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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 101 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 101/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    प्र म॒न्दिने॑ पितु॒मद॑र्चता॒ वचो॒ यः कृ॒ष्णग॑र्भा नि॒रह॑न्नृ॒जिश्व॑ना। अ॒व॒स्यवो॒ वृष॑णं॒ वज्र॑दक्षिणं म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । म॒न्दिने॑ । पि॒तु॒ऽमत् । अ॒र्च॒त॒ । वचः॑ । यः । कृ॒ष्णऽग॑र्भाः । निः॒ऽअह॑न् । ऋ॒जिश्व॑ना । अ॒व॒स्यवः॑ । वृष॑णम् । वज्र॑ऽदक्षिणम् । म॒रुत्व॑न्तम् । स॒ख्याय॑ । ह॒वा॒म॒हे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र मन्दिने पितुमदर्चता वचो यः कृष्णगर्भा निरहन्नृजिश्वना। अवस्यवो वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तं सख्याय हवामहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। मन्दिने। पितुऽमत्। अर्चत। वचः। यः। कृष्णऽगर्भाः। निःऽअहन्। ऋजिश्वना। अवस्यवः। वृषणम्। वज्रऽदक्षिणम्। मरुत्वन्तम्। सख्याय। हवामहे ॥ १.१०१.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 101; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ शालाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    यूयं य ऋजिश्वनाऽविद्यात्वं निरहंस्तस्मै मन्दिने पितुमद् वचः प्रार्चतावस्यवः कृष्णगर्भा वयं सख्याय यं वृषणं वज्रदक्षिणं मरुत्वन्तमध्यापकं हवामहे तं यूयमपि प्रार्चत ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (प्र) प्रकृष्टार्थे (मन्दिने) आनन्दित आनन्दप्रदाय (पितुमत्) सुसंस्कृतमन्नाद्यम् (अर्चत) प्रदत्तेन पूजयत। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (वचः) प्रियं वचनम् (यः) अनूचानोऽध्यापकः (कृष्णगर्भाः) कृष्णा विलिखिता रेखाविद्यादयो गर्भा यैस्ते (निरहन्) निरन्तरं हन्ति (ऋजिश्वना) ऋजवः सरलाः श्वानो वृद्धयो यस्मिन्नध्ययने तेन। अत्र श्वन्शब्दः श्विधातोः कनिन्प्रत्ययान्तो निपातित उणादौ। (अवस्यवः) आत्मनोऽवो रक्षणादिकमिच्छवः (वृषणम्) विद्यावृष्टिकर्त्तारम् (वज्रदक्षिणम्) वज्रा अविद्याछेदका दक्षिणा यस्मात्तम् (मरुत्वन्तम्) प्रशस्ता मरुतो विद्यावन्त ऋत्विजोऽध्यापका विद्यन्ते यस्मिँस्तम् (सख्याय) सख्युः कर्मणे भावाय वा (हवामहे) स्वीकुर्महे ॥ १ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यस्माद्विद्या ग्राह्या स मनोवचः कर्मधनैः सदा सत्कर्त्तव्यः। येऽध्याप्यास्ते प्रयत्नेन सुशिक्ष्य विद्वांसः संपादनीयाः सर्वदा श्रेष्ठैर्मैत्रीं संभाव्य सत्कर्मनिष्ठा रक्षणीया ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब एक सौ एकवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में शाला का अधीश कैसा होवे, यह विषय कहा है ।

    पदार्थ

    तुम लोग (यः) जो उपदेश करने वा पढ़ानेवाला (ऋजिश्वना) ऐसे पाठ से कि जिसमें उत्तम वाणियों की धारणाशक्ति की अनेक प्रकार से वृद्धि हो, उससे मूर्खपन को (निः, अहन्) निरन्तर हनें, उस (मन्दिने) आनन्दी पुरुष और आनन्द देनेवाले के लिये (पितुमत्) अच्छा बनाया हुआ अन्न अर्थात् पूरी, कचौरी, लड्डू, बालूशाही, जलेबी, इमरती, आदि अच्छे-अच्छे पदार्थोंवाले भोजन और (वचः) पियारी वाणी को (प्रार्चत) अच्छे प्रकार निवेदन कर उसका सत्कार करो। और (अवस्यवः) अपने को रक्षा आदि व्यवहारों को चाहते हुए (कृष्णगर्भाः) जिन्होंने रेखागणित आदि विद्याओं के मर्म खोले हैं, वे हम लोग (सख्याय) मित्र के काम वा मित्रपनके लिये (वृषणम्) विद्या की वृद्धि करनेवाले (वज्रदक्षिणम्) जिससे अविद्या का विनाश करनेवाली वा विद्यादि धन देनेवाली दक्षिणा मिले (मरुत्वन्तम्) जिसके समीप प्रशंसित विद्यावाले ऋत्विज् अर्थात् आप यज्ञ करें, दूसरे को करावें, ऐसे पढ़ानेवाले हों, उस अध्यापक अर्थात् उत्तम पढ़ानेवाले को (हवामहे) स्वीकार करते हैं, उसको तुम लोग भी अच्छे प्रकार सत्कार के साथ स्वीकार करो ॥ १ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि जिससे विद्या लेवें, उसका सत्कार मन, वचन, कर्म और धन से सदा करें और पढ़ानेवालों को चाहिये कि जो पढ़ाने योग्य हों, उन्हें अच्छे यत्न के साथ उत्तम-उत्तम शिक्षा देकर विद्वान् करें और सब दिन श्रेष्ठों के साथ मित्रभाव रख उत्तम-उत्तम काम में चित्तवृत्ति की स्थिरता रक्खें ॥ १ ॥

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    विषय

    शक्तिशाली व कुशलकर्मा

    पदार्थ

    १. (मन्दिने) = उस आनन्दस्वरूप परमात्मा के लिए (पितुमत्) = रक्षण की प्रार्थनावाले (वचः) = वचन को (प्र अर्चत) = प्रकर्षेण अर्पित करो । उस प्रभु से ही रक्षण के लिए प्रार्थना करो (यः) = जो प्रभु (कृष्णगर्भाः) = काले मध्यवाली - मलिन भावनाओं को (निरहन्) = नष्ट कर डालते हैं । प्रभु यह करते इसलिए हैं कि (ऋजिश्वना) = ऋजिश्वा के दृष्टिकोण से , अर्थात् हम सरल मार्ग से गति करते हुए आगे बढ़नेवाले हों [श्वि गतिवृद्ध्योः] । प्रभु हमारे जीवनों में सरलता चाहते हैं । हम सरलता से गति करते हुए ही उन्नत हो सकते हैं । इस उन्नति के लिए मलिन भावों को दूर करना आवश्यक है । इन मलिनभावों को दूर करने के लिए हम प्रभु से रक्षण के लिए प्रार्थना करते हैं । (अवस्यवः) = रक्षण की कामनावाले हम (वृषणम्) = उस शक्तिशाली (वज्रदक्षिणम्) = [वज गतौ , दक्ष = चतुर] कुशलता से कर्मों को करनेवाले (मरुत्वन्तम्) = वायुओं व प्राणों वाले प्रभु को (सख्याय) = मित्रता के लिए (हवामहे) = पुकारते हैं । इस प्रभु की मित्रता में हम भी शक्तिशाली व कुशलता से कार्य करनेवाले बनते हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु से रक्षण के लिए प्रार्थना करने पर हमारी मलिन वासनाएँ व भावनाएँ दूर होती हैं । हम प्रभु की भाँति ही शक्तिशाली व कुशलकर्मा बनते हैं । 
     

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    विषय

    आचार्य, विद्वान्, परमेश्वर और राजा और सेनाध्यक्ष का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे पुरुषो ! ( मन्दिने ) स्वयं सुप्रसन्न तथा अन्यों को आनन्दित करने वाले स्वामी के लिये ( पितुमत् ) अन्न आदि पालनकारी सामग्री सहित ( वचः ) वचन ( प्र अर्चत ) आदरपूर्वक प्रयोग करो उत्तम वचन तथा अन्नादि से उसका सत्कार करो । अथवा अपने पालक स्वामी प्रमुख राजा के आगे ऐसा वचन कहो जिससे वह प्रसन्न होकर उत्तम आजीविका पालक साधन और अन्नादि प्रदान करे । हे मनुष्यो ! ( यः ) जो राजा, सेनापति, राष्ट्रपति, ( ऋजिश्वना ) उत्तम सधे हुए अश्वों से युक्त सैन्यबल से ( कृष्णगर्भा ) काले अन्धकार को गर्भ में रखने वाली रात्रियों को जैसे प्रकाश से सूर्य विनाश करता है उसी प्रकार ( कृष्णगर्भाः ) कर्षण अर्थात् प्रजापीड़न करने वाले शत्रु को अपने भीतर रखने वाली शत्रु सेनाओं को ( निर् = अहन् ) अच्छी प्रकार विनाश कर सके। हम लोग ( श्रवस्यवः ) ऐश्वर्य और यश चाहने वाले पुरुष उस ( वृषणं ) बलवान्, शत्रुओं पर शस्त्रों का और प्रजापर सुखों का मेघ के समान वर्षण करनेवाले, ( वज्रदक्षिणम् ) वज्र अर्थात् शस्त्रास्त्र बल को अपने दायें हाथ में लिये ( मरुत्वन्तं ) वीर भटों के स्वामी, राष्ट्रपति को हम प्रजाजन ( सख्याय ) मित्र भाव के लिये ( हवामहे ) स्वीकार करें । (२) आचार्य के पक्ष में—( यः ) जो आचार्य ( ऋजिश्वना ) धर्मानुकूल, सरल, वशीकृत इन्द्रियों के अभ्यास तथा अध्ययन द्वारा ( कृष्णगर्भाः निर् अहन् ) तामस भावों को अपने भीतर रखनेवाली दुश्चेष्टाओं को विनाश करता है ( मरुत्वन्तं ) जिज्ञासु जनों के गुरु, ( वज्रदक्षिणं ) अज्ञान के वर्जन करने वाले ज्ञानोपदेश में कुशल, ( वृषणं ) विद्याओं को मेघ के समान वर्षाने वाले आचार्य को ( श्ववस्यवः ) श्रवण योग्य वेद के लिये ज्ञान के अभिलाषी हम लोग ( सख्याय हवामहे ) सखा स्वीकार करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आंगिरसः कुत्स ऋषिः। इन्द्रो देवता । १, ४ निचृज्जगती । २, ५, ७ विराड् जगती ॥ भुरिक् त्रिष्टुप् , ६ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ९,११ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात ईश्वर, सभा, सेना व शाला इत्यादींच्या अधिपतींच्या गुणांचे वर्णन आहे. यामुळे या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    माणसांनी विद्येचे अध्यापन करणाऱ्याचा मन, वचन, कर्म व धन यांनी सत्कार करावा. अध्यापकांनी शिकविण्यायोग्य विद्यार्थ्यांना प्रयत्नपूर्वक उत्तम शिक्षण देऊन विद्वान करावे व सदैव श्रेष्ठांबरोबर मित्रभाव ठेवून उत्तम कार्यात चित्तवृत्ती स्थिर करावी. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    All ye men and women of the earth, offer words of welcome and hospitality to joyous Indra, lord giver of the power of knowledge, who, in a simple natural manner, breaks open the secret treasures of the dark womb of nature and makes the streams of knowledge flow. We, seekers of protection and knowledge, invoke Indra, lord of light and power, rich and generous, expert in the use of the thunderbolt of knowledge against the demon of darkness, and commander of the tempestuous Maruts of social dynamics, and we pray for his love and friendship.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should an Acharya or principal be is taught in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    We honor a great teacher or preceptor with good food and respectful words with other learned teachers, who with teaching that leads to advancement of all kinds, dispels the darkness of ignorance and who gladdens all. You should also honor that great teacher or preceptor whom we knowers of Algebra desirous of protection invite for friendship, as he is the rainier of wisdom and giver of dakshina (donation) that destroys all ignorance.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (कृष्णगर्भा:) कृष्णा: विलिखिता रेखाविद्यादयो गर्भा यैस्ते = Knowers of Algebra etc. (ऋजिश्वना) ऋजवः सरलाः श्वान: - वृद्धयो यस्मिन् अध्ययने तेन । अत्र श्वन् शब्द: शिवधातोः कनिन् प्रत्ययान्तो निपातित उणादौ । ( वज्रदक्षिणम्) वज्रा अविद्याछेदका दक्षिणा यस्मात् तम् ॥ = Giver of Dakshina or donation that dispels all darkness of ignorance. (मरुत्वन्तम्) प्रशस्ता: मरुत: विद्यावन्तः ऋत्विजः अध्यापका विद्यन्ते यस्मिन् तम् । He who has under him learned teachers.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should respect a teacher who imparts education with mind, word, actions and wealth. The taught or the pupils should be trained with great Laboure and should be made great scholars. One should have faith in good actions by having the association with noble persons.

    Translator's Notes

    The word कृष्ण is derived from कृष- विलेखने hence it has been interpreted by Rishi Dayananda Sarasvati as विलिखिता रेखा विद्यादयः गर्भो गृह णातेर्वा गृणतेर्वा इतियास्काचार्यो निरुक्ते How absurd it is on the part of Sayanacharya to say. कृष्णोनाम कश्चिदसुरः । तेन निषिक्तास्तदीया भार्या इन्द्रः ऋजिश्वनाएतत्संज्ञकेन राज्ञः सख्या सहितः निरहन्अवधीत् । कृष्णम् असुरं हत्वा पुत्राणामप्यनुत्पत्यर्थं गभिरगीस्तस्य भार्या अव्यवधीदित्यर्थः । - Which prof. Wilson has translated : Who (Indra) with Rijishwa, destroyed the pregnant wives of krishna' and has added in his notes the following absurd observation. (Rigveda Translation P.153) The wives of Krishna-Rijishwa is said to be a King, the friend of Indra: Krishna to be an Asura, who was slain, together with his wives, that none of his posterity might survive. Krishna, the black, may be another name for Vritra, the black cloud, or we may have here another allusion to the dark-complexioned aborigines". (Page 315) Is it not strange on the part of Sayanacharya to regard the Vedas as revealed in the beginning of creation and at the same time, to give such absurd and immoral stories ?

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