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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 96 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 96/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कपिञ्जलः देवता - वयः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
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    अस॑द॒न्गावः॒ सद॒नेऽप॑प्तद्वस॒तिं वयः॑। आ॒स्थाने॒ पर्व॑ता अस्थुः॒ स्थाम्नि॑ वृ॒क्काव॑तिष्ठिपम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अस॑दन् । गाव॑: । सद॑ने । अप॑प्तत् । व॒स॒तिम् । वय॑: । आ॒ऽस्थाने॑ । पर्व॑ता: । अ॒स्थु॒: । स्थाम्नि॑ । वृ॒क्कौ । अ॒ति॒ष्ठि॒प॒म् ॥१०१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असदन्गावः सदनेऽपप्तद्वसतिं वयः। आस्थाने पर्वता अस्थुः स्थाम्नि वृक्कावतिष्ठिपम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असदन् । गाव: । सदने । अपप्तत् । वसतिम् । वय: । आऽस्थाने । पर्वता: । अस्थु: । स्थाम्नि । वृक्कौ । अतिष्ठिपम् ॥१०१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 96; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (4)

    विषय

    काम और क्रोध की शान्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    (गावः) गौएँ (सदने) बैठक में (असदन्) बैठ गयी हैं, (वयः) पक्षी ने (वसतिम्) घोंसले में (अपप्तत्) बसेरा लिया है। (पर्वताः) पहाड़ (आस्थाने) विश्राम स्थान पर (अस्थुः) ठहर गये हैं, (वृक्कौ) दोनों रोक डालनेवाले वा रोकने योग्य [काम क्रोध] को (स्थाम्नि) स्थान पर (अतिष्ठिपम्) मैंने ठहरा दिया है ॥१॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में (गृध्रौ) काम क्रोध का अर्थ गत सूक्त से आता है। जैसे गौएँ आदि अपने-अपने स्थान पर विश्राम करते हैं, ऐसे ही मनुष्य काम क्रोध को विद्या आदि से शान्त करके प्रसन्न रहें ॥१॥ इस मन्त्र का उत्तरार्द्ध कुछ भेद से आ चुका है-अ० ६।७७।१ ॥

    टिप्पणी

    १−(असदन्) षद्लृ-लुङ्। निषण्णा अभूवन् (गावः) धेनवः (सदने) षद्लृ-ल्युट्। स्थाने (अपप्तत्) अ० ५।३०।९। अगमत् (वसतिम्) वहिवस्यर्तिभ्यश्चित्। उ० ४।६०। वस निवासे-अति। नीडम् (वयः) वी गतौ असुन्। पक्षी (वृक्कौ) सृवृभूशुषिमुषिभ्यः कक्। उ० ३।४१। इति वृजी वर्जने कक्। वर्जकौ वर्जनीयौ वा कामक्रोधौ गतमन्त्रात्। अन्यद् गतम्-अ० ६।७७।१ ॥

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    विषय

    अपने स्थान पर

    पदार्थ

    १. (गावः सदने असदन्) = गौएँ जैसे अपने स्थान पर बैठती हैं, (वयः) = पक्षी (वसतिं अपतत्) = अपने घोंसलों में पहुँचता है, (पर्वताः आस्थाने अस्थुः) = पर्वत अपने स्थान पर स्थित होते हैं, इसी प्रकार मैं वृक्को -[वृजी वर्जन] इन वर्जनीय काम-क्रोध को स्थानि प्रतिष्ठिपम्-इनके स्थान में स्थापित करता हूँ। [स्थामन् Fixity, stability] इनकी चञ्चलता को रोकनेवाला होता

    भावार्थ

    गौएँ गोष्ट में स्थित हो ठीक लगती हैं [न कि बैठक में], पक्षी घोंसले में ही शोभित होते हैं [न कि घरों में घड़ों पर बैठे हुए], पर्वत अपने स्थान पर स्थित ही अच्छे हैं। इसी प्रकार काम-क्रोध अपने स्थान पर अचञ्चल स्थिति में ही शोभा देते हैं।

    इसप्रकार काम-क्रोध की चञ्चलता को दूर करके स्थिर वृत्तिवाला 'अथर्वा' अगले तीन सुक्तों का ऋषि है।

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    भाषार्थ

    (गावः) गौएं (सदने) गोशाला में (असदन) बैठ गई हैं, (वयः) पक्षी (वसतिम्) निज निवास स्थान [वृक्ष] में (अपप्तत्) उड़ कर आ बैठा है। (पर्वताः) पर्वत (आस्थाने) स्वकीय स्थान में (अस्थुः) स्थित हैं, (स्थाम्नि) स्थान में (वृक्कौ) दोनों गुर्दों को (अतिष्ठिपम्) मैंने स्थापित कर दिया है।

    टिप्पणी

    [मन्त्र में शल्यचिकित्सक की उक्ति है। रात्री के प्रारम्भकाल या सायंकाल में गौओं और पक्षियों का निजस्थानों में स्थित हो जाने, और पर्वतों का निजस्थान में सदा स्थित रहने का कथन दृष्टान्तरूप में मन्त्र में हुआ है। वृक्कौ हैं दो गुर्दे [Kidneys]‌। ये अकस्मात् जन्मतः निज स्वाभाविक स्थान से स्थानान्तर में भी पैदा हो जाते हैं। इन्हें शल्यक्रिया द्वारा निज स्थानों में कर देने का निर्देश हुआ है]।

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    विषय

    जीव की शरीरप्राप्तिका वर्णन।

    भावार्थ

    (गावः) जिस प्रकार गौवें अपने (सदने) घर में (असदन्) आकर बैठती हैं उसी प्रकार (गावः) इन्द्रिय गण (सदने) अपने आयतन, भोगाश्रय शरीर में (असदन्) आकर बैठ जाती हैं। और जिस प्रकार (वयः) पक्षी (वसतिम्) अपने घोंसले में आकर बैठता है उसी प्रकार यह जीवात्मा अपने (वसतिम्) वासस्थान देह को (उपपप्तत्) प्राप्त कर लेता है। और उस देह में (पर्वताः) पोरु वाले अंगों में स्थित हड्डियां भी (आ-स्थाने) ठीक ठीक स्थान पर (तस्थुः) स्थिर हो जाती हैं और (स्थाम्नि) ठीक ठीक स्थान पर मैं परमेश्वर जीव के शरीर में (वृक्कौ) गुर्दे आदि अंगों को (अतिष्ठिपम्) स्थापित करता हूं। गर्भाशय में प्रथम इन्द्रियें, फिर जीव आता है, और फिर हड्डियां, और उसके पश्चात् गुर्दे और फेफड़े आदि बनते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कपिंजल ऋषिः। वयो देवता। अनुष्टुप् छन्दः। एकर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Kidneys

    Meaning

    The senses are quiet, withdrawn, as cows resting in the stall, the bird of the mind has flown back home for rest, the clouds of imagination are back to rest in the mind, I have kept the two kidneys in proper place and function for eliminating the blocking and disturbing wastes and poisons of body chemistry.

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    Subject

    Vayah ; Age

    Translation

    The cows have settled in the cow-stall; the bird has flown into its nest; the mountains stand firm at their site; I make the two kidneys firm in their proper places.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.101.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    The Cows are resting in the stall, the bird has flown to its nest-home, hills are constant at their places and I, the physician have fixed the kidneys in their proper places.

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    Translation

    Just as the kine are resting in the stall, and the bird hath flown to its nest and the hills are firmly rooted, so have I controlled lust and anger and put them in their proper place.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(असदन्) षद्लृ-लुङ्। निषण्णा अभूवन् (गावः) धेनवः (सदने) षद्लृ-ल्युट्। स्थाने (अपप्तत्) अ० ५।३०।९। अगमत् (वसतिम्) वहिवस्यर्तिभ्यश्चित्। उ० ४।६०। वस निवासे-अति। नीडम् (वयः) वी गतौ असुन्। पक्षी (वृक्कौ) सृवृभूशुषिमुषिभ्यः कक्। उ० ३।४१। इति वृजी वर्जने कक्। वर्जकौ वर्जनीयौ वा कामक्रोधौ गतमन्त्रात्। अन्यद् गतम्-अ० ६।७७।१ ॥

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