अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 89/ मन्त्र 1
ऋषिः - सिन्धुद्वीपः
देवता - अग्निः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दिव्यआपः सूक्त
1
अ॒पो दि॒व्या अ॑चायिषं॒ रसे॑न॒ सम॑पृक्ष्महि। पय॑स्वानग्न॒ आग॑मं॒ तं मा॒ सं सृ॑ज॒ वर्च॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प:। दि॒व्या: । अ॒चा॒यि॒ष॒म् । रसे॑न । सम् । अ॒पृ॒क्ष्म॒हि॒ । पय॑स्वान् । अ॒ग्ने॒ । आ । अ॒ग॒म॒म् । तम् । मा॒ । सम् । सृ॒ज॒ । वर्च॑सा ॥९४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अपो दिव्या अचायिषं रसेन समपृक्ष्महि। पयस्वानग्न आगमं तं मा सं सृज वर्चसा ॥
स्वर रहित पद पाठअप:। दिव्या: । अचायिषम् । रसेन । सम् । अपृक्ष्महि । पयस्वान् । अग्ने । आ । अगमम् । तम् । मा । सम् । सृज । वर्चसा ॥९४.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
विद्वानों की संगति का उपदेश।
पदार्थ
(दिव्याः) दिव्य गुण स्वभाववाले (अपः) जलों [के समान शुद्ध करनेवाले विद्वानों] को (अचायिषम्) मैंने पूजा है (रसेन) पराक्रम से (सम् अपृक्ष्महि) हम संयुक्त हुए हैं। (अग्ने) हे विद्वान् ! (पयस्वान्) गतिवाला मैं (आ अगमम्) आया हूँ, (तम्) उस (मा) मुझको (वर्चसा) [वेदाध्ययन आदि के] तेज से (सम् सृज) संयुक्त कर ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य उद्योग करके विद्वानों से और वेद आदि शास्त्रों से विद्या प्राप्त करके यशस्वी होवें ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से यजुर्वेद में है−२०।२२ ॥
टिप्पणी
१−(अपः) जलानि। जलानीव शोधकान् विदुषः (दिव्याः) दिव्यगुणस्वभावाः (अचायिषम्) चायृ पूजानिशामनयोः-लुङ्। पूजितवानस्मि (रसेन) पराक्रमेण (सम् अपृक्ष्महि) पृची सम्पर्के-लुङ्। संगता अभूम (पयस्वान्) पय गतौ-असुन्। गतिमान्। उद्योगी (अग्ने) हे विद्वन् (आ अगमम्) गमेर्लुङ्। आगतोऽस्मि (तम्) तादृशम् (मा) माम् (संसृज) संयोजय (वर्चसा) ब्रह्मवर्चसेन ॥
विषय
मेघजल तथा गोदुग्ध के सेवन से 'वर्चस्' की प्राप्ति
पदार्थ
१.(दिव्याः अपः) = [दिवि भवा:] अन्तरिक्ष के मेष से प्राप्त होनेवाले जलों को (अचायिषम्) = मैंने पूजित किया है। इन्हें स्नानादि के लिए मैंने स्तुत किया है। (रसेन समक्ष्महि) = हम इन जलों के रस से संगत हुए हैं। २. इन दिव्य जलों के प्रयोग के साथ (अग्रे) = हे प्रभो! (पयस्वान्) = प्रशस्त दूधवाला मैं (आगमम्) = आपके समीप उपस्थित हुआ हूँ। (तं मा) = उस मुझे (वर्चसा संसृज) = वर्चस से-प्राणशक्ति से संसृष्ट कीजिए।
भावार्थ
आकाश से प्राप्त होनेवाले मेघजल तथा प्रशस्त गोदुग्ध का सेवन हमें वर्चस्वी बनाता है।
भाषार्थ
(दिव्याः) दिव्य (आपः) “आपः" नामक परमेश्वर की (अचायिषम्) मैंने पूजा की है, (रसेन) आनन्दरस से (समपृक्ष्महि) हम सब पूजा करने वाले सम्पृक्त हुए हैं। (अग्ने) हे "अग्नि" नामक परमेश्वर ! (पयस्वान्) आनन्दरस वाला (आगमम्) मैं तेरी शरण में आया हूं, (तम्, मा) उस मुझ को (वर्चसा) तेज के साथ (संसृज) संयुक्त कर।
टिप्पणी
[आपः तथा अग्नि - परमेश्वर के नाम हैं (यजु० ३२।२)। अचायिषम् =चायृ पूजानिशामनयोः (भ्वादिः)। पूजा वस्तुतः चेतन की होती है, जड़ अग्नि की नहीं]।
विषय
ब्रह्मचर्य पालन।
भावार्थ
मैं (दिव्याः) दिव्य प्रकाशमय, ज्ञानमय, ईश्वरीय (अपः) कर्म और ज्ञान-कणों का (सम् अचायिषम्) संग्रह करूं और उनके (रसेन) सारभूत बल से अपने को (सम् अपृक्ष्महि) संयुक्त करूं। हे (अग्ने) ज्ञानवान् प्रभो ! इस प्रकार ईश्वरीय ज्ञानक्रम से मैं (पयस्वान्) ‘पयस्वान्’, ज्ञानवान् और कर्मवान् होकर (आगमम्) प्राप्त हुआ हूं (तम् मा) उस मुझको (वर्चसा) ब्रह्मतेज से (संसृज) युक्त कर। जिस प्रकार मेघ (दिव्यः) दिव्य जलों का संग्रह करके विद्युत् अग्नि से मिल कर प्रकाशमान् हो जाता है उसी प्रकार मनुष्य ईश्वरीय ज्ञान और कर्म में निष्ठ होकर शरीर में हृष्ट पुष्ट होकर आचार्य और ईश्वर की साक्षिता में ब्रह्मचर्य का पालन करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सिन्धुद्वीप ऋषिः। अग्निर्देवता। अनुष्टुप् छन्दः। चतुर्ऋचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
The Divine Flow of Life
Meaning
I have collected and honoured the nectar flow of life’s action and experience and we mix and intensify it with the beauty and flavour of life’s bliss. O Agni, leading light of life, sagely scholar, I come with the experience of life’s fluidity of light and joy, pray refine and rarefy me with lustre and glory of life further.
Subject
Agnih
Translation
I have accumulated the heavenly waters; with sap we have been drenched. O adorable Lord, holding waters. I have approached you. Me, as such, may you endow with lustre.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.94.1AS PER THE BOOK
Translation
O learned man, I having the knowledge of action have accomplished righteous acts and I am endowed with strength. O respectful one; Kindly unite with vigor of knowledge to me who has approached you.
Translation
May I glean divine knowledge and action, and equip myself with their essence. O Wise God, thus have I become a man of knowledge and action; endow me with divine halo.
Footnote
‘I’ refers to a Brahmchari, a celebate pupil.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(अपः) जलानि। जलानीव शोधकान् विदुषः (दिव्याः) दिव्यगुणस्वभावाः (अचायिषम्) चायृ पूजानिशामनयोः-लुङ्। पूजितवानस्मि (रसेन) पराक्रमेण (सम् अपृक्ष्महि) पृची सम्पर्के-लुङ्। संगता अभूम (पयस्वान्) पय गतौ-असुन्। गतिमान्। उद्योगी (अग्ने) हे विद्वन् (आ अगमम्) गमेर्लुङ्। आगतोऽस्मि (तम्) तादृशम् (मा) माम् (संसृज) संयोजय (वर्चसा) ब्रह्मवर्चसेन ॥
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