अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
ऋषिः - अथर्वा
देवता - मधु, अश्विनौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - मधु विद्या सूक्त
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दि॒वस्पृ॑थि॒व्या अ॒न्तरि॑क्षात्समु॒द्राद॒ग्नेर्वाता॑न्मधुक॒शा हि ज॒ज्ञे। तां चा॑यि॒त्वामृतं॒ वसा॑नां हृ॒द्भिः प्र॒जाः प्रति॑ नन्दन्ति॒ सर्वाः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒व: । पृ॒थि॒व्या: । अ॒न्तरि॑क्षात् । स॒मु॒द्रात् । अ॒ग्ने: । वाता॑त् । म॒धु॒ऽक॒शा। हि । ज॒ज्ञे । ताम् । चा॒यि॒त्वा । अ॒मृत॑म् । वसा॑नाम् । हृ॒त्ऽभि: । प्र॒ऽजा: । प्रति॑ । न॒न्द॒न्ति॒ । सर्वा॑: ॥१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवस्पृथिव्या अन्तरिक्षात्समुद्रादग्नेर्वातान्मधुकशा हि जज्ञे। तां चायित्वामृतं वसानां हृद्भिः प्रजाः प्रति नन्दन्ति सर्वाः ॥
स्वर रहित पद पाठदिव: । पृथिव्या: । अन्तरिक्षात् । समुद्रात् । अग्ने: । वातात् । मधुऽकशा। हि । जज्ञे । ताम् । चायित्वा । अमृतम् । वसानाम् । हृत्ऽभि: । प्रऽजा: । प्रति । नन्दन्ति । सर्वा: ॥१.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
ब्रह्म की प्राप्ति का उपदेश।
पदार्थ
(दिवः) सूर्य से, (पृथिव्याः) पृथिवी से, (अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्ष [मध्यलोक] से, (समुद्रात्) समुद्र [जलसमूह] से, (अग्नेः) अग्नि से और (वातात्) वायु से (मधुकशा) मधुकशा [मधुविद्या अर्थात् वेदवाणी] (हि) निश्चय करके [जज्ञे] प्रकट हुई है। (अमृतम्) अमरण [पुरुषार्थ] की (वसानाम्) पहरनेवाली (ताम्) उस को (चायित्वा) पूजकर (सर्वाः) सब (प्रजाः) प्रजाएँ [जीव-जन्तु] (हृद्भिः) [अपने] हृदयों से (प्रति) प्रत्यक्ष (नन्दन्ति) आनन्द करते हैं ॥१॥
भावार्थ
विद्वान् लोग सूर्य, पृथिवी आदि कार्यपदार्थों से आदिकारण परमेश्वर की परम विद्वत्ता विचारकर आनन्दित होते हैं ॥१॥ मधु, उणादि १।१८। मन ज्ञाने-उ, न=ध। ज्ञान। कशा=वाक्-निघण्टु १।११ ॥ ऋग्वेद १।२२।३। में [मधुमती कशा] का वर्णन इस प्रकार है। या वां॒ कशा॒ मधु॑म॒त्यश्वि॑ना सू॒नृता॑वती। तया॑ य॒ज्ञं मि॑मिक्षतम् ॥ (अश्विना) हे शिक्षक और शिष्य ! (वाम्) तुम दोनों की (या) जो (मधुमती) मधुर गुणवाली, (सूनृतावती) प्रिय सत्य बुद्धिवाली (कशा) वाणी है, (तया) उससे (यज्ञम्) यज्ञ [श्रेष्ठ व्यवहार] को (मिमिक्षतम्) तुम दोनों सींचने की इच्छा करो ॥
टिप्पणी
१−(दिवः) सूर्यात् (पृथिव्याः) भूमेः (अन्तरिक्षात्) मध्यलोकात् (समुद्रात्) जलौघात् (अग्नेः) पावकात् (वातात्) वायोः (मधुकशा) फलिपाटिनमिमनि०। उ० १।१८। मन ज्ञाने-उ, नस्य धः+कश गतिशासनयोः-पचाद्यच्, टाप्। कशा=वाक्-निघ० १।११। ज्ञानवाणी। मधुविद्या वेदवाणी (हि) अवधारणे (जज्ञे) प्रादुर्बभूव (ताम्) मधुकशाम् (चायित्वा) पूजयित्वा (अमृतम्) अमरणम्। पुरुषार्थम् (वसानाम्) आच्छादयन्तीम्। धारयन्तीम् (हृद्भिः) हृदयैः (प्रजाः) जीवजन्तवः (प्रति) प्रत्यक्षम् (नन्दन्ति) हर्षन्ति (सर्वाः) समस्ताः ॥
विषय
मधुकशा
पदार्थ
१. 'कशा' वाणी का नाम है। सारभूत मधुरज्ञान को 'मधु' कहा गया है। वेदवाणी मधुकशा है। यह सारभूत ज्ञान देनेवाली है। इस ज्ञान को प्रास करके प्रभु-दर्शन करनेवाला 'अथर्वा' प्रथम दो सूक्तों का ऋषि है। यह (मधुकशा) = वेदवाणी (दिवः पृथिव्याः अन्तरिक्षात्) = द्युलोक, पृथिवीलोक तथा अन्तरिक्षलोक के हेतु से-इन सबका ज्ञान प्रास कराने के हेतु से (समुद्रात् अग्नेः वातात्) = समुद्र, अग्नि व वायु के हेतु से-इन सबका तात्त्विक ज्ञान देने के हेतु से (हि) = निश्चय से (जज्ञे) = प्रादुर्भूत हुई है। प्रभु इसका प्रकाश सब लोक-लोकान्तरों के ज्ञान के हेतु से करते हैं। २. (ताम्) = उस (अमृतं वसानाम्) = अमृतत्त्व [नीरोगता] को अपने द्वारा आच्छादित करनेवाली नीरोगता प्राप्त करानेवाली वेदवाणी को (चायित्वा) = [चाय पूजानिशामनयोः] सुनकर-इसके ज्ञान का श्रवण करके (सर्वाः प्रजा:) = सब प्रजाएँ (हृद्भिः प्रतिनन्दन्ति) = हृदयों से आनन्दित होती हैं। यह वेदवाणी हृदयों में उन्नास पैदा करती है।
भावार्थ
यह वेदवाणी सब लोकों और लोकस्थ सब पदार्थों का ज्ञान देकर हमें नीरोगता ब अमरता प्रास कराती है। यह हृदयों में उल्लास पैदा करती है।
भाषार्थ
[वैतानसूत्र (१६।१२) में सूक्त १ को मधुसूक्त कहा है। सूक्त १ में "मधुकशा" का भी वर्णन है। "मधुकशा" के निम्नलिखित अर्थ हैं, (२) मधुर (मीठी) + कशा (चाबुक), यथा “अश्वाजर्नी कशेत्याहुः। कशा प्रकाशयति भयमश्वाय" (निरु० ९।२। खं० १९, पद १५) । (२) मधु (उदक), + कशा (चाबुक)= मेघीय विद्युत्। मधु उदकनाम (निघं० १।१२)। (३) मधु (मीठी) + कशा। वाक् = मधुमयी वेदवाणी। कशा वाङ्नाम (निघं० १।११)। मन्त्रों में मुख्यरूप में "मधुकशा" द्वारा "पारमेश्वरी माता" का वर्णन हुआ है। इसकी कशा अर्थात् चाबुक है "कर्मफलव्यवस्था"। यह व्यवस्था मीठी है, मधु है, तत्काल कठोर दण्डप्रदा नहीं, अपितु इस व्यवस्था में संस्काररूप में दण्ड का संचय होता रहता है, और परिपक्व हो कर उग्रावस्था में अभिव्यक्त होता है। पारमेश्वरी माता नानाविध भोग्य पदार्थों के प्रदान द्वारा जीवनों को मधुर बनाए रखती है। जैसे कि मानुषी माता बच्चे का लालन करती हुई मधुरूप होती है, और ताड़ना करती हुई चाबुक रूप होती है, अर्थात् मीठी चाबुक रूप। क्योंकि वह हृदय से प्रेम वाली होती हुई ही ताड़ना करती है। मन्त्रों में विद्युत् तथा वेदवाणी का वर्णन भी लक्षित होता है। व्याख्या में इन अर्थों की भी यथोचित योजना मुख्यार्थ में की गई है।]। (दिवः पृथिव्याः) द्युलोक से, पृथिवी से, (अन्तरिक्षात्) अन्तरिक्ष से, (समुद्रात्) समुद्र से (अग्ने) अग्नि से, (वातात्) वायु से (हि) वस्तुतः (मधुकशा) मीठी-चाबुक रूपी पारमेश्वरी माता (जज्ञे) प्रादुर्भूत होती है। (अमृतम् वसानाम्) अमृतत्व की ओढ़नी ओढ़े हुई, या अमृत जीवात्मा में बसी हुई (ताम्) उस का (चायित्वा) दर्शन कर के (सर्वाः प्रजाः) सभी प्रजाएं (हृद्भिः) हृदयों द्वारा (प्रतिनन्दन्ति) प्रसन्न होती हैं।
टिप्पणी
[हृद्भिः= अथवा "हृद्भिः चायित्वा" = हृदयों द्वारा दर्शन करके, प्रत्यक्ष कर के। द्युलोक आदि पारमेश्वरी माता से पैदा हुए हैं। इन कार्यों द्वारा कर्त्ता का परिज्ञान होता है, परन्तु उस का दर्शन तो हृदयरूपी आंखों द्वारा ही होता है। चायित्वा=चायृ पूजा निशामनयोः। निशामनम् =seeing sight beholding (आप्टे)।]
इंग्लिश (4)
Subject
Madhu Vidya
Meaning
This Sukta is the song of Madhu-kasha, ‘honeyed goad’, that passion and discipline of life and living which is an integration of love and law, passion and patience, urge and awareness, in short, a balance of Shreya and Preya, the true, the good and the beautiful for self-perfection under the divine dispensation. Madhu is honey sweet, kasha is the goad, the electric charge that breaks the cloud to shower in full force, also the divine voice of Veda, and Mother Nature’s invitation to live fully unto perfection. From heaven and earth, from skies and the sea, from fire and wind, arises the Mother’s Message, the urge to live and be, sweet and sour both. Having seen her, wrapped in immortal nectar, all her children are struck with love and awe, they feel inspired and rejoice at heart in spontaneous response.
Subject
Madhu, Madhu Kasa, Asvinau
Translation
Surely from heaven, from earth, from midspace, from ocean, from fire and from wind the honey-string (Madhukasa) is born. Knowing her to be the bestower of immortality, all the creatures are delighted in their hearts to meet her.
Translation
[N. B. This hymn is concerned with Madhukasha. while the subject-matter is Madn and Ashvinau. What is this Madhukasha? Madhu stands for knowledge whether be spiritual, scientific or of any other branch. Kasha is read in the names of Vak, the speech. Here Kasha seems to mean speech. The speech full of Knowledge is Madhukasha. But in some verses Madh stands for its ordinary meaning. Further it can be said that Kasha means whip. This Whip belongs to Ashvinau, the earth and heaven day and night, redish and yellow light before the dawn etc. But what is this Kasha or Whip. Here Kash is to mean Gati. Thus etymologically here means breae or the light before dawn which enlivens, vivifies ad quickens, creative energy and activity. Therefore Madhukasha is the sweet breeze of Ashvinau.] Madhukasha, the speech was, born from heavely region from the earth, from firmament from ocean, from fire and, air. All the living [creatures with their Joyful hearts a welcome this which contains nectar gathered in it.
Translation
The glory of Vedic knowledge is obvious from heaven, earth, middle air, ocean, fire and wind. Adoring that knowledge fraught with immortality, all living creatures derive joy in their hearts.
Footnote
The Vedas expatiate on the beauty of heaven, earth, fire, wind and water etc.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(दिवः) सूर्यात् (पृथिव्याः) भूमेः (अन्तरिक्षात्) मध्यलोकात् (समुद्रात्) जलौघात् (अग्नेः) पावकात् (वातात्) वायोः (मधुकशा) फलिपाटिनमिमनि०। उ० १।१८। मन ज्ञाने-उ, नस्य धः+कश गतिशासनयोः-पचाद्यच्, टाप्। कशा=वाक्-निघ० १।११। ज्ञानवाणी। मधुविद्या वेदवाणी (हि) अवधारणे (जज्ञे) प्रादुर्बभूव (ताम्) मधुकशाम् (चायित्वा) पूजयित्वा (अमृतम्) अमरणम्। पुरुषार्थम् (वसानाम्) आच्छादयन्तीम्। धारयन्तीम् (हृद्भिः) हृदयैः (प्रजाः) जीवजन्तवः (प्रति) प्रत्यक्षम् (नन्दन्ति) हर्षन्ति (सर्वाः) समस्ताः ॥
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