ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराड्नुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
गाय॑न्ति त्वा गाय॒त्रिणोऽर्च॑न्त्य॒र्कम॒र्किणः॑। ब्र॒ह्माण॑स्त्वा शतक्रत॒ उद्वं॒शमि॑व येमिरे॥
स्वर सहित पद पाठगाय॑न्ति । त्वा॒ । गा॒य॒त्रिणः॑ । अर्च॑न्ति । अ॒र्कम् । अ॒र्किणः॑ । ब्र॒ह्माणः॑ । त्वा॒ । श॒त॒क्र॒तो॒ इति॑ शतऽक्रतो । उत् । वं॒शम्ऽइ॑व । ये॒मि॒रे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
गायन्ति त्वा गायत्रिणोऽर्चन्त्यर्कमर्किणः। ब्रह्माणस्त्वा शतक्रत उद्वंशमिव येमिरे॥
स्वर रहित पद पाठगायन्ति। त्वा। गायत्रिणः। अर्चन्ति। अर्कम्। अर्किणः। ब्रह्माणः। त्वा। शतक्रतो इति शतऽक्रतो। उत्। वंशम्ऽइव। येमिरे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र के कथं तमिन्द्रं पूजयन्तीत्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे शतक्रतो ! ब्रह्माणः स्वकीयं वंशमुद्येमिरे इव गायत्रिणस्त्वां गायन्ति, अर्किणोऽर्कं त्वामर्चन्ति॥१॥
पदार्थः
(गायन्ति) सामवेदादिगानेन प्रशंसन्ति (त्वा) त्वां गेयं जगदीश्वरमिन्द्रम् (गायत्रिणः) गायत्राणि प्रशस्तानि छन्दांस्यधीतानि विद्यन्ते येषां ते धार्मिका ईश्वरोपासकाः। अत्र प्रशंसायामिनिः। (अर्चन्ति) नित्यं पूजयन्ति (अर्कम्) अर्च्यते पूज्यते सर्वैर्जनैर्यस्तम् (अर्किणः) अर्का मन्त्रा ज्ञानसाधना येषां ते (ब्रह्माणः) वेदान् विदित्वा क्रियावन्तः (त्वा) जगत्स्रष्टारम् (शतक्रतो) शतं बहूनि कर्माणि प्रज्ञानानि वा यस्य तत्सम्बुद्धौ (उत्) उत्कृष्टार्थे। उदित्येतयोः प्रातिलोम्यं प्राह। (निरु०१.३) (वंशमिव) यथोत्कृष्टैर्गुणैः शिक्षणैश्च स्वकीयं वंशमुद्यमवन्तं कुर्वन्ति तथा (येमिरे) उद्युञ्जन्ति॥१॥निरुक्तकार इमं मन्त्रमेवं व्याख्यातवान्-गायन्ति त्वा गायत्रिणः प्रार्चन्ति तेऽर्कमर्किणो ब्राह्मणास्त्वा शतक्रत उद्येमिरे वंशमिव। (निरु०५.५) अन्यच्च। अर्को देवो भवति यदेनमर्चन्त्यर्को मन्त्रो भवति यदनेनार्चत्यर्कमन्नं भवत्यर्चति भूतान्यर्को वृक्षो संवृतः कटुकिम्ना। (निरु०५.४)॥१॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा सर्वैर्मनुष्यैः परमेश्वरस्यैव पूजा कार्य्या, अर्थात्तदाज्ञायां सदा वर्त्तितव्यम्, वेदविद्यामप्यधीत्य सम्यग्विदित्वोपदेशेनोत्कृष्टैर्गुणैः सह मनुष्यवंश उद्यमवान् क्रियते, तथैव स्वैरपि भवितव्यम्। नेदं फलं परमेश्वरं विहायान्यपूजकः प्राप्तुमर्हति। कुतः, ईश्वरस्याज्ञाभावेन तत्सदृशस्यान्यवस्तुनो ह्यविद्यमानत्वात्, तस्मात् तस्यैव गानमर्चनं च कर्त्तव्यमिति॥१॥
हिन्दी (4)
विषय
अब दशम सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इस सूक्त के प्रथम मन्त्र में इस बात का प्रकाश किया है कि कौन-कौन पुरुष किस-किस प्रकार से इन्द्रसंज्ञक परमेश्वर का पूजन करते हैं-
पदार्थ
हे (शतक्रतो) असंख्यात कर्म और उत्तम ज्ञानयुक्त परमेश्वर ! (ब्रह्माणः) जैसे वेदों को पढ़कर उत्तम-उत्तम क्रिया करनेवाले मनुष्य श्रेष्ठ उपदेश, गुण और अच्छी-अच्छी शिक्षाओं से (वंशम्) अपने वंश को (उद्येमिरे) प्रशस्त गुणयुक्त करके उद्यमवान् करते हैं, वैसे ही (गायत्रिणः) जो गायत्र अर्थात् प्रशंसा करने योग्य छन्दराग आदि पढ़े हुए धार्मिक और ईश्वर की उपासना करनेवाले हैं, वे पुरुष (त्वा) आपकी (गायन्ति) सामवेदादि के गानों से प्रशंसा करते हैं, तथा (अर्किणः) अर्क अर्थात् जो कि वेद के मन्त्र पढ़ने के नित्य अभ्यासी हैं, वे (अर्कम्) सब मनुष्यों को पूजने योग्य (त्वा) आपका (अर्चन्ति) नित्य पूजन करते हैं॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सब मनुष्यों को परमेश्वर ही की पूजा करनी चाहिये अर्थात् उसकी आज्ञा के अनुकूल वेदविद्या को पढ़कर अच्छे-अच्छे गुणों के साथ अपने और अन्यों के वंश को भी पुरुषार्थी करते हैं, वैसे ही अपने आप को भी होना चाहिये। और जो परमेश्वर के सिवाय दूसरे का पूजन करनेवाला पुरुष है, वह कभी उत्तम फल को प्राप्त होने योग्य नहीं हो सकता, क्योंकि न तो ईश्वर की ऐसी आज्ञा ही है, और न ईश्वर के समान कोई दूसरा पदार्थ है कि जिसका उसके स्थान में पूजन किया जावे। इससे सब मनुष्यों को उचित है कि परमेश्वर ही का गान और पूजन करें॥१॥
विषय
अब दशम सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इस सूक्त के प्रथम मन्त्र में इस बात का प्रकाश किया है कि कौन-कौन पुरुष किस-किस प्रकार से इन्द्रसंज्ञक परमेश्वर का पूजन करते हैं।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे शतक्रतो ! ब्रह्माणः स्वकीयं वंशम् उत येमिरे इव गायत्रिणः त्वां गायन्ति, अर्किणः अर्कं त्वाम् अर्चन्ति॥१॥
पदार्थ
हे (शतक्रतो) शतं बहूनि कर्माणि प्रज्ञानानि वा यस्य तत्सम्बुद्धौ=असंख्यात कर्म और उत्तम प्रज्ञान हैं जिसके, वह परमेश्वर, (ब्रह्माणः) वेदान् विदित्वा क्रियावन्तः=वेदों को पढ़कर उत्तम-उत्तम कर्म करने वाले मनुष्य, (स्वकीयम्)=अपने, (वंशम्)=वंश को, (उद्) क्रिया योगे- उद्यम्यते=उद्यम करते हैं, (येमिरे) उद्युञ्जन्ति=उद्यम करते हैं, (इव)=जैसे, (गायत्रिणः) गायत्राणि प्रशस्तानि छन्दांस्यधीतानि विद्यन्ते येषां ते धार्मिका ईश्वरोपासकाः=जिन्होंने गायत्री अर्थात् प्रशंसा करने योग्य छन्द का अध्ययन किया है, ऐसे ईश्वर के उपासक लोग, (त्वाम्) त्वां गेयं जगदीश्वरमिन्द्रम्=आप गान किये जाने वाले परमेश्वर इन्द्र को, (गायन्ति) सामवेदादिगानेन प्रशंसन्ति=सामवेद आदि के गान से प्रशंसा करते हैं, (अर्किणः) अर्कम्- र्का मन्त्रा ज्ञानसाधना येषां ते=जो वेद मन्त्रों को नित्य पढ़ने के अभ्यासी हैं, (त्वाम्)=आपकी, (अर्चन्ति) नित्यं पूजयन्ति=नित्य पूजा करते हैं॥१॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सब मनुष्यों को परमेश्वर ही की पूजा करनी चाहिये अर्थात् उसकी आज्ञा के अनुकूल वेदविद्या को पढ़कर अच्छे-अच्छे गुणों के साथ अपने और अन्यों के वंश को भी पुरुषार्थी करते हैं, वैसे ही अपने आप को भी होना चाहिये। और जो परमेश्वर के सिवाय दूसरे का पूजन करनेवाला पुरुष है, वह कभी उत्तम फल को प्राप्त होने योग्य नहीं हो सकता, क्योंकि न तो ईश्वर की ऐसी आज्ञा ही है, और न ईश्वर के समान कोई दूसरा पदार्थ है कि जिसका उसके स्थान में पूजन किया जावे। इसलिये सब मनुष्यों के लिये यह उचित है कि वे परमेश्वर ही का गान और पूजन करें॥१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (शतक्रतो) असंख्यात कर्म और उत्तम प्रज्ञान हैं जिनके, ऐसे परमेश्वर और (ब्रह्माणः) वेदों को पढ़कर उत्तम-उत्तम कर्म करने वाले मनुष्य! (स्वकीयम्) अपने (वंशम्) वंश के लिए (उद्-येमिरे) उद्यम करते हैं। (इव) जैसे (गायत्रिणः) जिन्होंने गायत्र अर्थात् प्रशंसा करने योग्य छन्द का अध्ययन किया है, ऐसे ईश्वर के उपासक (त्वाम्) आप गान किये जाने वाले परमेश्वर इन्द्र की (गायन्ति) सामवेद आदि के गान से प्रशंसा करते हैं, वैसे ही (अर्किणः) जो वेद मन्त्रों को नित्य पढ़ने के अभ्यासी हैं, वे (त्वाम्) आपकी (अर्चन्ति) नित्य पूजा करते हैं ॥१॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः) (गायन्ति) सामवेदादिगानेन प्रशंसन्ति (त्वा) त्वां गेयं जगदीश्वरमिन्द्रम् (गायत्रिणः) गायत्राणि प्रशस्तानि छन्दांस्यधीतानि विद्यन्ते येषां ते धार्मिका ईश्वरोपासकाः। अत्र प्रशंसायामिनिः। (अर्चन्ति) नित्यं पूजयन्ति (अर्कम्) अर्च्यते पूज्यते सर्वैर्जनैर्यस्तम् (अर्किणः) अर्का मन्त्रा ज्ञानसाधना येषां ते (ब्रह्माणः) वेदान् विदित्वा क्रियावन्तः (त्वा) जगत्स्रष्टारम् (शतक्रतो) शतं बहूनि कर्माणि प्रज्ञानानि वा यस्य तत्सम्बुद्धौ (उत्) उत्कृष्टार्थे। उदित्येतयोः प्रातिलोम्यं प्राह। (निरु०१.३) (वंशमिव) यथोत्कृष्टैर्गुणैः शिक्षणैश्च स्वकीयं वंशमुद्यमवन्तं कुर्वन्ति तथा (येमिरे) उद्युञ्जन्ति॥१॥निरुक्तकार इमं मन्त्रमेवं व्याख्यातवान्-गायन्ति त्वा गायत्रिणः प्रार्चन्ति तेऽर्कमर्किणो ब्राह्मणास्त्वा शतक्रत उद्येमिरे वंशमिव। (निरु०५.५) अन्यच्च। अर्को देवो भवति यदेनमर्चन्त्यर्को मन्त्रो भवति यदनेनार्चत्यर्कमन्नं भवत्यर्चति भूतान्यर्को वृक्षो संवृतः कटुकिम्ना। (निरु०५.४)॥१॥
विषयः- तत्र के कथं तमिन्द्रं पूजयन्तीत्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे शतक्रतो ! ब्रह्माणः स्वकीयं वंशमुद्येमिरे इव गायत्रिणस्त्वां गायन्ति, अर्किणोऽर्कं त्वामर्चन्ति॥१॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। यथा सर्वैर्मनुष्यैः परमेश्वरस्यैव पूजा कार्य्या, अर्थात्तदाज्ञायां सदा वर्त्तितव्यम्, वेदविद्यामप्यधीत्य सम्यग्विदित्वोपदेशेनोत्कृष्टैर्गुणैः सह मनुष्यवंश उद्यमवान् क्रियते, तथैव स्वैरपि भवितव्यम्। नेदं फलं परमेश्वरं विहायान्यपूजकः प्राप्तुमर्हति। कुतः, ईश्वरस्याज्ञाभावेन तत्सदृशस्यान्यवस्तुनो ह्यविद्यमानत्वात्, तस्मात् तस्यैव गानमर्चनं च कर्त्तव्यमिति॥१॥
विषय
गायन - अर्चन - उद्यमन
पदार्थ
१. हे (शतक्रतो) - अनन्त प्रज्ञानों व कर्मोंवाले प्रभो ! (त्वा) - आपको (गायत्रिणः) - साममन्त्रों से आपके गुणों का गायन करनेवाले उद्गाता (गायन्ति) - गाते हैं । आपके गुणों का स्तवन करते हुए उन गुणों को ही अपना जीवनादर्श बनाते हैं और आप जैसा बनने का प्रयत्न करते हैं ।
२. (अर्किणः) - पूजा के साधनभूत (ऋक्) - मन्त्रोंवाले होता लोग इन ऋचाओं से पदार्थों के विज्ञान को प्राप्त करके उन पदार्थों में आपकी महिमा को देखते हुए (अर्कम्) - अर्चना के योग्य आपकी (अर्चन्ति) - पूजा करते हैं । आपकी महिमा को देखते हुए वे आपके प्रति नतमस्तक होते हुए और नम्रता के भाव को धारण कर अभिमान का नाश करनेवाले बनते हैं ।
३. हे (शतक्रतो ! ब्राह्मणः) - आपकी महिमा के दर्शन से आपका ज्ञान प्राप्त करनेवाले ये लोग (त्वा) - आपको इस प्रकार (उद्येमिरे) - उन्नति को प्राप्त करते हैं , अर्थात् अपने अन्दर आपकी भावना को इस प्रकार निरन्तर बढ़ाते हैं (इव) - जैसे कि ये ज्ञानी पुरुष (वंशम्) - अपने कुल को उन्नत करते हैं अथवा जैसे एक उद्देश्य से चलनेवाले लोग अपने झण्डे के बाँस को ऊँचा करते हैं , उसी प्रकार ये ज्ञानी लोग आपको अपने जीवन की पताका बनाते हैं , आपके चारों ओर इनकी सब क्रियाएँ केन्द्रित होती हैं । इनका लक्ष्य केवल आपको प्राप्त करना ही हो जाता है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम प्रभु का गुणगान करें , उसी का अर्चन करें और प्रभु को ही अपने जीवन की पताका बनाएँ ।
विषय
सर्वोपरि स्तुत्य परमेश्वर ।
भावार्थ
(गायत्रिणः) गायत्र, साम के गान करनेहारे गायकजन (त्वा) तेरा ही ( गायन्ति ) गान करते हैं । ( अर्किणः ) वेदमन्त्रों के ज्ञाता जन भी ( अर्कंत्वा ) अर्चना करने योग्य तेरी ही (अर्चन्ति) अर्चना पूजा करते हैं । हे (शतक्रतो) सैकड़ों कर्मों के करने और विज्ञानों के जाननेहारे परमेश्वर ! ( ब्रह्माणः ) वेदज्ञ विद्वान् ब्राह्मणजन भी ( वंशम् इव ) वश अथवा ध्वजा दण्ड के समान ( त्वा ) तुझको ही ( उद्येमिरे ) उत्तम पद पर नियत करते हैं। सबसे ऊँचे पद पर राजा के समान तुझे ही सर्वोपरि मानते हैं ।
टिप्पणी
‘अर्कम्’ — अर्को देवो भवति यदेनमर्चन्ति । अर्को मन्त्रो भवति यदनेनार्चति अर्कमन्नं भवति अर्चति भूतानि । अर्को वृक्षो भवति संवृतः कटुकिम्नेति । निरु० ५ ॥ ४ ॥ राजा को भी, गायक गाते, स्तुति कर्त्ता स्तुति करते, विद्वान् जन ध्वजा के समान उच्च पद पर बैठाते हैं। ध्वजा राजा और उपास्य देव दोनों का प्रतिनिधि है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता । १—३, ५, ६, ७, ९-१२ अनुष्टुभः ॥ भुरिगुष्णिक्॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
जे लोक क्रमाने विद्या इत्यादी गुणांचे ग्रहण करून ईश्वराची प्रार्थना करून आपल्या उत्तम पुरुषार्थाच्या आश्रयाने परमेश्वराची प्रशंसा करतात व धन्यवाद देतात तेच अविद्या इत्यादी दुष्ट गुणांच्या निवृत्तीने शत्रूंना जिंकून दीर्घायुषी बनतात व विद्वान होऊन सर्व माणसांना सुखी करून सदैव आनंदात राहतात. या अर्थाने या दहाव्या सूक्ताची संगती नवव्या सूक्ताबरोबर जाणली पाहिजे. ॥ १२ ॥
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे सर्व माणसांनी परमेश्वराची पूजा केली पाहिजे अर्थात त्याच्या आज्ञेच्या अनुकूल वेदविद्या शिकून उत्कृष्ट गुणांनी मानववंशाला पुरुषार्थी केले पाहिजे. तसे स्वतःही झाले पाहिजे व जो परमेश्वराशिवाय इतराची पूजा करतो त्याला कधीही उत्तम फळ प्राप्त होऊ शकत नाही. कारण अशी ईश्वराची आज्ञा नाही किंवा ईश्वरासारखा दुसरा कोणीही नाही की ज्याची पूजा केली जावी. यामुळे सर्व माणसांनी परमेश्वराचे भजन व पूजन करावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The singers of Gayatri celebrate you, Indra, lord of song and joy, with the hymns of Sama-Veda. The devotees of Rgveda worship Indra, lord of light, with Rks. And the sage scholars of all the Vedas, O lord of a hundred noble acts of cosmic yajna, maintain the line of divine worship as the centre-string of the human family.
Subject of the mantra
Now we start tenth hymn. In the first mantra of this hymn, who among the men praise ‘Indra’ named God and in which way, this has been elucidated.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (śatakrato)=There are innumerable deeds and perfect wisdom whose, such a God and, (brahmāṇaḥ)=Men doing excellent deeds by reading Vedas, (svakīyam)=their, (vaṃśam)=for own descendants, (ud-yemire)= endeavour, (iva)=as, (gāyatriṇaḥ)= Those who have studied gāyatra meter, in other words, praiseworthy meter, such worshipers of God, (tvām)= You are the one who sings of God Indra, (gāyanti)=Praise with mantras of sāmaveda et cetera, (arkiṇaḥ)=Those who are practitioners of reciting Veda mantras regularly, they, (tvām)=your, (arcanti)=pray daily.
English Translation (K.K.V.)
Whose innumerable deeds and perfect wisdom are, such a God and men doing excellent deeds by reading Vedas! Their endeavour is for own descendants. As those who have studied gāyatra meter, in other words, praiseworthy meter, such worshipers of God, You are the one who sings God’s praise with mantras of sāmaveda et cetera, in the same way, those who are practitioners of reciting Veda mantras regularly, they pray daily.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Just as all human beings should worship the God, that is, by reading the Vedas according to his commands, with good qualities, they make efforts for themselves and the descendants of others, similarly one should also be for oneself. And one who worships other than God, he can never be able to get the best rewards, because neither there is such command of God, nor there other substance like God that should be worshiped in its place. Therefore it is appropriate for all human beings to sing and worship the God only.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Indra (God) worshipped by whom is taught in the first Mantra
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Lord, possessing infinite knowledge and power of action, the Sama Veda singers sing Thy praise. The Rigveda Chanters worship Thee who art Adorable. Knowers of all the four Vedas extol Thee with the reverence that men have for the heads of their family.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अर्किण:) अर्का मन्त्रा ज्ञानसाधना येषां ते = Knowers of the Mantra which give knowledge. अर्को मन्त्रो भवति यत् अनेन अर्चन्ति ( निरुक्ते ५, ४ ) (अर्कम् ) अर्च्यते पूज्यते सर्वैर्जनैर्यः तम् अर्च-पूजायाम् अर्को देवो भवति यदेनम् अर्चन्ति (निरु० ५.४ ) ।
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All men should worship God only i. e. they should always obey His commandments (contained in the Vedas) As those who study the Vedas and acquire their knowledge well, deliver sermons to others and thus make human family virtuous and elevated, so all others should also behave. This result cannot be achieved by any one else except the true worshipper of God, because according to God's command, there is none else equal to Him, therefore one should worship Him (in his heart) and should sing His Glory.
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