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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - अतिथिः, विद्या छन्दः - आसुरी गायत्री सूक्तम् - अतिथि सत्कार
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    यत्क्ष॒त्तारं॒ ह्वय॒त्या श्रा॑वयत्ये॒व तत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । क्ष॒त्तार॑म् । ह्वय॑ति । आ । श्रा॒व॒य॒ति॒ । ए॒व । तत् ॥११.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यत्क्षत्तारं ह्वयत्या श्रावयत्येव तत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । क्षत्तारम् । ह्वयति । आ । श्रावयति । एव । तत् ॥११.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 6; पर्यायः » 6; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    अतिथि के सत्कार का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) जब वह [अतिथि] (क्षत्तारम्) कष्ट से तारनेवाले [धर्मात्मा गृहस्थ] को (ह्वयति) बुलाता है, (तत्) तब वह [अतिथि] (एव) निश्चय करके (आ श्रावयति) आदेश सुनाता है ॥१॥

    भावार्थ

    अतिथि लोग गृहस्थों के पास परोपकार में सहायता के लिये आते हैं ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(यत्) यदा (क्षत्तारम्) अ० ३।२४।७। क्षतः क्षतात् तारकं धर्मात्मानं गृहस्थम् (ह्वयति) आह्वयति (आश्रावयति) आदिशति स्वप्रयोजनम् (एव) (तत्) तदा ॥

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    विषय

    'गृहपति-क्षत्ता तथा परिवेष्टा लोगों' का यज्ञ

    पदार्थ

    १. (यत्) = जब यह आतिथ्य करनेवाला पुरुष (क्षत्तारम्) = [An attendant, the manager of a treasure] सेबक वा कोठारी को (ह्वयति) = बुलाता है, तब मानो (तत्) = उस समय (अध्वर्यु) = कर्म में (आश्रावयति एव) = आश्रवण ही कराता है। (यत् प्रतिभृणोति) = जब कोठारी उसकी आज्ञा स्वीकार करता है, तब मानो (तत्) = वह (प्रतिश्श्रावयति एव) = आध्वर्यवकाण्ड का प्रत्याशावण करता है। २. (यत्) = जो (परिवेष्टार:) = रसोई परोसनेवाले लोग (पात्रहस्ता:) = हाथ में भोजन के पात्र लिये हुए (पूर्वे च अपरे च) = आगे और पीछे (अवपद्यन्ते) = आ पहुँचते हैं, (चमसाध्वर्यवः एव ते) = वे मानो चमसा लिये हुए यज्ञ के चमसाध्वर्यु लोग ही हैं, (तेषाम्) = उनमें से (कश्चन) = कोई भी (अहोता न) = आहुति न देनेवाला नहीं होता।

    भावार्थ

    अतिथि-सत्कार के समय 'गृहपति, उसका क्षत्ता तथा परिवेष्टा लोग' भी मानो हवि की आहुति ही दे रहे होते है, अतः अतिथि-सत्कार ही इनका यज्ञ हो जाता है।

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    भाषार्थ

    अतिथिपति (यत्) जो (क्षत्तारम्) क्षत्ता को (हूयति) बुलाता है (तत्) वह (आश्रावयति एव) वह यज्ञिय आश्रावण ही करता है।

    टिप्पणी

    [क्षता१= व्रीहि से तण्डुल तय्यार कर, उन का परिपाक करने वाला सेवक। उपोह और समूह को "क्षत्तारौ" कहा है (अथर्व० ३।२४।७)। उपोह = उप + वह (प्रापणे) अर्थात् धान्य आदि प्राप्त कराने वाला, तथा समूह = सम् + वह अर्थात् प्राप्त धान्य आदि का संग्रह करने वाला। इन दो को क्षत्तारौ कहा है। अतः मन्त्र १ में क्षत्ता, ओदन तय्यार करने वाला सेवक प्रतीत होता है। यज्ञिय आश्रावण अर्थात् बुलाने में, अध्वर्यु आश्रावण करता है अग्नीध् का अर्थात् अध्वर्यु बुलाता है अग्नीध को। अग्नीध्= अग्नि को प्रदीप्त करने वाला ऋत्विक्] [१. क्षत्ता= धान्य को "क्षत्" करके, क्षुषा के कष्टों से "तैराने" वाला। क्षत् + तृ (संतरणे)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Atithi Yajna: Hospitality

    Meaning

    Paryaya 6 When the host calls upon the cook, it is the Adhvaryu calling upon the Agnidh to the yajna.

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    Subject

    Atithih-Vidya

    Translation

    When he (the host) summons the distributor, he is. as if, making the ejaculatory call (e.g. Om, svaha etc.) (Sravayati).

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    Translation

    1+2+3+4. The host serving guest when summons the door-keeper or the keeper of the store does the performance of Ashravana. When the door-keeper gives his reply of consent, treated to be performing the procedure of Pratyasravana. When the foremost and hindmost attendants with pots in their hands come in they are treated to be Chamsadhvaryava. The priests holding Chamasa. Not one of them is incompetent in offering oblation.

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    Translation

    When the guest summons the householder, the fulfiller of his wants, he verily gives Vedic instruction.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(यत्) यदा (क्षत्तारम्) अ० ३।२४।७। क्षतः क्षतात् तारकं धर्मात्मानं गृहस्थम् (ह्वयति) आह्वयति (आश्रावयति) आदिशति स्वप्रयोजनम् (एव) (तत्) तदा ॥

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