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अथर्ववेद के काण्ड - 9 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
    ऋषिः - ब्रह्मा देवता - गौः छन्दः - आर्ची बृहती सूक्तम् - गौ सूक्त
    3

    प्र॒जाप॑तिश्च परमे॒ष्ठी च॒ शृङ्गे॒ इन्द्रः॒ शिरो॑ अ॒ग्निर्ल॒लाटं॑ य॒मः कृका॑टम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒जाऽप॑ति: । च॒ । प॒र॒मे॒ऽस्थी । च॒ । शृङ्गे॒ इति॑ । इन्द्र॑: । शिर॑: । अ॒ग्नि: । ल॒लाट॑म् । य॒म: । कृका॑टम् ॥१२.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रजापतिश्च परमेष्ठी च शृङ्गे इन्द्रः शिरो अग्निर्ललाटं यमः कृकाटम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रजाऽपति: । च । परमेऽस्थी । च । शृङ्गे इति । इन्द्र: । शिर: । अग्नि: । ललाटम् । यम: । कृकाटम् ॥१२.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 9; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सृष्टि की धारणविद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (प्रजापतिः) प्रजापति [प्रजापालक] (च) और (परमेष्ठी) परमेष्ठी [सब से उच्च पदवाला परमेश्वर] (च) निश्चय करके (शृङ्गे) दो प्रधान सामर्थ्य [स्वरूप है], [इसी कारण से सृष्टि में] (इन्द्रः) सूर्य (शिरः) शिर, (अग्निः) [पार्थिव] अग्नि (ललाटम्) माथा, (यमः) वायु (कृकाटम्) कण्ठ की सन्धि [के समान है] ॥१॥

    भावार्थ

    परमेश्वर में दो प्रधान शक्तियाँ हैं, एक प्रजा अर्थात् सृष्टि की रक्षा और दूसरी परमेष्ठिता अर्थात् सर्वशक्तिमत्ता। इसी से दूरदर्शी जगदीश्वर ने सृष्टि में सूर्य, अग्नि, वायु आदि पदार्थ ऐसे उपयोगी बनाये हैं, जैसे उसने हमारे शरीर में शिर, माथा, गला आदि उपयोगी अङ्ग रचे हैं ॥१॥

    टिप्पणी

    १−(प्रजापतिः) प्रजापालकः परमेश्वरः (च) समुच्चये (परमेष्ठी) अ० १।७।२। सर्वोत्तमपदस्थः सर्वशक्तिमान् परमात्मा (च) अवधारणे (शृङ्गे) अ० ८।३।२४। द्वे प्राधान्ये (इन्द्रः) सूर्यः (शिरः) मस्तकरूपः (अग्निः) पार्थिवाग्निः (ललाटम्) लल ईप्सायाम्-अच्+अट गतौ-अण्, ललमीप्सामटति ज्ञापयतीति। कपालः (यमः) मध्यस्थानदेवता यमो यच्छतीति सतः-निरु० १०।१९। वायुः (कृकाटम्) कृक+अट गतौ-अण्। कृकं गलमटतीति। कण्ठसन्धिः। कृकाटिका ॥

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    विषय

    प्रजापति से घर्म तक

    पदार्थ

    १. वेदधेनु के विराट् शरीर की यहाँ कल्पना की गई है। इस वेदवाणी में उस प्रभु का वर्णन है जोकि सब देवों के अधिष्ठान हैं-('ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः')। = सब देवों को इस गौ के विराट् शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग में दिखलाते हैं। प्(रजापतिः च परमेष्ठी च शृंगे) = प्रजापति और परमेष्ठी दोनों इस गौ के सींग है, (इन्द्रः शिर:) = इन्द्र सिर है, (अग्निः ललाटम्) = अग्नि ललाट है, (यमः कृकाटम्) = यम गले की घंटी है। २. (सोमः राजा मस्तिष्क:) = सोम राजा उसका मस्तिष्क है, (द्यौः उत्तरहनु:) = धुलोक उसका ऊपर का जबड़ा है, (पृथिवी अधरहनुः) = पृथिवी उसका नीचे का जबड़ा है। ३. (विद्युत् जिह्वा) = विद्युत् उसकी जिला है। (मरुतः दन्त:) = मरुत् [वायुएँ] उसके दाँत हैं, (रेवती: ग्रीवा:) = रेवतीनक्षत्र उसकी गर्दन है, (कृत्तिकाः स्कन्धा:) = कृत्तिका नक्षत्र कन्धे हैं और (धर्मः वहः) = प्रकाशमान् सूर्य व ग्रीष्मऋतु उसके ककुद के पास का स्थान है।

    भावार्थ

    वेदवाणी में 'प्रजापति परमेष्ठी' के प्रतिपादन के साथ 'इन्द्र, अग्नि, यम, सोम, द्यौ, पृथिवी, विद्युत, वायु, रेवती व कृत्तिका आदि नक्षत्र व धर्म' का ज्ञान उपलभ्य है।

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    भाषार्थ

    (प्रजापतिः च) उत्पत्तियों का पति मेघ, (परमेष्ठी च) और परमस्थान में स्थित सूर्य (शृङ्गे) दो सींग हैं, (इन्द्रः) विद्युत्१ (शिरः) सिर है, (अग्निः) अग्नि (ललाटम्) माथा है, (यम) यम (कृकाटम्) ग्रीवास्थियां हैं।

    टिप्पणी

    [इस मन्त्र और आगामी मन्त्रों में विश्व के घटकों और गौ के अवयवों तद्रूपता अर्थात् तादात्म्य का वर्णन हुआ है। विश्व के घटकों को उद्देशरूप में माना है, और गौ के अवयवों को विधेयरूप में। अतः विश्व को गोरूप कहा है, नकि गौ को विश्वरूप। “इन्द्र" अन्तरिक्षस्थानी है (निरुक्त ७।२।५)। अतः यह विद्युत् है। प्रजापतिः, परमेष्ठी= शृङ्गे, इन्द्रः = शिरः, अग्निः= ललाटम्, यमः= कृकाटम्। शृङ्ग आदि उत्तरोत्तर अङ्ग, गौ के क्रमिक अंग हैं। कृकाट से सुषुम्णा नाड़ी का प्रारम्भ होता है। यह नाड़ी समग्र शरीर का नियमन करती है, अतः यम है। इसी प्रकार प्रजापति आदि में क्रमिकता है। छन्दोदृष्ट्या प्रजापति को परमेष्ठी से पूर्व रखा है। क्रम निम्नरूप जानना चाहिये। परमेष्ठी, प्रजापतिः, इन्द्रः, अग्निः [पार्थिव], और यमः [पृथिवी पर होने वाले जन्म-मृत्यु का अधिष्ठाता] सुषुम्णा नाड़ी के बिगड़ जाने से मृत्यु हो जाती है, अतः यह मृत्युरूप भी है।] [१. विद्युत् सर्वजगद् व्यापिनी है, अत: सब के लिये शिरोरूप है। परन्तु प्रकट होती है वर्षाकाल में अन्तरिक्ष में, इसलिये निरुक्त में इसे अन्तरिक्षस्थ कहा है। इसका वर्णन सूक्त ७ में त्रिविध रूप में हुआ है, (१) अप्रकट रूप में अन्तरिक्ष में। (२) कड़कड़ाती हुई मेघ में, इस रूप में इसे जिह्वा कहा है (मन्त्र ३)। जिह्वा भी बोलती है, मानो कड़कड़ाती है, मुख में। (३) लहररूप में गतिशीला। इस तीसरे रूप में इसे श्येन कहते हैं (मन्त्र ५)। मेघों में विद्युत् लहर रूप में चमकती है।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Cow: the Cosmic Metaphor

    Meaning

    Prajapati, the Divine Power that sustains the forms of life, and Parameshthi, the Supreme Presiding Presence, these are the two horns of the Cow, that is, of the universe. Indra, Omnipotence, is the head, Agni, cosmic fire energy, is the forehead, and Yama, the Law, is the neck joint of brain and the body.

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    Subject

    Gauh

    Translation

    The Lord of creatures (Prajpati) and Lord in highest abode are his two horns; the resplendent Lord (Indra) is his head; the adorable Lord (Agni) is his forehead; the Controller Lord (Yama) is his joint of the neck.

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    Translation

    [N. B. In this hymn the cow is taken as the symbol of all the physical forces, objects and forms of the cosmos. The grand panorama of this universe is imagined in one collective form named as Cow. nay, the Universal Cow or Virat.] The two horns of this Universal-Cow are like the Prajapati and Parmeshthin, the head symbolizes Indra, the forehead Agni and the Throat yama.

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    Translation

    Protection of the world, and Omnipotence, the two forces of God, are the two horns of the cow of universe; the Sun is the head, Fire the forehead, Air the joint of the neck.

    Footnote

    ln this hymn, the universe has been compared to a cow. Different forces of nature are spoken of as her parts. Language is highly figurative.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १−(प्रजापतिः) प्रजापालकः परमेश्वरः (च) समुच्चये (परमेष्ठी) अ० १।७।२। सर्वोत्तमपदस्थः सर्वशक्तिमान् परमात्मा (च) अवधारणे (शृङ्गे) अ० ८।३।२४। द्वे प्राधान्ये (इन्द्रः) सूर्यः (शिरः) मस्तकरूपः (अग्निः) पार्थिवाग्निः (ललाटम्) लल ईप्सायाम्-अच्+अट गतौ-अण्, ललमीप्सामटति ज्ञापयतीति। कपालः (यमः) मध्यस्थानदेवता यमो यच्छतीति सतः-निरु० १०।१९। वायुः (कृकाटम्) कृक+अट गतौ-अण्। कृकं गलमटतीति। कण्ठसन्धिः। कृकाटिका ॥

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