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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 91 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 91/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - चन्द्रमाः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सुत्रामाइन्द्र सूक्त
    1

    इन्द्रः॑ सु॒त्रामा॒ स्ववाँ॒ अवो॑भिः सुमृडी॒को भ॑वतु वि॒श्ववे॑दाः। बाध॑तां॒ द्वेषो॒ अभ॑यं नः कृणोतु सु॒वीर्य॑स्य॒ पत॑यः स्याम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑: । सु॒ऽत्रामा॑ । स्वऽवा॑न् । अव॑:ऽभि: । सु॒ऽमृ॒डी॒क: । भ॒व॒तु॒ । वि॒श्वऽवे॑दा: । बाध॑ताम् । द्वेष॑: । अभ॑यम् । न॒: । कृ॒णो॒तु॒ । सु॒ऽवीर्य॑स्य । पत॑य: । स्या॒म॒ ॥९६.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रः सुत्रामा स्ववाँ अवोभिः सुमृडीको भवतु विश्ववेदाः। बाधतां द्वेषो अभयं नः कृणोतु सुवीर्यस्य पतयः स्याम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्र: । सुऽत्रामा । स्वऽवान् । अव:ऽभि: । सुऽमृडीक: । भवतु । विश्वऽवेदा: । बाधताम् । द्वेष: । अभयम् । न: । कृणोतु । सुऽवीर्यस्य । पतय: । स्याम ॥९६.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 91; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    राजा के धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (सुत्रामा) बड़ा रक्षक, (स्ववान्) बहुत से ज्ञाति पुरुषोंवाला, (विश्ववेदाः) बहुत धन वा ज्ञानवाला (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला राजा (अवोभिः) अनेक रक्षाओं से (सुमृडीकः) अत्यन्त सुख देनेवाला (भवतु) होवे। वह (द्वेषः) वैरियों को (बाधताम्) हटावे, (नः) हमारे लिये (अभयम्) निर्भयता (कृणोतु) करे और हम (सुवीर्यस्य) बड़े पराक्रम के (पतयः) पालन करनेवाले (स्याम) होवें ॥१॥

    भावार्थ

    राजा दुष्ट स्वभावों और दुष्ट लोगों को नाश करके प्रजा की रक्षा करे ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−६।४७।१२। तथा १०।१३१।६। और यजु०−२०।५१ ॥

    टिप्पणी

    १−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (सुत्रामा) त्रैङ् पालने-मनिन्। अतिरक्षकः (स्ववान्) स्वा ज्ञातयः। प्रशस्तज्ञातियुक्तः (अवोभिः) रक्षणैः (सुमृडीकः) बहुसुखयिता (विश्ववेदाः) वेदांसि धनानि ज्ञानानि वा। बहुधनः। बहुज्ञानः। (बाधताम्) निवारयतु (द्वेषः) द्विष अप्रीतौ-विच्। द्वेष्टॄन् (अभयम्) निर्भयत्वम् (नः) अस्मभ्यम् (कृणोतु) करोतु (सुवीर्यस्य) अतिपराक्रमस्य (पतयः) पालकाः (स्याम) भवेम ॥

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    विषय

    सुत्रामा स्ववान् सुमृडीकः

    पदार्थ

    १. (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली, (सुत्रामा) = उत्तमता से रक्षण करनेवाले, (स्ववान्) = धनवाले, (विश्ववेदाः) =  सर्वज्ञ प्रभु अवोभिः रक्षणों के द्वारा समडीकः भवतु-उत्तम सुख देनेवाले हों। २. ये प्रभु (द्वेषः) = [द्वेषांसि]-द्वेष्टाओं को (बाधताम्) = हिंसित करें, (अभयं नः कृणोतु) = हमारे लिए अभयता [प्रदान] करें। हम (सुवीर्यस्य पतयः स्याम) = उत्तम शक्ति के स्वामी हों। द्वेष विष पैदा करके शक्ति का हास करता है, निद्वेष जीवनवाले हम सुवीर्य को प्राप्त करें।

    भावार्थ

    प्रभु के रक्षण में निष जीवन बिताते हुए हम निर्भय बनें तथा सुवीर्य के पति हों।

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    भाषार्थ

    (सुत्रामा) उत्तमरक्षक (स्ववान्) धनवान् या स्वजात्य स्वसाम्राज्योत्पन्न (इन्द्रः) सम्राट् (अवोभिः) रक्षासाधनों द्वारा (सुमृडीकः) उत्तम सुख प्रदाता (भवतु) हो, (विश्ववेदाः) वह साम्राज्य के सब महाकर्मों का ज्ञानवान् हो। (द्वेषः बाधताम्) हमारे द्वेषियों का हनन करे, और (नः) हम प्रजाजनों को (अभयम्) भयरहित (कृणोतु) करे (सुवीर्यस्य) ताकि उत्कृष्ट वीरता के (पतयः) स्वामी (स्याम) हम हों।

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    विषय

    राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (सु त्रामा) प्रजा की उत्तम रीति से रक्षा करने हारा (इन्द्रः) राजा भी (अवोभिः) रक्षा करने के नाना उपायों से ही (सु-अवान्*) प्रजा की उत्तम रीति से रक्षा करने में समर्थ होता है। अथवा (अवोभिः) रक्षा के साधनों से (स्वऽवान्) राजा स्व = धन सम्पत्ति और राष्ट्र से सम्पन्न होजाता है अथवा रक्षा के उपायों से ही बहुत से जन उसके अपने हो जाते हैं। (विश्व-वेदाः) और वह समस्त प्रकारों के धनसन्चय करके राष्ट्र के लिए (सु-मृडीकः) उत्तम रीति से सुखकारी (भवतु) हो। राजा (द्वेषः) आपस में द्वेषकारी, अप्रीति करने या प्रेम का नाश करने वाले कलहकारी लोगों को (बाधताम्) पीड़ित या दण्डित करे। और (नः) हमें (अभयं) समस्त राष्ट्रों में भयरहित (कृणोतु) कर दे जिससे हम निर्भय विचरते और व्यापार करते हुए भी (सु-वीर्यस्य) उत्तम बल सामर्थ्य के (पतयः) पति, स्वामी, (स्याम) बने रहें। परमात्मपक्ष में स्पष्ट है।

    टिप्पणी

    ‘स्वऽवान्’ इति पदपाठः। तत्र स्ववान् धनवानिति सायणादयः ‘बहवः स्वे विद्यन्ते यस्य सः’ इति दयानन्दः। परन्तु ‘सुत्रामा, सुमृडीकः सुवीर्यस्य इति सर्वत्र ‘सु’ प्रयोगे स्ववान् इत्यत्रापि ‘सुमवान्’ इत्येष सन्धिच्छेदः साधीयान्। तथाच ह्विटनिः ‘इन्द्रः सुत्रामा स्ववान्’–Well saving. Well aiding’ इत्यादि’। ‘सु’ उपपदादवतेर्बहुशः प्रयोगाः। यथा—‘सुशर्माणं स्ववसं जरद्विषम्’ इति ऋग्वेदे (५।८।२) अग्नेर्विशेषणम्। ‘ईडेऽग्नि स्ववसं नमोभिः’ (ऋ०५। ६०। १।) ‘स्वायुधं स्ववसं सुनीथं’ इति (ऋ० १०। ४७। २।) इन्द्रस्य विशेषणम्। तत्र सूपपदादवतेरसुन्नौणादिकः इति ‘स्ववान्’ अन्यच्च ‘अवोभिः’ स्ववान् इत्यत्र ‘सु-अवान्’ इत्येष पदच्छेदः सूपयोगः। अस्याः ऋग्वेदे सुकीर्तिः काक्षीवत ऋषिः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः। चन्द्रमाः (राजा) देवता। त्रिष्टुप् छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Ruler

    Meaning

    Indra, the Ruler, should be nobly protective, innately powerful with means of defence and protection, compassionate and gracious, all-knowing and all-aware, he should stem out hate, jealousy and enmity, and provide fearless freedom for the people so that we may be happy masters and promoters of manly vigour and heroic deeds.

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    Translation

    May the protecting opulent Lord shower eternal happiness on us. May He, the all-wise destroy the evil forces that obstruct our Way and thereby give rest and safety. And may we be the possessors of excellent posterity. (Also Rg. VI.47.12)

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.96.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    May the Almighty God Himself who is the Lord of all wealth and good protector of the creatures, be highly benignant by His means of safety. May He drive off the tendency of aversion and make us free from all fear and thus we be the masters of strength and vigor.

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    Translation

    A King, the nice protector of his subjects, wins the sympathy of the people, through his diverse sources of protection. May he, the lord of treasures be the giver of joy and happiness to us. May he drive off oiir foes and give us peace and safety. May we be the lords of goodly strength.

    Footnote

    See Rig, 6-47-12, 10-131-6, Yajur, 20-51. The verse is applicable to God as well.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् राजा (सुत्रामा) त्रैङ् पालने-मनिन्। अतिरक्षकः (स्ववान्) स्वा ज्ञातयः। प्रशस्तज्ञातियुक्तः (अवोभिः) रक्षणैः (सुमृडीकः) बहुसुखयिता (विश्ववेदाः) वेदांसि धनानि ज्ञानानि वा। बहुधनः। बहुज्ञानः। (बाधताम्) निवारयतु (द्वेषः) द्विष अप्रीतौ-विच्। द्वेष्टॄन् (अभयम्) निर्भयत्वम् (नः) अस्मभ्यम् (कृणोतु) करोतु (सुवीर्यस्य) अतिपराक्रमस्य (पतयः) पालकाः (स्याम) भवेम ॥

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