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अथर्ववेद के काण्ड - 7 के सूक्त 99 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 99/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अथर्वा देवता - वेदिः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - वेदी सूक्त
    1

    परि॑ स्तृणीहि॒ परि॑ धेहि॒ वेदिं॒ मा जा॒मिं मो॑षीरमु॒या शया॑नाम्। हो॑तृ॒षद॑नं॒ हरि॑तं हिर॒ण्ययं॑ नि॒ष्का ए॒ते यज॑मानस्य लो॒के ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । स्तृ॒णी॒हि॒ । परि॑ । धे॒हि॒ । वेदि॑म् । मा । जा॒मिम् । मो॒षी॒: । अ॒मु॒या । शया॑नाम् । हो॒तृ॒ऽसद॑नम् । हरि॑तम् । हि॒र॒ण्यय॑म् । नि॒ष्का: । ए॒ते । यज॑मानस्‍य । लो॒के ॥१०४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि स्तृणीहि परि धेहि वेदिं मा जामिं मोषीरमुया शयानाम्। होतृषदनं हरितं हिरण्ययं निष्का एते यजमानस्य लोके ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । स्तृणीहि । परि । धेहि । वेदिम् । मा । जामिम् । मोषी: । अमुया । शयानाम् । होतृऽसदनम् । हरितम् । हिरण्ययम् । निष्का: । एते । यजमानस्‍य । लोके ॥१०४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 7; सूक्त » 99; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    विद्या के प्रचार का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे विद्वान् !] (वेदिम्) विद्या [वा यज्ञभूमि] (परि) सब ओर (स्तृणीहि) फैला और (परि) सब ओर (धेहि) पुष्टकर (अमुया) उस [विद्या] के साथ (शयानाम्) वर्तमान (जामिम्) गति को (मा मोषीः) मत लूट। (होतृषदनम्) दाता का घर (हरितम्) हरा-भरा [स्वीकारयोग्य] और (हिरण्यम्) सोने से भरा [होता है], (एते) यह सब (निष्काः) सुनहले अलङ्कार (यजमानस्य) यजमान [विद्वानों के सत्कार करनेवाले] के (लोके) घर में [रहते हैं] ॥१॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य विद्या प्राप्त करके उसकी प्रवृत्ति नहीं रोकता, वह महाधनी होकर सुखी रहता है ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(परि) सर्वतः (स्तृणीहि) स्तॄञ् आच्छादने। छादय। विस्तारय (परि) परितः (धेहि) पोषय (वेदिम्) अ० ५।२२।१। विद ज्ञाने-इन्। विद्यां यज्ञभूमिं वा (जामिम्) नियो मिः। उ० ४।४३। या प्रापणे−मि। यस्य जः। यद्वा वसिवपियजि०। उ० ४।१२५। जम गतौ-इञ्। जामिरन्येऽस्यां जनयन्ति जामपत्यम्। जमतेर्वा स्याद्गतिकर्मणे निर्गमनप्राया भवति-निरु० ३।६। गतिं प्रवृत्तिम् (मा मोषीः) मुष स्तेये-लुङ्। मा चोरय (अमुया) अनया वेद्या सह (शयानाम्) शीङ् शयने-शानच्। वर्तमानाम् (होतृषदनम्) दातृगृहम् (हरितम्) हृश्याभ्यामितन्। उ० ३।९३। हृञ् हरणे, स्वीकारे-इतन्। स्वीकरणीयम्। शोभनम् (हिरण्यम्) हिरण्यमयम्। सुवर्णयुक्तम् (निष्काः) नौ सदेर्डिच्च। उ० ३।४५। नि+षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु-कन्, स च डित्। सुवर्णमया अलङ्काराः (एते) दृश्यमानाः (यजमानस्य) देवपूजकस्य (लोके) गृहे ॥

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    विषय

    अलंकृत यज्ञवेदि

    पदार्थ

    १.हे दर्भ! (परिस्तृणीहि) = तू वेदि के चारों ओर आस्तीर्ण हो, (वेदिं परिधेहि) = वेदि को समन्तात् धारण करनेवाला बन। यज्ञवेदि के चारों ओर शाहल प्रदेश हो। (अमुया शयानाम्) = इस वेदि के साथ निवास करनेवाली (जामिम्) = [जायते अस्यां प्रजा इति] यजमान पत्नी को (मा मोषी) = मत हिसित कर । यज्ञशील पत्नी का घर रोग आदि से आक्रान्त न हो। २. (होतृषदनम्) = होता का घर, यज्ञशील पुरुष का घर (हरितम्) = [हरिद्वर्ण] हराभरा अथवा दुःखों का हरण करनेवाला तथा (हिरण्ययम्) = ज्योतिर्मय होता है। वस्तुतः (एते) = ये यज्ञवेदि के चारों ओर आस्तीर्यमाण दर्भ (यजमानस्य लोके) = इस यज्ञशील पुरुष के घर में (निष्का:) = स्वर्णमय अलंकार होते हैं, अर्थात् यजमान का घर धन-धान्य से पूर्ण होता है।

    भावार्थ

    शाहल प्रदेश से आवृत यज्ञवेदि घर की शोभा है। यज्ञशीला गृहपत्नी घर को कभी रोगादि से हिंसित होता हुआ नहीं पाती। यज्ञमय गृह 'दुःखरहित, प्रकाशमय व धन-धान्य से पूर्ण' बनता है।

    यज्ञों में व्याप्त जीवनवाला यह व्यक्ति 'यम'-संयत जीवनवाला बनता है। इसे कभी अशुभ स्वप्न नहीं आते। यह यम अगले दोनों सूक्तों का ऋषि है।

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    भाषार्थ

    (वेदिम्) यज्ञवेदि को (परि) सब ओर (स्तृणीहि) आच्छादित कर (परि धेहि) और उसे परिधि द्वारा घेर, (अमुया) उस वेदि के समीप (शयानाम्) शयन की हुई (जामिम्) यजमान-पत्नी को (मा मोषीः) कष्ट न पहुंचा। होतृषदनम्= होता के बैठने का आसन (हरितम) मनोहारी तथा (हिरण्ययम्) हिरण्यमय हो। (यजमानस्य) यजमान के (लोके) घर में (एते निष्काः) ये निष्क [पर्याप्त] हैं।

    टिप्पणी

    [यज्ञारम्भ करने से पूर्व अभ्यागतों के बैठने के लिये वेदि पर आसन बिछा देने चाहिये, और यज्ञवेदि को परिधियों द्वारा घर देना चाहिये, ताकि कोई पशु यज्ञवेदि में प्रवेश न पा सके। यदि किसी व्रत को धारण कर यजमान की पत्नी, यज्ञ की पूर्वरात्री में वेदि के समीप आकर शयन कर रही हो तो उसके शयन में किसी प्रकार भी बाधा या विघ्न न होना चाहिये। यजमान धनवान् है अतः उसके होता का आसन, उसके सत्कारार्थ, सुवर्णमय होना चाहिये। निष्काः= "निष्कः A golden coin of different values" (आप्टे)। निष्कः= निः (निश्चित परिमाण वाला) + कः (क्रय-विक्रय का साधन)। जिसे मुद्रा और सिक्का कहते हैं, और जिसे राज्य द्वारा निर्मित किया जाता है। निष्क का अर्थ सुवर्ण-हार भी होता है। मोषीः= इस द्वारा सोई हुई पत्नी की निद्रा के अपहरण करने को स्तेय कहा है "मुष स्तेये" (क्र्यादिः)। निद्रा भी एक धन है, उस का अपहरण करने वाला मानो धन का अपहरण करता है, अतः चोर है। निष्कः= सिक्का। “नि" के "न्” का लोप, शेष बचा, “इष्क"= इ + स् + क= सिक सिक्का (सुवर्णमय)]‌

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vedi

    Meaning

    Cover the vedi with holy grass, lay it well and enclose it, do not disturb it, lying as it is in that quiet but dynamic state. Let the seat of the generous host be verdant, colourful and beautiful, not dull. These are golden measures of the beauty of the yajamana’s home.

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    Subject

    Vedih

    Translation

    Cover the sacrificial altar all around and enclose it well. Do not molest the sister sleeping on this altar. The house of the sacrificer is full of greenery and gold. And these are the gold coins in the sacrificer’s abode.

    Comments / Notes

    MANTRA NO 7.104.1AS PER THE BOOK

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    Translation

    O performer of yajna! strew Kusha-grass and spread it on the yajna vedi and do not rob this vedi who is like sleeping sister. Let the seat of the Hotar-priest be green with grass and glittered with gold and let these necklets be arranged for gift in the place of the yajmana.

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    Translation

    O learned person, spread knowledge all round, and perfect It in every way. Rob not its current How and scope. The house of a charitable person is ever flourishing and filled with gold. Golden ornaments are found in the house of a sacrificer who hospitably entertains the learned.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(परि) सर्वतः (स्तृणीहि) स्तॄञ् आच्छादने। छादय। विस्तारय (परि) परितः (धेहि) पोषय (वेदिम्) अ० ५।२२।१। विद ज्ञाने-इन्। विद्यां यज्ञभूमिं वा (जामिम्) नियो मिः। उ० ४।४३। या प्रापणे−मि। यस्य जः। यद्वा वसिवपियजि०। उ० ४।१२५। जम गतौ-इञ्। जामिरन्येऽस्यां जनयन्ति जामपत्यम्। जमतेर्वा स्याद्गतिकर्मणे निर्गमनप्राया भवति-निरु० ३।६। गतिं प्रवृत्तिम् (मा मोषीः) मुष स्तेये-लुङ्। मा चोरय (अमुया) अनया वेद्या सह (शयानाम्) शीङ् शयने-शानच्। वर्तमानाम् (होतृषदनम्) दातृगृहम् (हरितम्) हृश्याभ्यामितन्। उ० ३।९३। हृञ् हरणे, स्वीकारे-इतन्। स्वीकरणीयम्। शोभनम् (हिरण्यम्) हिरण्यमयम्। सुवर्णयुक्तम् (निष्काः) नौ सदेर्डिच्च। उ० ३।४५। नि+षद्लृ विशरणगत्यवसादनेषु-कन्, स च डित्। सुवर्णमया अलङ्काराः (एते) दृश्यमानाः (यजमानस्य) देवपूजकस्य (लोके) गृहे ॥

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