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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 97 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 97/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - यज्ञ सूक्त
    2

    यद॒द्य त्वा॑ प्रय॒ति य॒ज्ञे अ॒स्मिन्होत॑श्चिकित्व॒न्नवृ॑णीमही॒ह। ध्रु॒वम॑यो ध्रु॒वमु॒ता श॑विष्ठैप्रवि॒द्वान्य॒ज्ञमुप॑ याहि॒ सोम॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒द्य । त्वा॒ । प्र॒ऽय॒ति । य॒ज्ञे । अ॒स्मिन् । होत॑: । चि॒कि॒त्व॒न् । अवृ॑णीमहि । इ॒ह । ध्रु॒वम् । अ॒य॒: । ध्रु॒वम् । उ॒त । श॒वि॒ष्ठ॒ । प्र॒ऽवि॒द्वान् । य॒ज्ञम् । उप॑ । या॒हि॒ । सोम॑म् ॥१०२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदद्य त्वा प्रयति यज्ञे अस्मिन्होतश्चिकित्वन्नवृणीमहीह। ध्रुवमयो ध्रुवमुता शविष्ठैप्रविद्वान्यज्ञमुप याहि सोमम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अद्य । त्वा । प्रऽयति । यज्ञे । अस्मिन् । होत: । चिकित्वन् । अवृणीमहि । इह । ध्रुवम् । अय: । ध्रुवम् । उत । शविष्ठ । प्रऽविद्वान् । यज्ञम् । उप । याहि । सोमम् ॥१०२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 97; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    मनुष्य धर्म का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जिस लिये कि (अद्य) आज (त्वा) तुझको (अस्मिन्) इस (प्रयति) प्रयत्नसाध्य (यज्ञे) संगतियोग्य व्यवहार में, (चिकित्वन्) हे ज्ञानवान् ! (होतः) हे दानी पुरुष ! (इह) यहाँ पर (अवृणीमहि) हमने चुना है [वर्णी किया है]। (शविष्ठ) हे महाबली ! तू (ध्रुवम्) दृढ़ता से (उत) और भी (ध्रुवम्) दृढ़ता से (अयः) आ, (यज्ञम्) पूजनीय व्यवहार को (प्रविद्वान्) पहिले से जाननेवाला तू (सोमम्) ऐश्वर्य को (उप) समीप से (याहि) प्राप्त कर ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य प्रयत्नपूर्वक विद्या और बल प्राप्त करके ऐश्वर्य बढ़ावें ॥१॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में−३।२९।१६। और यजुर्वेद−८।२० ॥

    टिप्पणी

    १−(यत्) यतः (अद्य) वर्तमाने दिने (त्वा) त्वाम् (प्रयति) यती प्रयत्ने-क्विप्, यद्वा इण् गतौ-शतृ। प्रयत्नसाध्ये। प्रवर्तमाने (यज्ञे) संगन्तव्ये व्यवहारे (अस्मिन्) (होतः) दातः (चिकित्वन्) अ० ५।१˜२।१। हे ज्ञानवन् (अवृणीमहि) वृञ् वरणे-लङ्। वयं वृतवन्तः। स्वीकृतवन्तः (ध्रुवम्) दृढत्वेन (अयः) अय गतौ-लेट्, परस्मैपदम्। आगच्छेः (ध्रुवम्) निश्चलं यथा तथा (उत) अपि (शविष्ठ) अ० ७।२५।१। हे बलवत्तम (प्रविद्वान्) अग्रे जानन् (यज्ञम्) पूजनीयं व्यवहारम् (उप) समीपम् (याहि) प्राप्नुहि (सोमम्) ऐश्वर्यम् ॥

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    विषय

    सर्वप्रद, सर्वज्ञ प्रभु द्वारा जीवनयज्ञ की पूर्ति

    पदार्थ

    १. (यत्) = जो (अद्य) = आज, हे (होत:) = सर्वप्रद, (चिकित्वन्) = ज्ञानिन, सर्वज्ञ प्रभो! (अस्मिन् प्रयति यज्ञे) = इस प्रवर्त्तमान, विच्छेद के बिना क्रियमाण जीवनयज्ञ में (इह त्वा अवृणीमहि) = यहाँ आपका वरण करते हैं तो आप ध्(रुवम् अय:) = निश्चय से सर्वथा [आयाक्षी:] हमारे इस यज्ञ को पूरा करते हैं। हे (शविष्ठ) = सर्वाधिक शक्ति-सम्पन्न प्रभो! (उत्त) = और आप (धुवम्) = निश्चय से (प्रविद्वान्) = हमारे 'मन, वचन, कर्म' सबको जानते हुए (सोमम् यज्ञं उपयाहि) = इस शान्तभाव से चलनेवाले जीवन-यज्ञ में प्राप्त होओ। आपको ही इस जीवन-यज्ञ की सम्यक् पूर्ति करनी है।

    भावार्थ

    हम जीवन को यज्ञ का रूप दें। इस यज्ञ की पूर्ति के लिए प्रभु को आमन्त्रित करें।

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    भाषार्थ

    (चिकित्वन्) ज्ञानवान् (होतः) हे होता ! (यत् अद्य) जो आज (अस्मिन्) इस (प्रयति) प्रवर्तमान (यज्ञे) यज्ञ में (इह) इस स्थान में (त्वा) तुझे (अवृणीमहि) हम ने वरण किया है, चुना है, तो (शविष्ठ) हे बलवान् ! (प्रविद्वान्) इस वरण को पूर्व से ही जानता हुआ तू (ध्रुवम् अयः) निश्चय से तू आ, (उत) तथा (ध्रुवम्) निश्चय से (सोमं यज्ञम्) सोमयज्ञ को लक्ष्य कर (उप) हमारे समीप (याहि) प्राप्त हो।

    टिप्पणी

    [सोमयज्ञ है ब्रह्मचर्य यज्ञ (सोम= वीर्य, अथर्ववेद भाष्य का० १४।१।१०)। इह= ब्रह्मचर्याश्रम, जिसकी कि स्थापना हो रही है। अभ्यागत होता है अग्नि, अर्थात् साम्राज्य का अग्रणी१ प्रधानमन्त्री, जिसे कि यज्ञ की तिथि का पूर्वतः ज्ञान है। प्रयति= प्र + इण् (गतौ ) + शतृ (सप्तम्येकवचन; "इणो यण" द्वारा "यण"। शविष्ठ= शवः बलनाम (निघं० २।९) + इष्ठन्= अति बलवान्, बलवत्तम]। [१. निरुक्त (७।४।१४)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Yajna

    Meaning

    O high-priest of yajna, learned sage, expert in the science of yajna, as we have selected and appointed you in this on-going yajnic plan of social creation and production, come, eminent scholar, constant and firmly dedicated to the programme, take over this yajna, and create and enjoy the soma gifts of this performance.

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    Subject

    Indragni (Pair)

    Translation

    O omniscient fire-divine, cognizant of all ceremonies as we today approaches you in the course of our progressive worship, may you steadily convey our offerings. Nature’s bounties stand firmly here, O the strongest. May you, O enlightened and all-knowing one, approach and cherish the libations of medicinal herbs (Somam). (Also Rg. 111.29.16)

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.102.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    O Dexter Hotar! as we have appointed you as priest in the yajna which is proceeding, come to the firm place with firmness. O mightiest one! knowing the details of the yajna you come to this yajna which is Soma, the means of practical Knowledge.

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    Translation

    O learned person we have today, in this world, accepted thee as Hota in this Yajna which is performed through ceaseless effort. O knower of the details or sacrifice, come certainly to this firm Yajna, and attain to prosperity.

    Footnote

    We refers to married people.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(यत्) यतः (अद्य) वर्तमाने दिने (त्वा) त्वाम् (प्रयति) यती प्रयत्ने-क्विप्, यद्वा इण् गतौ-शतृ। प्रयत्नसाध्ये। प्रवर्तमाने (यज्ञे) संगन्तव्ये व्यवहारे (अस्मिन्) (होतः) दातः (चिकित्वन्) अ० ५।१˜२।१। हे ज्ञानवन् (अवृणीमहि) वृञ् वरणे-लङ्। वयं वृतवन्तः। स्वीकृतवन्तः (ध्रुवम्) दृढत्वेन (अयः) अय गतौ-लेट्, परस्मैपदम्। आगच्छेः (ध्रुवम्) निश्चलं यथा तथा (उत) अपि (शविष्ठ) अ० ७।२५।१। हे बलवत्तम (प्रविद्वान्) अग्रे जानन् (यज्ञम्) पूजनीयं व्यवहारम् (उप) समीपम् (याहि) प्राप्नुहि (सोमम्) ऐश्वर्यम् ॥

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