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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 103 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 103/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तत्त॑ इन्द्रि॒यं प॑र॒मं प॑रा॒चैरधा॑रयन्त क॒वय॑: पु॒रेदम्। क्ष॒मेदम॒न्यद्दि॒व्य१॒॑न्यद॑स्य॒ समी॑ पृच्यते सम॒नेव॑ के॒तुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । ते॒ । इ॒न्द्रि॒यम् । प॒र॒मम् । प॒रा॒चैः । अधा॑रयन्त । क॒वयः॑ । पु॒रा । इ॒दम् । क्ष॒मा । इ॒दम् । अ॒न्यत् । दि॒वि । अ॒न्यत् । अ॒स्य॒ । सम् । ई॒म् इति॑ । पृ॒च्य॒ते॒ । स॒म॒नाऽइ॑व । के॒तुः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तत्त इन्द्रियं परमं पराचैरधारयन्त कवय: पुरेदम्। क्षमेदमन्यद्दिव्य१न्यदस्य समी पृच्यते समनेव केतुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। ते। इन्द्रियम्। परमम्। पराचैः। अधारयन्त। कवयः। पुरा। इदम्। क्षमा। इदम्। अन्यत्। दिवि। अन्यत्। अस्य। सम्। ईम् इति। पृच्यते। समनाऽइव। केतुः ॥ १.१०३.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 103; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ परमेश्वरस्य कार्ये जगति कीदृशं प्रसिद्धं लिङ्गमस्तीत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे जगदीश्वर यत्ते तव जीवस्य च सृष्टाविदं परममिन्द्रियं कवयः पराचैः पुरा धारयन्त क्षमा पृथिवीदं धृतवती यद्दिवीदं वर्त्तते यदन्यत्कारणेऽस्त्यस्य संसारस्य मध्ये ई-ईमुदकं धरति यदन्यददृष्टे कार्य्ये भवति तत्सर्वं समनेव केतुः सन्प्रकाशयति तच्चात्र संपृच्यते ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (तत्) (ते) तव (इन्द्रियम्) इन्द्रस्य परमैश्वर्य्यवतस्तव जीवस्य च लिङ्गम् (परमम्) प्रकृष्टम् (पराचैः) बाह्यचिह्नैर्युक्तम् (अधारयन्तः) धृतवन्तः (कवयः) मेधाविनो विद्वांसः (पुरा) पूर्वम् (इदम्) प्रत्यक्षाप्रत्यक्षं सामर्थ्यम् (क्षमा) सर्वसहनयुक्ता पृथिवी (इदम्) (वर्त्तमानम्) (अन्यत्) भिन्नम् (दिवि) प्रकाशवति सूर्य्यादौ (अन्यत्) विलक्षणम् (अस्य) संसारस्य मध्ये (सम्) (ई) ईमित्युदकनाम०। निघं० १। १२। छन्दसो वर्णलोपो वेति मलोपः। (पृच्यते) संयुज्यते (समनेव) यथा युद्धे प्रवृत्ता सेना तथा (केतुः) विज्ञापकः ॥ १ ॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या यद्यदस्मिञ्जगति रचनाविशेषयुक्तं सुष्ठु वस्तु वर्त्तते तत्तत्सर्वं परमेश्वरस्य रचनेनैव प्रसिद्धमस्तीति विजानीत, नहीदृशं विचित्रं जगद्विधात्रा विना संभवितुमर्हति तस्मादस्ति खल्वस्य जगतो निर्मातेश्वरो जैवीं सृष्टिं कर्त्ता जीवश्चेति निश्चयः ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब एक सौ तीनवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से यह उपदेश है कि ईश्वर का कार्य्य जगत् में कैसा प्रसिद्ध चिह्न है ।

    पदार्थ

    हे जगदीश्वर ! जो (ते) आप वा जीव की सृष्टि में (इदम्) यह प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष सामर्थ्य (परमम्) प्रबल अतिउत्तम (इन्द्रियम्) परम ऐश्वर्य्ययुक्त आप और जीव का एक चिह्न जिसको (कवयः) बुद्धिमान् विद्वान् जन (पराचैः) ऊपर के चिह्नों से सहित (पुरा) प्रथम (अधारयन्त) धारण करते हुए (क्षमा) सबको सहनेवाली पृथिवी (इदम्) इस वर्त्तमान चिह्न को धारण करती जो (दिवि) प्रकाशमान सूर्य्य आदि लोक में वर्त्तमान वा जो (अन्यत्) उससे भिन्न कारण में वा (अस्य) इस संसार के बीच में है, इसको (ई) जल धारण करता वा जो (अन्यत्) और विलक्षण न देखे हुए कार्य्य में होता है (तत्) उस सबको (समनेव) जैसे युद्ध में सेना आ जुटे ऐसे (केतुः) विज्ञान देनेवाले होते हुए आप वा जीव प्रकाशित करता, यह सब इस जगत् में (संपृच्यते) सम्बद्ध होता है ॥ १ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! इस जगत् में जो-जो रचना विशेष चतुराई के साथ अच्छी-अच्छी वस्तु वर्त्तमान है, वह-वह सब परमेश्वर की रचना से ही प्रसिद्ध है यह तुम जानो क्योंकि ऐसा विचित्र जगत् विधाता के विना कभी होने योग्य नहीं। इससे निश्चय है कि इस जगत् का रचनेवाला परमेश्वर है और जीव सम्बन्धी सृष्टि का रचनेवाला जीव है ॥ १ ॥

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    विषय

    प्रत्याहार द्वारा ‘परम इन्द्रिय’ का धारण

    पदार्थ

    १. (कवयः) = क्रान्तदर्शी - तत्त्वद्रष्टा पुरुष (पुरा) = सबसे प्रथम (पराचैः) = विषयों से पराङ्मुख गति के द्वारा [परा - अञ्च] (ते) = आपकी (इदम्) = इस (तत्) = प्रसिद्ध (परमम्) = सर्वोत्कृष्ट (इन्द्रियम्) = शक्ति को (अधारयन्त) = धारण करते हैं । इन्द्रियाँ विषयाभिमुख होती हैं तो ये विषय इन्द्रिय - शक्तियों को जीर्ण करनेवाले होते हैं , परन्तु इन्हीं इन्द्रियों के निरोध से शक्ति का रक्षण होकर सब इन्द्रियाँ उत्तम शक्ति से सम्मल बनी रहती हैं । 

    २. यह शक्ति स्थूलरूप से दो भागों में विभक्त है । (इदम्) = यह (अन्यत् क्षमा) = एक विलक्षण रूप में पृथिवीरूप शरीर में रहती है । बाह्य जगत् में यह अग्नि है तो अध्यात्म में यह शरीर के तेज के रूप में है । (अस्य) = इसका (दिवि) = मस्तिष्करूप द्युलोक में (अन्यत्) = अन्य ही रूप है । बाह्य जगत् में यह सूर्य है और अध्यात्म में यह मस्तिष्क में उदित होनेवाला ज्ञान का सूर्य है । 

    ३. यह शक्ति (समना इव केतुः) = जैसे युद्ध में दोनों सेनाओं के झण्डे परस्पर मिल जाते हैं , इसी प्रकार (ईम्) = निश्चय से (सम्पृच्यते) = परस्पर सम्पृक्त होती है । आदर्श पुरुष वही है जो शरीर में तेज और मस्तिष्क में ज्ञान को धारण करता हुआ ज्ञान के साथ तेज को अपने जीवन में सम्पृक्त करनेवाला होता है । ‘पहलवान का शरीर और ऋषि की आत्मा’ - ये मिलकर ही जीवन को सुन्दर बनाती हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - विषय - पराङ्मुख होकर हम शरीर में तेजस्वी व मस्तिष्क में दीप्त ज्ञानवाले बनें । 
     

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    विषय

    परमेश्वर की स्तुति ।

    भावार्थ

    हे परमेश्वर ! ( ते ) तेरा ( तत् ) वह ( परमं इन्द्रियम् ) परम ऐश्वर्य, सामर्थ्य या सर्वोत्कृष्ट स्वरूप है जिसको ( कवयः ) क्रान्तदर्शी विद्वान् लोग ( पुरा ) बहुत पहले काल से ( पराचैः ) अपने दूरदर्शा पारमार्थिक साक्षात्कारों द्वारा ( इदम् ) ‘यह ऐसा ही है’ इस प्रकार यथार्थ रूप से ( अधारयन्त ) धारण कर रहे हैं, ज्ञान करते चले आ रहे हैं । ( इदम् ) यह ईश्वर का महान् सामर्थ्य ( क्षमा ) पृथिवी में ( अन्यत् ) कुछ भिन्न ही प्रकार का है। और (दिवि) आकाश या सूर्य में वह सामर्थ्य ( अन्यत् ) भिन्न प्रकार का है । ( समना-इव ) प्रेम युक्त चित्तवाली स्त्री जिस प्रकार अपने प्रिय पति से जा मिलती है उस प्रकार, अथवा युद्ध में लड़ती सेना जैसे परसेना से जा भिड़ती है उसी प्रकार ( केतुः ) यह परमेश्वर का ज्ञापक, प्रकाशक दोनों प्रकार का स्वरूप ( सभू पृच्यते ) परस्पर सुसंगत हो जाता है । एक दूसरे के अनुकूल उपकार्य उपकारक भाव से सम्बद्ध है । पृथिवी में नाना जीव सृष्टि, ओषधि, लता अन्न, अग्नि इत्यादि सभी पदार्थ हैं। आकाश में सूर्य, वायु मेघ आदि पर दोनों स्थानों में स्थित ईश्वर के ये महान् सामर्थ्य एक दूसरे के उपकारक होते हैं । पृथ्वी के जल से मेधादि की उत्पत्ति और मेघ, सूर्य, वायु आदि के द्वारा पृथ्वी पर जीव संसार की उत्पत्ति और जीवन, अन्न आदि होते हैं । ( २ ) राजा के पक्ष में—यह राजा का बड़ा भारी ऐश्वर्य या शासन-बल है जो एक तो ( क्षमा ) पृथिवी निवासी प्रजा में व्यवस्था रूप से दूसरा ( दिवि ) राजसभा में है। वह उभयत्र उसका ज्ञापक होकर परस्पर सम्बद्ध है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ३, ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ८, त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात ईश्वर, सूर्य व सेनाधिपतीच्या गुणांच्या वर्णनाने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥

    भावार्थ

    हे माणसांनो! या जगात विशेष चातुर्याने निर्मिती केलेल्या चांगल्या चांगल्या वस्तू आहेत. त्या सर्व परमेश्वरनिर्मितीमुळेच प्रसिद्ध आहेत हे तुम्ही जाणा. कारण असे विचित्र जग विधात्याशिवाय कधी बनू शकत नाही. यामुळे हा निश्चय होतो की या जगाची निर्मिती करणारा परमेश्वर आहे व जीवासंबंधी सृष्टी निर्माण करणारा जीव आहे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That glory of yours, lord, which is supreme and eternal, which is essential, subtle and mysterious, and this which is actual and existential, the poets of vision and imagination realise by its manifestations. Of this glory of Indra, this which is on earth is one and distinct, and the other which is in heaven is distinct and another. The two mingle in form and mature as one just as two parties meet in the assembly, each with its identity, and become one community.

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