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अथर्ववेद के काण्ड - 8 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 1
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - आयुः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त
    2

    आ र॑भस्वे॒माम॒मृत॑स्य॒ श्नुष्टि॒मच्छि॑द्यमाना ज॒रद॑ष्टिरस्तु ते। असुं॑ त॒ आयुः॒ पुन॒रा भ॑रामि॒ रज॒स्तमो॒ मोप॑ गा॒ मा प्र मे॑ष्ठाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । र॒भ॒स्व॒ । इ॒माम् । अ॒मृत॑स्य । श्नुष्टि॑म् । अच्छि॑द्यमाना । ज॒रत्ऽअ॑ष्टि: । अ॒स्तु॒ । ते॒ । असु॑म्। ते॒ । आयु॑: । पुन॑: । आ । भ॒रा॒मि॒ । रज॑: । तम॑: । मा । उप॑ । गा॒: । मा । प्र । मे॒ष्ठा॒: ॥२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ रभस्वेमाममृतस्य श्नुष्टिमच्छिद्यमाना जरदष्टिरस्तु ते। असुं त आयुः पुनरा भरामि रजस्तमो मोप गा मा प्र मेष्ठाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । रभस्व । इमाम् । अमृतस्य । श्नुष्टिम् । अच्छिद्यमाना । जरत्ऽअष्टि: । अस्तु । ते । असुम्। ते । आयु: । पुन: । आ । भरामि । रज: । तम: । मा । उप । गा: । मा । प्र । मेष्ठा: ॥२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 8; सूक्त » 2; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    कल्याण की प्राप्ति का उपदेश।

    पदार्थ

    [हे मनुष्य !] (अमृतस्य) अमृत की (इमाम्) इस (श्नुष्टिम्) प्राप्ति को (आ) भली-भाँति (रभस्व) ग्रहण कर, (अच्छिद्यमाना) बिना कटती हुई (जरदष्टिः) स्तुति की व्याप्ति [फैलाव] (ते) तेरे लिये (अस्तु) होवे। (ते) तेरे (असुम्) बुद्धि और (आयुः) जीवन को (पुनः) बार-बार (आ) अच्छे प्रकार (भरामि) मैं पुष्ट करता हूँ, (रजः) रजोगुण और (तमः) तमोगुण को (मा उप गाः) मत प्राप्त हो और (मा प्र मेष्ठाः) मत पीड़ित हो ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्य प्रयत्नपूर्वक सत्त्वगुण के प्रतिबन्धक रजोगुण और हित-अहित ज्ञान के बाधक तमोगुण को छोड़कर सात्त्विक होकर जीवन को सफल करें ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(आ) समन्तात् (रभस्व) उपक्रमस्व। गृहाण (इमाम्) वक्ष्यमाणाम् (अमृतस्य) अमरणस्य। पुरुषार्थस्य (श्नुष्टिम्) अ० ३।१७।२। ष्णुसु आदाने-क्तिन्, छान्दसं रूपम्। प्राप्तिम् (अच्छिद्यमाना) अच्छेदनीया (जरदष्टिः) अ० २।२८।५। जॄ स्तुतौ-अतृन्+असु व्यातौ-क्तिन्। स्तुति-व्याप्तिः (अस्तु) (ते) तुभ्यम् (असुम्) प्रज्ञाम्-निघ० ३।९। (ते) तव (आयुः) जीवनम् (पुनः) बारं बारम् (आ) (भरामि) पोषयामि (रजः) सत्त्वगुणप्रतिबन्धकं रजोगुणम् (तमः) हिताहितविवेकबाधकं तमोगुणम् (मा उप गाः) इण् गतौ-लुङ् मा प्राप्नुहि (मा प्र मेष्ठाः) मीञ् हिंसायाम् लुङ्। हिंसां पीडां मा प्राप्नुहि ॥

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    विषय

    अमृत की श्नुष्टि

    पदार्थ

    १. (इमाम्) = इस (अमृतस्य श्नुष्टिम्) = [यज्ञशेषम् अमृतम्] यज्ञशेषरूप अमृत भोजन को (आरभस्व) = प्रारम्भ कर ['श्नुसु अदने'-जयदेव]-यज्ञशेष का सेवन करनेवाला बन। इस यज्ञशेष के सेवन से (ते) = तेरे लिए (अच्छिद्यमाना) = किन्हीं भी रोगादि से विच्छिन्न न की जाती हुई (जरदष्टिः अस्तु) = जरावस्था की प्राप्ति [अश् व्याप्ती] हो-तू पूर्ण जीवन को प्राप्त करनेवाला बन । २. (ते) = तुझे (असम्) = प्राण को तथा (आयु:) = दीर्घजीवन को (पुन: आभरामि) = फिर से प्राप्त कराता हैं। तु (रजः तम:) = रजोगुण व तमोगुण को (मा उपगा:) = समीपता से मत प्राप्त हो। तेरा झुकाव राजस् व तामस् न होकर सात्त्विक हो। 'प्रमाद, आलस्य व निद्रा' से जहाँ तू ऊपर उठे, वहाँ प्रतिक्षण की अशान्ति व तृष्णा से भी दूर हो। इसप्रकार तू (मा प्रमेष्ठा:) = हिंसा को मत प्राप्त हो।

    भावार्थ

    हम यज्ञशेष का सेवन करते हुए दीर्घजीवी बनें। राजस् व तामस् वृत्तियों से ऊपर उठकर हम हिंसित न हों।

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    भाषार्थ

    (आरभस्व = आलभस्व) प्राप्त कर (अमृतस्य) अमृत परमेश्वर की (इमाम्) इस (श्नुष्टिम्= प्रस्नुतिम१) प्रस्रवित हुई आनन्द रसमयी धारा को, ताकि (अच्छिद्यमाना) बिना कटी (जरदष्टिः) जरावस्था की प्राप्ति (ते) तुझे (अस्तु) हो। (ते) तेरे (असुम्) प्राण या प्रज्ञा (आयुः) तथा आयु को (पुनः) फिर (आ भरामि२) मैं वापिस लाता हूं। (रजस्तमः) रजोगुण और तमोगुण को (मा उपगाः) न प्राप्त हो, (मा प्रमेष्ठाः) और न हिंसित हो।

    टिप्पणी

    [यह उक्ति उपनीत माणवक के आचार्य की है। "रलयोरभेदः" द्वारा आरभस्व= आलभस्व। श्नुष्टिम्= प्रस्तुतिम् (सायण)। आभरामि= आहरामि, "हृग्रहोर्भश्च्छन्दसि" द्वारा हकार को भकार हुआ है।] [१. प्रस्तुतिम्= प्र + स्नु [ष्णु प्रस्रवणे, अदादिः] + तिप्= धाराम्। २. यह आचार्य का कथन है। ब्रह्मचारी यदि रुग्ण हो गया हो तो आचार्य का कर्तव्य है कि वह ब्रह्मचारी का रोगोपचार करे।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Long Life

    Meaning

    O man live and enjoy this nectar stream of life which, I pray, may be inviolable till maturity to the full. I bring you again life’s vitality of prana and full age of good health. Do not take to a life of dissolute pleasure, do not suffer the darkness of ignorance, and you must not die before the full span of hundred years of good health.

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    Subject

    Ayuh

    Translation

    Take hold of this stream of immortality; may unserved be your life-span unto old age. I infuse again life and longevity in you. Do not go to dust and darkness. May you not die.

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    Translation

    O men ! concert your effort to enjoy the pleasure of the full life (the life lasting hundred autumns), may the longevity of your life continue till mature old life without any break therein. I, the physician restore you your intelligence and life. You do not come in the grip of the tendency of misdeed and darkness of ignorance and do not die.

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    Translation

    O man, try to secure the enjoyment of this full life of a hundred years. Thine be longevity which nothing shortens. Thy spirit and thy life again I bring thee die not, shun luxury and ignorance!

    Footnote

    The verse is addressed to a sick person at the point of death. ‘I’ refers to a learned physician, or God.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(आ) समन्तात् (रभस्व) उपक्रमस्व। गृहाण (इमाम्) वक्ष्यमाणाम् (अमृतस्य) अमरणस्य। पुरुषार्थस्य (श्नुष्टिम्) अ० ३।१७।२। ष्णुसु आदाने-क्तिन्, छान्दसं रूपम्। प्राप्तिम् (अच्छिद्यमाना) अच्छेदनीया (जरदष्टिः) अ० २।२८।५। जॄ स्तुतौ-अतृन्+असु व्यातौ-क्तिन्। स्तुति-व्याप्तिः (अस्तु) (ते) तुभ्यम् (असुम्) प्रज्ञाम्-निघ० ३।९। (ते) तव (आयुः) जीवनम् (पुनः) बारं बारम् (आ) (भरामि) पोषयामि (रजः) सत्त्वगुणप्रतिबन्धकं रजोगुणम् (तमः) हिताहितविवेकबाधकं तमोगुणम् (मा उप गाः) इण् गतौ-लुङ् मा प्राप्नुहि (मा प्र मेष्ठाः) मीञ् हिंसायाम् लुङ्। हिंसां पीडां मा प्राप्नुहि ॥

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