अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 94/ मन्त्र 1
ध्रु॒वं ध्रु॒वेण॑ ह॒विषाव॒ सोमं॑ नयामसि। यथा॑ न॒ इन्द्रः॒ केव॑ली॒र्विशः॒ संम॑नस॒स्कर॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठध्रु॒वम् । ध्रु॒वेण॑ । ह॒विषा॑ । अव॑ । सोम॑म् । न॒या॒म॒सि॒ । यथा॑ । न॒: । इन्द्र॑: । केव॑ली: । विश॑: । सम्ऽम॑नस: । कर॑त् ॥९९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ध्रुवं ध्रुवेण हविषाव सोमं नयामसि। यथा न इन्द्रः केवलीर्विशः संमनसस्करत् ॥
स्वर रहित पद पाठध्रुवम् । ध्रुवेण । हविषा । अव । सोमम् । नयामसि । यथा । न: । इन्द्र: । केवली: । विश: । सम्ऽमनस: । करत् ॥९९.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
राजा की स्तुति का उपदेश।
पदार्थ
(ध्रुवम्) दृढ़ स्वभाव (सोमम्) ऐश्वर्यवान् राजा को (ध्रुवेण) दृढ़ (हविषा) आत्मदान वा भक्ति के साथ (अव नयामसि) हम स्वीकार करते हैं। (यथा) जिससे [वह] (इन्द्रः) प्रतापी राजा (नः) हमारे लिये (केवलीः) सेवास्वभाववाली (विशः) प्रजाओं को (संमनसः) एकमन (करत्) कर देवे ॥१॥
भावार्थ
सब मनुष्य विद्वान् राजा का अभिषेक करके प्रार्थना करें कि सब प्रजा को परस्पर मिलाकर प्रसन्न रक्खे ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१७३।६। और यजु० ७।२५ ॥
टिप्पणी
१−(ध्रुवम्) ध्रु स्थैर्ये-अच्। स्थिरम् (ध्रुवेण) दृढेन (हविषा) आत्मदानेन (सोमम्) षु ऐश्वर्ये-मन्। ऐश्वर्यवन्तम् (अत्र नयामसि) स्वीकुर्मः (यथा) येन प्रकारेण (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्रः) प्रतापी (केवलीः) अ० ३।१८।२। केवल-ङीप्। सेवास्वभावाः। सेवनीयाः (विशः) प्रजाः (संमनसः) समानमनस्काः (करत्) कुर्यात् ॥
विषय
केवली: विश:
पदार्थ
१. ध्(रुवेण हविषा) = स्थिर हवि [कर] के द्वारा पूर्व (सोमम्) = स्थिर सोम-स्वभाववाले राजा को (अवनयामसि) = गाड़ी से आसन्दी के प्रति अवतीर्ण करते हैं, अर्थात् राजा को गद्दी पर बिठाते हैं, और उसके लिए स्थिर रूप से कर देते हैं, तभी तो वह राष्ट्र का रक्षण कर पाता है। बिना कोष के कोई भी कार्य सम्भव नहीं। २. हम इसलिए इन्हें गद्दी पर बिठाते हैं (यथा) = जिससे कि (इन्द्रः) = यह शत्रु-विद्रावक प्रभु (न:) = हमें (केवली संमनसः विश:) = किसी अन्य पर अनाश्रित तथा परस्पर संगत मनवाली प्रजाएँ (करत्) = बनाये।
भावार्थ
राजा को निश्चितरूप से कर देने से ही राजा राष्ट्र का रक्षण कर पाएगा, अत: प्रजा का कर्तव्य है कि वह निश्चितरूप से राजा के लिए हवि [कर] दे। राजा प्रजा को किसी अन्य देश पर अनाश्रित, आत्मनिर्भर [Self sufficient] तथा हम प्रजाओं को परस्पर उत्तम मनवाला बनाये।
अगले दो सुक्तों का ऋषि 'कपिजल' है-यह [कपि-जल-to encircle with anet] वानर के समान चञ्चलतावाली 'काम-क्रोध' रूप वृत्तियों को घेरकर समाप्त करता है [जल घातने] -
भाषार्थ
(ध्रुवेण) स्थिर (हविषा) सैनिक हवि द्वारा, (ध्रुवम्) युद्ध में ध्रुवरूप (सोमम्) परकीय-सेनानायक का (अवनयामसि) हम अवपात करते हैं (यथा) ताकि (इन्द्रः) सम्राट् (नः) हम (विशः) प्रजाओं को (केवलीः) शत्रुरहित या पारस्परिक सेवा वाली, (संमनसः) और एक मन वाली (करत्) करे।
टिप्पणी
[वेदानुसार स्वरक्षार्थ किया युद्ध यज्ञरूप है, और इस युद्धयज्ञ में सैनिक हविरूप हैं। परकीय सेना का सेनाध्यक्ष जब ध्रुव होकर युद्ध लड़ रहा हो, तब आत्मरक्षार्थ युद्ध में ध्रुवरूप में, स्थिररूप में, सैनिक प्रदान करते रहना चाहिये, ताकि परकीय सेनानायक का अधोनयन किया जा सके। सोम= सेनानायक। यथा “इन्द्र आसां नेता बृहस्पतिर्दक्षिणा यज्ञः पुर एतु सोमः। देव सेनानामभिभञ्जतीनां जयन्तीनां मरुतो यत्त्वग्रम्" (यजु० १७।४०)। इस मन्त्र में इन्द्र है सम्राट्; बृहस्पति है बृहती सेना का पति; और सोम है सेनाध्यक्ष जो कि युद्ध-यज्ञ को करता है। केवलीः= केवृ सेवने (भ्वादिः)। अवनयामसि= अव (अबस्तात्) + नी (नयने), अधोनयन]।
विषय
राजा का कर्त्तव्य, प्रजाओं में प्रेम उत्पन्न करना।
भावार्थ
हम लोग (ध्रुवेण) ध्रुव, स्थिर (हविषा) अन्न आदि के अंश से (ध्रुवम्) स्थिर, दृढ़ (सोमम्) प्रजा के सन्मार्ग में प्रेरक शासक को (अव नयामसि) अपने अधीन करते या स्वीकार करते हैं, अपनाते हैं। (यथा) जिससे (नः) हमारा (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान्, दर्शनीय, विघ्ननाशक राजा (केवलीः) अपनी अनन्य साधारण (विशः) प्रजाओं को (सं-मनसः) अपने साथ मनोयोग देनेवाली, एकचित्त, समानचित्त, परस्पर का प्रेमी (करत्) बनावे, उनको संगठित और और सुदृढ़ करे।
टिप्पणी
‘ध्रुवं घ्रुवेण मनसा वाचा सोममवनयामि। अथा न इन्द्र इद्वशोऽसपत्नाः समनसस्करत्’। इति पाठभेदः, यजु०। (द्वि०) अभिसोमंमृशाभसि। ‘अथोत इन्द्रः केवलीविंशो बलिहृतस्करत्’ इति पाठः ऋ०। तत्र यजुर्वेदे भरद्वाज ऋषिः। ऋग्वेदेऽस्याः ध्रुव ऋषिः। राज्ञः स्तुतिर्देवता।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अथर्वा ऋषिः। सोमो देवता। अनुष्टुप् छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Ruler and People
Meaning
With unshakable constancy of mind, love and loyalty, and with total yajnic homage of cooperation, we serve Soma, lord of peace and gracious ruler, so that Indra, master ruler and protector, may make the people free, self-governing and happy at heart.
Subject
Somah
Translation
With sure offerings (of provisions) we bring about sure bliss so that may the resplendent Lord (or the army chief) make the subjects (people) of one mind and loyal only to us. (Also Rg. X.173.6)
Comments / Notes
MANTRA NO 7.99.1AS PER THE BOOK
Translation
We attain the constant spiritual knowledge through constant introspection and exercise of meditation, so that Almighty God make emancipated subjects unanimous in their attainments.
Translation
With steadfast devotion, we accept the man of determination as our ruler. May he render for us his subjects self-reliant and one-minded.
Footnote
That country alone progresses whose inhabitants are self-reliant and undivided. Sec Rig, 10-173-6, Yajur, 7-25.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(ध्रुवम्) ध्रु स्थैर्ये-अच्। स्थिरम् (ध्रुवेण) दृढेन (हविषा) आत्मदानेन (सोमम्) षु ऐश्वर्ये-मन्। ऐश्वर्यवन्तम् (अत्र नयामसि) स्वीकुर्मः (यथा) येन प्रकारेण (नः) अस्मभ्यम् (इन्द्रः) प्रतापी (केवलीः) अ० ३।१८।२। केवल-ङीप्। सेवास्वभावाः। सेवनीयाः (विशः) प्रजाः (संमनसः) समानमनस्काः (करत्) कुर्यात् ॥
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