अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 95/ मन्त्र 1
उद॑स्य श्या॒वौ वि॑थु॒रौ गृध्रौ॒ द्यामि॑व पेततुः। उ॑च्छोचनप्रशोच॒नाव॒स्योच्छोच॑नौ हृ॒दः ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । अ॒स्य॒ । श्या॒वौ । वि॒थु॒रौ । गृध्रौ॑ । द्यामऽइ॑व । पे॒त॒तु॒: । उ॒च्छो॒च॒न॒ऽप्र॒शो॒च॒नौ । अ॒स्य । उ॒त्ऽशोच॑नौ । हृ॒द: ॥१००.१॥
स्वर रहित मन्त्र
उदस्य श्यावौ विथुरौ गृध्रौ द्यामिव पेततुः। उच्छोचनप्रशोचनावस्योच्छोचनौ हृदः ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । अस्य । श्यावौ । विथुरौ । गृध्रौ । द्यामऽइव । पेततु: । उच्छोचनऽप्रशोचनौ । अस्य । उत्ऽशोचनौ । हृद: ॥१००.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
काम और क्रोध के निवारण का उपदेश।
पदार्थ
(अस्य) इस [जीव] के (श्यावौ) दोनों गतिशील (विथुरौ) व्यथा देनेवाले, (गृध्रौ) बड़े लोभी [काम क्रोध] (द्याम् इव) आकाश को जैसे (उत् पेततुः) उड़ गये हैं। (उच्छोचनप्रशोचनौ) अत्यन्त दुखानेवाले और सब ओर से दुखानेवाले दोनों (अस्य) इसके (हृदः) हृदय के (उच्छोचनौ) अत्यन्त दुखानेवाले हैं ॥१॥
भावार्थ
मनुष्य काम क्रोध के वशीभूत होकर बड़ी-बड़ी व्यर्थ कल्पनायें करके सदा दुखी रहते हैं ॥१॥
टिप्पणी
१−(उत्) ऊर्ध्वम् (अस्य) जीवस्य (श्यावौ) अ० ५।५।८। गतिशीलौ। कृष्णपीतवर्णौ वा (विथुरौ) व्यथेः सम्प्रसारणं धः किच्च। उ० १।३९। व्यथ ताडने-उरच्, स च कित्। व्यथनशीलौ। चोरौ (गृध्रौ) सुसूधाञ्गृधिभ्यः क्रन्। उ० २।२४। गृधु अभिकाक्षायाम्−क्रन्। अतिलोभिनौ कामक्रोधौ (द्याम्) आकाशम् (इव) यथा (पेततुः) पत्लृ पतने-लिट्। गतवन्तौ (उच्छोचनप्रशोचनौ) शोचयतेर्नन्द्यादित्वाल् ल्युः। उच्छोचयति अत्यन्तं दुःखयतीति उच्छोचनः, प्रकर्षेण शोचयतीति प्रशोचनः, एवंविधौ कामक्रोधौ (अस्य) (प्राणिनः) (उच्छोचनौ) अत्यन्तं शोचयितारौ (हृदः) हृदयस्य ॥
विषय
श्यावौ गृध्रौ
पदार्थ
१. (अस्य) = इस पुरुष के (हदः उच्छोचनौ) = हृदय को उत्कर्षेण शुष्क करनेवाले [शोकान्वित करनेवाले] ये काम-क्रोध (विथुरौ) = इसकी व्यथा को बढ़ानेवाले हैं। ये (श्यावौ) = गतिशील (गृध्रौ इव) = दो गीधों के समान द्(याम् उत्पेततु:) = आकाश में ऊपर उठते हैं। ये काम-क्रोध बढ़ते ही जाते हैं। ये (अस्य) = इस पुरुष के (उच्छोचनप्रशोचनौ) = महान् शोक का कारण बनते हैं और इसे प्रकर्षण सुखानेवाले होते हैं।
भावार्थ
काम-क्रोध' मनुष्य के प्रबल शत्रु हैं। ये सेवन से बढ़ते ही जाते हैं। ये उसके शोक व व्यथा के बढ़ानेवाले होते हैं।
भाषार्थ
(इव) जैसे (गृध्रौ) दो गीध (द्याम्) द्युलोक की ओर (उत् पेततुः) उड़े हैं, वैसे (अस्य) इस पुमान् [मन्त्र ३] के (श्यावौ) श्याववर्ण वाले, (विथुरौ) व्यथादायक गर्भाशील दो लोभ और मोह, द्यौः अर्थात् सिर की ओर, (हृदः१) हृदय से उड़े हैं, जो कि (अस्य) इस पुमान् के हृदय को (उत् शोचनौ प्रशोचनौ) शोकित तथा संतापित कर देते हैं तथा जो लोभ-मोह (उच्छोचनौ) स्वभावतः शोकित तथा संतापित करने वाले हैं।
टिप्पणी
[हृदः= पञ्चम्यन्त तथा षष्ठ्यन्त पद। दोनों अर्थ मन्त्र में अभिप्रेत हैं। गीध वृक्ष से द्युलोक की ओर उड़ता है। इसी प्रकार लोभ-मोह हृदय से उठ कर सिर की ओर उड़ते हैं, सिर के मस्तिष्क को विकृत कर देते हैं। द्यौः द्वारा सिर को सूचित किया है। यथा “शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत" (यजु० ३१।१३) में द्यौः और सिर का परस्पर सम्बन्ध सूचित किया है। श्यावौ द्वारा लोभ-मोह को मिश्रित वर्ण वाले सूचित किया है। लोभ-मोह तमोगुण और रजोगुण के मिश्रण के परिणाम होते हैं। भाव को स्पष्ट करने के लिये मन्त्रार्थं व्याख्यामिश्रित किया है]। [१. पक्षियों के निवास स्थान हैं वृक्ष, जो कि अन्तरिक्ष की ओर उठे होते हैं, इस अन्तरिक्ष से वे द्यौः की ओर उड़ते हैं, इसी प्रकार हृदय अन्तरिक्षस्थानी हैं। छाती में फेफड़ों में वायु तथा हृदय में रक्तरूपी जल होता है। अन्तरिक्ष में भी वायु और मेघरूपी जल होता है। इस हृदयरूपी अन्तरिक्ष से लोभ-मोहरूपी दो पक्षी, सिर या मस्तिष्करूपी द्यौः की उड़ते हैं। वैदिक साहित्यानुसार सिर है द्यौः, छाती है अन्तरिक्ष और अन्न पेट है अन्नाधारा पृथिवी।]
विषय
जीव के आत्मा और मनकी ऊर्ध्वगति।
भावार्थ
(अस्य) इस जीव के (विथुरौ) व्यथादायी या व्यथित (गृध्रौ) लोकान्तर की आकांक्षा करने वाले आत्मा और मन अथवा आत्मा और प्राण (श्यावौ गृध्रौ इव) दो श्यामरंग के गीध जिस प्रकार (द्याम्) आकाश में उड़ते हैं उस प्रकार अत्यन्त गतिशील, तीव्र वेगवान् होकर (उत् पेततुः) ऊपर उठते हैं। दोनों उस समय उसके (हृदः) हृदय को अपने तीव्रवेग और ताप से (उत्-शोचनौ) अति अधिक कान्ति देने वाले होते हैं इसलिये उनका नाम भी (उत्शोचन-प्रशोचनौ) उत्शोचन और प्रशोचन हैं। वे दोनों उस समय हृदय के अग्रभाग को प्रदीप्त करते हैं। और शरीर को दोनों संतप्त करते हैं। “तस्य हैतस्य हृदयमग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्कामति। चक्षुषो वा मूर्ध्नो वान्येभ्योवा शरीरदेशेभ्यस्तमुत्क्रामन्तं प्राणोऽनूत्क्रामति। प्राणमनु उत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति इत्यादि।” बृहदारण्यकोपनिषत् ४। ४। २॥ देहावसानकाल में आत्मा की समस्त शक्तियां आमा में लीन होकर एक हो जाती हैं। और तब हृदय का अग्रभाग प्रकाशित होता है। वह आत्मपुञ्ज हृदय या आंख या सिर भाग से निकल जाता है। और आत्मा के साथ इन्द्रियगण भी शरीर को छोड़ देते हैं बृहदारण्यक का यह स्थल विशेष दर्शनीय है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कपिञ्जल ऋषिः। गृध्रौ देवते। अनुष्टुप् छन्दः। तृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vultures of the Mind
Meaning
Of this human soul, two are vultures of the mind, both furious and sweetly tormenting, and they upsurge as if flying to the heights of heaven. Glowing and radiating, burning and parching, both afflict the heart and soul. They are love and infatuation, greed and anger.) Refer to Gita, 2, 62-63.
Subject
Grdhrau
Translation
In-breath and out-breath of this man have flown up like two frightened and ever-moving vultures to the sky. Those tormenting and drying up are tormentors of this man’s heart.
Comments / Notes
MANTRA NO 7.100.1AS PER THE BOOK
Translation
This soul has in its mind two tendencies the passion and anger which are known as parchor and drier and are like the two flying and troubling vultures who soars to heavenly region. They parch and dry the conscience and heart.
Translation
Lust and anger, are the two energetic and distressing passions of the soul, that lurk in it, like two vultures flying in the sky. These grief-developer and drier-up passions parch the heart.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(उत्) ऊर्ध्वम् (अस्य) जीवस्य (श्यावौ) अ० ५।५।८। गतिशीलौ। कृष्णपीतवर्णौ वा (विथुरौ) व्यथेः सम्प्रसारणं धः किच्च। उ० १।३९। व्यथ ताडने-उरच्, स च कित्। व्यथनशीलौ। चोरौ (गृध्रौ) सुसूधाञ्गृधिभ्यः क्रन्। उ० २।२४। गृधु अभिकाक्षायाम्−क्रन्। अतिलोभिनौ कामक्रोधौ (द्याम्) आकाशम् (इव) यथा (पेततुः) पत्लृ पतने-लिट्। गतवन्तौ (उच्छोचनप्रशोचनौ) शोचयतेर्नन्द्यादित्वाल् ल्युः। उच्छोचयति अत्यन्तं दुःखयतीति उच्छोचनः, प्रकर्षेण शोचयतीति प्रशोचनः, एवंविधौ कामक्रोधौ (अस्य) (प्राणिनः) (उच्छोचनौ) अत्यन्तं शोचयितारौ (हृदः) हृदयस्य ॥
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