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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 10 के मन्त्र
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मन्त्र चुनें
अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वाचार्यः
देवता - विराट्
छन्दः - त्रिपदा साम्न्यनुष्टुप्
सूक्तम् - विराट् सूक्त
1
सोद॑क्राम॒त्सान्तरि॑क्षे चतु॒र्धा विक्रा॑न्तातिष्ठत् ॥
स्वर सहित पद पाठसा । उत् । अ॒क्रा॒म॒त् । सा। अ॒न्तरि॑क्षे । च॒तु॒:ऽधा । विऽक्रा॑न्ता । अ॒ति॒ष्ठ॒त् ॥११.१॥
स्वर रहित मन्त्र
सोदक्रामत्सान्तरिक्षे चतुर्धा विक्रान्तातिष्ठत् ॥
स्वर रहित पद पाठसा । उत् । अक्रामत् । सा। अन्तरिक्षे । चतु:ऽधा । विऽक्रान्ता । अतिष्ठत् ॥११.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ब्रह्मविद्या का उपदेश।
पदार्थ
(सा) वह [विराट्] (उत् अक्रामत्) ऊपर चढ़ी, (सा) वह (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष के बीच (चतुर्धा) चार प्रकार [चारों दिशाओं में] (विक्रान्ता) विक्रम [पराक्रम] करती हुई (अतिष्ठत्) ठहरी ॥१॥
भावार्थ
उस ईश्वरशक्ति के पुरुषार्थ से आकाश में लोक-लोकान्तर उत्पन्न हुए हैं ॥१॥
टिप्पणी
१−(सा) विराट् (अन्तरिक्षे) आकाशे (चतुर्धा) चतुष्प्रकारेण। चतसृषु दिक्षु (विक्रान्ता) विक्रामयुक्ता, पराक्रमिणी (अतिष्ठत्) स्थितवती ॥
विषय
ऊर्छ, स्वधा, सूनुता, इरावती
पदार्थ
१. विराट् अवस्था उत्क्रान्त होकर, 'आमन्त्रण' तक पहुँचकर, सचमुच ('विराट्') = "विशिष्ट दीतिवाली' हो जाती है। (सा) = वह विराट् (उदक्रामत्) = उत्क्रान्त हुई और उन्नत होकर (सा) = वह (अन्तरिक्षे) = अन्तरिक्ष में (चतुर्धा) = चार प्रकार से (विक्रान्ता अतिष्ठत्) = विक्रमवाली होकर ठहरी, अर्थात् विशिष्ट दीप्तिवाली शासन-व्यवस्था होने पर सारे वातावरण में चार बातों का दर्शन हुआ, तब (ताम्) = उस विराट् को (देवमनुष्याः अब्रुवन्) = देव और मनुष्य, अर्थात् विद्वान् और सामान्य लोग बोले कि (इयम् एव) = यह विराट् ही (तत् वेद) = उस बात को प्राप्त कराती है, (यत् उभये उपजीवेम) = जिसके आधार से हम दोनों जीते हैं, अत: (इमाम् उपह्वयामहे इति) = इस विराट को हम पुकारते हैं। ज्ञानी व सामान्य लोग अनुभव करते हैं कि यह विराट्-विशिष्ट दीप्तिवाली राष्ट्र-व्यवस्था हमारे जीवनों के लिए आवश्यक पदार्थों को प्राप्त कराती है, अतः देव-मनुष्यों ने (ताम् उपाह्वयन्त) = उस विराट् को पुकारा। हे (ऊर्जे) = बल व प्राणशक्ति देनेवाली विराट् ! (एहि) = तू हमें प्राप्त हो । (स्वधे) = आत्मधारण-शक्तिवाली विराट् ! (एहि) = तू आ। सुनते-हे प्रिय, सत्यवाणि! तू (एहि) = आ और (इरावति) = अन्नवाली विराट् ! (एहि इति) = आओ ही।
भावार्थ
उत्क्रान्त विराट् स्थिति होने पर देव व मनुष्य अनुभव करते हैं कि अब हम 'बल व प्राणशक्ति-सम्पन्न बन पाएँगे, आत्मधारण के सामर्थ्यवाले होंगे, सर्वत्र प्रिय, सत्यवाणी का श्रवण होगा और सबके लिए अन्न सुलभ होगा।
भाषार्थ
[चतुर्धा विराट् = ऊर्जा, स्वधा, सूनृता, इरावती] (सा) वह विराट् (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (उदक्रामत्) उत्क्रान्त हुई, (सा) वह (चतुर्धा) चार प्रकार से (विक्रान्ता) विक्रम अर्थात् पराक्रम वाली हुई (अतिष्ठत) स्थित हुई।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह कि आमन्त्रण-संस्था वाली विराट् भूमण्डल में चारों दिशाओं में व्याप्त हो गई]।
इंग्लिश (4)
Subject
Virat
Meaning
Paryaya 2 Virat evolved further, rose into the sky, strode around in the four quarters and settled there in all its power.
Subject
Virat
Translation
She moved up. She stayed in the midspace divided fourfold.
Translation
That Virat rose up and that remained stationed in the firmament divided into four.
Translation
The glory of God arose and dividing herself four directions took her seat in the atmosphere.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(सा) विराट् (अन्तरिक्षे) आकाशे (चतुर्धा) चतुष्प्रकारेण। चतसृषु दिक्षु (विक्रान्ता) विक्रामयुक्ता, पराक्रमिणी (अतिष्ठत्) स्थितवती ॥
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