्) उसे (जहि) मार डाल।
टिप्पणी
[मन्त्र में ऋषि है गरुत्मान् अर्थात् गरुड, यह सांप को मार देता है। गरुत्मान् स्वयं अपने आप को सम्बोधित करता है, और अपना विष साँप के विष में मिला देता है। चोंच द्वारा सांप को क्षत-विक्षत कर देना यह गरुड़ का विष है। इसके पश्चात् सांप मर जाता है। गरुत्मान्= परमेश्वर। यथा “अग्निं मित्रं वरुणम् (ऋ० १।१६४।४६ ) की व्याख्या में "गरुत्मान् गरणवान्, गुर्वात्मा महात्मेति वा" (निरुक्त ७।५।१९) "गरणवान्" का अर्थ है निगीर्ण करने वाला, (गॄ निगरणे, तुदादिः)। परमेश्वर पाप-अहि को निगलता है, मानो नष्ट करता है, अतः पाप-अहि का अरि है, शत्रु है। वह पाप-अहि के विष अर्थात् दुरित को विष अर्थात् जल के सम्पर्क द्वारा जल चिकित्सा द्वारा उपासक से विनष्ट करा कर अन्त में पाप-अहि को मार डालता है, पृथक् कर देता है। विषम् उदकनाम ( निघं० १।१२)]
विषय
सर्पविष की चिकित्सा।
भावार्थ
हे सर्प ! तू (अप इहि) दूर चला जा, क्योंकि तू (अरिः असि) शत्रु है। तू सबको कष्ट देता है। (वै) निश्चय से तू (अरिः असि) दुःखकारी शत्रु है। हे पुरुष ! यदि सर्प परे न जाय और काट ही ले तो उसकी चिकित्सा के लिये (विषे) विष के ऊपर (विषम्) विष को ही (अपृक्थाः) लगाओ। विष को दूर करने के लिये विष का ही प्रयोग करो (वै) निश्चय से (विषम् इत्) उसी सर्प के विष को (अपृक्थाः) पुनः ओषधि रूप से प्रयोग करो। अथवा (अहिम्) उसी सांप के (एव) ही (अभि-अप-इहि) पास फिर पहुंचो और (तं जहि) उसको मारो और उसीका विष लेकर उससे पूर्व विष को शान्त करो।
टिप्पणी
प्रसिद्ध भारतीय वैद्यविद्या के विद्वान् वाग्भट ने अष्टांग हृदय में सर्प के काटने पर उसकी चिकित्सा के लिये पुनः उसी सर्प को पकड़ कर काटने का उपदेश किया है। इसका यही रहस्य है कि सर्प का विष ही सर्प के विष का उत्तम उपाय है। और तिस पर भी उसी जाति के सर्प का विष सर्प विष की अचूक दवा है। डा० वैडल तथा अन्य विद्वानों ने चिरकाल तक परिश्रम करके यह जाना है कि विषधर सर्प जब किसी को काटता है तो उसका विष जखम के भीतर तो जाता ही है परन्तु थोड़ासा विष का भाग उस सर्प के पेट में भी जाता है। इससे उस सर्प के शरीर में विष के सहन करने की शक्ति उत्पन्न होती है। सर्प से कटा आदमी यदि पुनः उस सर्प को दांतों से काट ले तो सर्प की विष-सहिष्णुता शक्ति से उसके शरीर में चढ़ा विष शान्त हो जाता है। अब भी सरकारी हस्पतालों में सर्प-चिकित्सा के लिये ८० प्रतिशत फणधर सर्प के विष के साथ २० प्रतिशत अन्य सर्पों का विष मिला कर सीरम तैयार करते हैं। वेद ने संक्षेप में उसी सिद्धान्त को स्पष्ट शब्दों में दर्शाया है। ‘आपो अद्यान्वचारिषं रसेन समगंस्महि। पयस्वानग्न आगहि तं मां संसृज वर्चसा।’ इति ऋ०। ऋग्वेदेऽस्य सूक्तस्य काण्वो मेधातिथिर्ऋऋषिः। (द्वि०) ‘रसेन समसुक्ष्महि’ (च०) ‘वर्चसा प्रजया च धनेन च’ इति ऋग्वेदाद्विशिष्टः पाठभेदो। यजु०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गरुत्मान् ऋषिः। तक्षको देवता। त्र्यवसाना बृहती छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Snake Poison
Meaning
Get out and go, you are an enemy, surely you are an enemy. You have mixed and added poison into poison. It is now worse, the poison. Surely you have mixed, added and intensified the poison. Go back to the snake. Kill the snake.
Subject
Against Snake Poison
Translation
Go away. You are an enemy. An enemy surely you are. You have mixed poison with poison. Surely you have mixed the poison. Go away to the snake itself. Kill it.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.93.1AS PER THE BOOK
Translation
Let his poison depart from here, it is a foe, really it is a foe, use poison, O man to remove poison, really apply poison as the antidote of poison, go to snake and kill it.
Translation
O poison, depart, thou art a foe, verily a foe art thou. Mix thyself with a poisonous snake. Mix thyself with the poison of the snake. Go to the serpent strike him dead.
Footnote
Physicians are of the opinion, that a snake-bitten patient is cured by injecting the poison of the snake, which acts as an antidote.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(अपेहि) अपगच्छ (अरिः) हिंसकः शत्रुः (असि) (वै) खलु (असि) (विषे) (विषम्) (अपृक्थाः) पृची सम्पर्के लुङ्। संयोजितवानसि (इत्) एव (अहिम्) अ० २।५।५। आहन्तारं सर्पम् (एव) (अभ्यपेहि) अभिलक्ष्य समीपं गच्छ (तम्) अहिम् (जहि) मारय। अन्यद् गतम् ॥
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