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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 10 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - गौः, विराट्, अध्यात्मम् छन्दः - जगती सूक्तम् - आत्मा सूक्त
    4

    यद्गा॑य॒त्रे अधि॑ गाय॒त्रमाहि॑तं॒ त्रैष्टु॑भं वा॒ त्रैष्टु॑भान्नि॒रत॑क्षत। यद्वा॒ जग॒ज्जग॒त्याहि॑तं प॒दं य इत्तद्वि॒दुस्ते अ॑मृत॒त्वमा॑नशुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । गा॒य॒त्रे । अधि॑ । गा॒य॒त्रम् । आऽहि॑तम् । त्रैस्तु॑भम् । वा॒ । त्रैस्तु॑भात् । नि॒:ऽअत॑क्षत । यत् । वा॒ । जग॑त् । जग॑ति । आऽहि॑तम् । प॒दम् । ये । इत् । तत् । वि॒दु: । ते । अ॒मृ॒त॒ऽत्वम् । आ॒न॒शु॒: ॥१५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्गायत्रे अधि गायत्रमाहितं त्रैष्टुभं वा त्रैष्टुभान्निरतक्षत। यद्वा जगज्जगत्याहितं पदं य इत्तद्विदुस्ते अमृतत्वमानशुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । गायत्रे । अधि । गायत्रम् । आऽहितम् । त्रैस्तुभम् । वा । त्रैस्तुभात् । नि:ऽअतक्षत । यत् । वा । जगत् । जगति । आऽहितम् । पदम् । ये । इत् । तत् । विदु: । ते । अमृतऽत्वम् । आनशु: ॥१५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    जीवात्मा और परमात्मा के लक्षणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) क्योंकि (गायत्रम्) स्तुति करनेवालों का रक्षक [ब्रह्म] (गायत्रे) स्तुति योग्य गुण में (अधि) ऐश्वर्य के साथ (आहितम्) स्थापित है, (वा) और (त्रैष्टुभम्) तीन [सत्त्व, रज और तम] के बन्धनवाले [जगत्] को (त्रैष्टुभात्) तीन [ऋषियों ने] पृथक् किया है। (वा) और (यत्) क्योंकि (जगत्) जानने योग्य (पदम्) प्रापणीय [मोक्षपद] (जगति) संसार के भीतर (आहितम्) स्थापित है, (ये इत्) जो ही [पुरुष] (तत्) उस [ब्रह्म] को (विदुः) जानते हैं, (ते) उन्होंने (अमृतत्वम्) अमरपन (आनशुः) पाया है ॥१॥

    भावार्थ

    संसार के भीतर परमात्मा अपने गुणों से सर्वव्यापक है, जो योगी जन उसे साक्षात् करते हैं, वे मोक्ष के भागी होते हैं ॥१॥ मन्त्र १-८ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं-म० १।१६४।२३−३० ॥

    टिप्पणी

    १−(यत्) यस्मात् कारणात् (गायत्रे) अमिनक्षियजि० उ० ३।१०५। गै गाने-अत्रन्, स च णित्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति-युक्। गायत्रं गायतेः स्तुतिकर्मणः, निरु० १।८। स्तुत्ये गुणे (अधि) ऐश्वर्ये (गायत्रम्) गै गाने-शतृ+त्रैङ् पालने-क, तलोपः। गायतां रक्षकं ब्रह्म (आहितम्) धृतम् (त्रैष्टुभम्) त्रि+ष्टुभ निरोधे−क्विप् सम्पदादिः, ततोऽण्। त्रयाणां सत्त्वरजस्तमसां स्तोभनं बन्धनं यस्मिन् तज् जगत् (वा) समुच्चये (त्रैष्टुभात्) स्तोभतिरर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। त्रि+ष्टुभ पूजायाम्−क्विप्, ततः प्रज्ञाद्यण्। त्रिभिः कर्मोपासनाज्ञानैः पूजितात् परब्रह्मणः (निरतक्षत) तक्षतिः करोतिकर्मा-निरु० ४।१९ प्रथमपुरुषस्य मध्यमः। निरतक्षन्। पृथक् कृतवन्तः (यत्) यस्मात् (वा) समुच्चये (जगत्) गन्तव्यं ज्ञातव्यम् (जगति) संसारे (आहितम्) (पदम्) प्रापणीयं मोक्षपदम् (ये) विद्वांसः (इत्) एव (तत्) ब्रह्म (विदुः) जानन्ति (ते) (अमृतत्वम्) अमरत्वं मोक्षसुखम् (आनशुः) प्राप्तवन्तः ॥

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    विषय

    तीन बातों को समझना

    पदार्थ

    १. पहली बात यह है (यत्) = कि (गायत्रे) = यज्ञ में [गायत्रो वै यज्ञः-गो०पू० ४.२४] (गायत्रम्) = पुरुष [गायत्रो वै पुरुषः-ए० ४.३] (अधि आहितम्) = अधीन करके रक्खा गया है। पुरुष का जीवन यज्ञ पर आश्रित है। यज्ञ के अभाव में पुरुष नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगा। (अयं यज्ञो भुवनस्य नाभिः') = यह यज्ञ ही भुवन का केन्द्र है। २. (वा) = और (त्रैष्टुभात) = त्रिवेद-विद्या के स्तवन के द्वारा अपने में 'ज्ञान, कर्म व उपासना'-इन तीनों को स्थिर करने के द्वारा (त्रैष्टुभ निरतक्षत) = अपने जीवन को तीनों सुखों से सम्बद्ध किया करते हैं। ज्ञानपूर्वक कर्मों को करने के द्वारा प्रभ के उपासन से आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक'-इन तीनों तापों से निवृत्त होकर [त्रिष्टुभ] मानव जीवन तीन सुखों से सम्बद्ध होता है। [त्रैष्टुभः त्रिभिः सुखैः सम्बद्धः-द०, त्रिवेदविद्यास्तवनेन-द०]। ३. तीसरी बात यह है (यत्) = कि (वै) = निश्चय से जगत्-सर्वत्र गतिवाला (पदम्) = मुनियों से जाए जाने योग्य वह प्रभु (जगति आहितम्) = सारे ब्रह्माण्ड में-कण-कण में आहित हैं। (ये) = जो (इत्) = निश्चय से (तत् विदुः) = उस कण-कण में वर्तमान प्रभु को जानते हैं, (ते) = वे (अमृतत्वम् आनशुः) = मोक्ष को प्राप्त करते हैं।

    भावार्थ

    मोक्ष को वे ही प्राप्त करते हैं जोकि यह समझ लेते हैं कि १. यज्ञ में ही पुरुष का जीवन निहित है, २. ज्ञान, कर्म व उपासना का समन्वय ही त्रिविध दुःखों को रोकता है तथा ३. वे गतिशील मुनियों से गम्य प्रभु ब्रह्माण्ड के कण-कण में विद्यमान हैं।

     

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    भाषार्थ

    (गायत्रे अधि) गायत्री छन्द वाले मन्त्र में (गायत्रम्) स्तुतिगाने वाले की रक्षा करने वाला (यत्) जो (पदम्१) ओ३म् पद वाच्य ब्रह्म (आहितम्) स्थित या कथित है, (त्रैष्टुभात् वा) अथवा त्रिष्टुप् छन्द वाले मन्त्र में (त्रैष्टुभम्) तीनों लोकों में अर्चनीय जिस ओ३म् पद वाच्य ब्रह्म के स्वरूप का परिज्ञान प्राप्त करते हैं, (वा) अथवा (यत्) जो (जगत् पदम्) सर्वगत ओ३म्-पद वाच्य ब्रह्म (जगति२) जगत् या जगती छन्द में (आहितम्) स्थित है, (तद्) उसे (ये इत्) जो (विदुः) जानते हैं (ते) वे (अमृतत्वम्) मोक्ष को (आनशुः) प्राप्त करते हैं३। (ऋ० १।१६४।२३)

    टिप्पणी

    [मन्त्र में गायत्री, त्रिष्टुप् और जगती - इन तीन छन्दों का वर्णन हुआ है। निरुक्त४ में गायत्री छन्द का सम्बन्ध अग्नि के साथ, -जो कि पृथिवी का देवता है- माना है, तथा त्रिष्टुप् छन्द का सम्बन्ध इन्द्र के साथ जो कि अन्तरिक्ष का देवता है,-माना है, और जगती, छन्द का सम्बन्ध आदित्य के साथ, जो कि द्युलोक का देवता है,-माना है। इस प्रकार इन तीन छन्दों को वेदों के मुख्य छन्द कहते हैं। इसलिये व्याख्येय मन्त्र में इन्हीं तीन छन्दों के साथ ब्रह्म का वर्णन हुआ है। त्रैष्टुभम् = त्रि + स्तोभति अर्चतिकर्मा (निघं० ३।१)] [१. सर्वे वेदा यत पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति। यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्य चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् ।। (कठ० उप० २।१५)। २. मन्त्रपठित 'जगत्याहितम्' के द्विविध पदच्छेद सम्भव हैं। जगति आहितम्, तथा जगती आहितम्। ३. सूक्त १० के मन्त्रों के अर्थ, ऋ० मण्डल १, सूक्त १६४ में व्याख्यात मन्त्रों के आधार पर प्रायः किये हैं (देखो महर्षि दयानन्द भाष्य)। ४. निरुक्त (७।३।८-११)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Spiritual Realisation

    Meaning

    Those sages attain to that highest immortal state of imperishable bliss and freedom of Moksha who know and realise that divine power and protective presence which is celebrated in the Gayatri verses through the Gayatri metre. That presence is the Spirit which is distilled into the soul from Trishtup verses of the Veda and from the triple world of earth, middle regions and the heavens through knowledge, action and meditation. That same Spirit energises the Jagati verses of the Veda and vibrates in the moving universe and that alone the moving universe too vibrates in living existence. (That highest state of Being, that Pada, is Aum, as stated in Kathopanishad, 1, 2, 15 and Gita, 8, 11-13.)

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    Subject

    Gauh - Virät - Adhyätmam

    Translation

    The basic metre are three - Gayatri(24), Tristubha (44) and Jagati (48 syllables). On Gayatri is the support of Gayatra, on Tristubha is the support of Traistubha and on Jarati is the support of Jagati. Those persons who know this secret know immortality. (Aso Rg.I.164.23)

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    Translation

    [N.B. : In this hymn the mystery of the cosmic order has been exploded,. The world has a very close chanection with the vedic words, Chandas and samans. The world order has been maintained by the Lord of the universe with the Vedic terms Chanda etc. Says Vyasa, in his treatise called as the Brahmasutra-Atah prablanat, ie this world is created by the Lord of Universe with the Vedic words. The commentators of this Brahmasutra refer to the Mantra of Samveda (IV.20, 10, 1) which also happens in the Rigveda—Ate asri-gramindavah etc. In this quoted verse it has been said that with the words of-these veres the Lord of the universe created the worldly objects.] Taithriya Brahmana says—Bhurititi Vai prajapatih imanajanayat Bhva it anterikhaam etc (2/2/4/2) i.e-the Lord of the universe thought in his mind the term Bauh and, created this earth and respectively in this way created the firmament and heavenly region with the words Bhuvah and svah. Thus this hymn describes this fact very beautifully.] [Whatever is Gayatri, the fire etc was based on the Gayatra, the Gayatri meter—whatever was Traistubha, the air etc was created from Tristubh; whatever was called jagat. the heavenly region was based on jagati metre; those who know this mystery attain immortality, i. e. salvation.

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    Translation

    Soul is dependent on God. The organs rest on the soul. The strength of 48 years celibacy resides in Aditya Brahmcharis. They who know this secret enjoy the immortal life of salvation.

    Footnote

    Aditya Brahmcharis: They who observe celibacy for 48 years. The first eight verses of this hymn are found with some variation in Rigveda, 1-164-23-3011.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(यत्) यस्मात् कारणात् (गायत्रे) अमिनक्षियजि० उ० ३।१०५। गै गाने-अत्रन्, स च णित्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। इति-युक्। गायत्रं गायतेः स्तुतिकर्मणः, निरु० १।८। स्तुत्ये गुणे (अधि) ऐश्वर्ये (गायत्रम्) गै गाने-शतृ+त्रैङ् पालने-क, तलोपः। गायतां रक्षकं ब्रह्म (आहितम्) धृतम् (त्रैष्टुभम्) त्रि+ष्टुभ निरोधे−क्विप् सम्पदादिः, ततोऽण्। त्रयाणां सत्त्वरजस्तमसां स्तोभनं बन्धनं यस्मिन् तज् जगत् (वा) समुच्चये (त्रैष्टुभात्) स्तोभतिरर्चतिकर्मा-निघ० ३।१४। त्रि+ष्टुभ पूजायाम्−क्विप्, ततः प्रज्ञाद्यण्। त्रिभिः कर्मोपासनाज्ञानैः पूजितात् परब्रह्मणः (निरतक्षत) तक्षतिः करोतिकर्मा-निरु० ४।१९ प्रथमपुरुषस्य मध्यमः। निरतक्षन्। पृथक् कृतवन्तः (यत्) यस्मात् (वा) समुच्चये (जगत्) गन्तव्यं ज्ञातव्यम् (जगति) संसारे (आहितम्) (पदम्) प्रापणीयं मोक्षपदम् (ये) विद्वांसः (इत्) एव (तत्) ब्रह्म (विदुः) जानन्ति (ते) (अमृतत्वम्) अमरत्वं मोक्षसुखम् (आनशुः) प्राप्तवन्तः ॥

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