ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 104/ मन्त्र 1
योनि॑ष्ट इन्द्र नि॒षदे॑ अकारि॒ तमा नि षी॑द स्वा॒नो नार्वा॑। वि॒मुच्या॒ वयो॑ऽव॒सायाश्वा॑न्दो॒षा वस्तो॒र्वही॑यसः प्रपि॒त्वे ॥
स्वर सहित पद पाठयोनिः॑ । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । नि॒ऽसदे॑ । अ॒का॒रि॒ । तम् । आ । नि । सी॒द॒ । स्वा॒नः । न । अर्वा॑ । वि॒ऽमुच्य॑ । वयः॑ । अ॒व॒ऽसाय । अश्वा॑न् । दो॒षा । वस्तोः॑ । वही॑यसः । प्र॒ऽपि॒त्वे ॥
स्वर रहित मन्त्र
योनिष्ट इन्द्र निषदे अकारि तमा नि षीद स्वानो नार्वा। विमुच्या वयोऽवसायाश्वान्दोषा वस्तोर्वहीयसः प्रपित्वे ॥
स्वर रहित पद पाठयोनिः। ते। इन्द्र। निऽसदे। अकारि। तम्। आ। नि। सीद। स्वानः। न। अर्वा। विऽमुच्य। वयः। अवऽसाय। अश्वान्। दोषा। वस्तोः। वहीयसः। प्रऽपित्वे ॥ १.१०४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 104; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स सभापतिः किं कुर्यादित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे इन्द्र ते निषदे योनिः सभासद्भिरस्माभिरकारि तं त्वमानिषीद स्वानोऽर्वा न प्रपित्वे जिगमिषुस्त्वं वयोऽवसायाश्वान्विमुच्य दोषा वस्तोर्वहीयसोऽभियुङ्क्ष्व ॥ १ ॥
पदार्थः
(योनिः) न्यायासनम् (ते) तव (इन्द्र) न्यायाधीश (निषदे) स्थित्यर्थम् (अकारि) क्रियते (तम्) (आ) (नि) (सीद) आस्व (स्वानः) शब्दं कुर्वन् (न) इव (अर्वा) अश्वः (विमुच्य) त्यक्त्वा। अत्रान्येषामपीति दीर्घः। (वयः) पक्षिणो जीवनं वा (अवसाय) रक्षणाद्याय (अश्वान्) वेगवतस्तुरङ्गान् (दोषा) रात्रौ (वस्तोः) दिने (वहीयसः) सद्यो देशान्तरे प्रापकानग्न्यादीन् (प्रपित्वे) प्राप्तव्ये समये स्थाने वा। प्रपित्वेऽभीक इत्यासन्नस्य, प्रपित्वे प्राप्तेऽभीकेऽभ्यक्ते। निरु० ३। २०। ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। न्यायाधीशैर्न्यायासनेषु स्थित्वा प्रसिद्धैः शब्दैरर्थिप्रत्यर्थीन् संबोध्य प्रतिदिनं यथावन्न्यायं कृत्वा प्रसन्नान्संपाद्य सर्वे ते सुखयितव्याः। अतिपरिश्रमेणावश्यं वयोहानिर्भवतीति विमृश्य त्वरितगमनाय क्रियाकौशलेनाग्न्यादिभिर्विमानादियानानि संपादनीयानि ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब नव ऋचावाले एकसौ चार सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में फिर सभापति क्या करे, यह उपदेश कहा है ।
पदार्थ
हे (इन्द्र) न्यायाधीश ! (ते) आपके (निषदे) बैठने के लिये (योनिः) जो राज्यसिंहासन हम लोगों ने (अकारि) किया है (तम्) उसपर उस आप (आ निषीद) बैठो और (स्वानः) हींसते हुए (अर्वा) घोड़े के (न) समान (प्रपित्वे) पहुँचने योग्य स्थान में किसी समय पर जाना चाहते हुए आप (वयः) पक्षी वा अवस्था की (अवसाय) रक्षा आदि व्यवहार के लिये (अश्वान्) दौड़ते हुए घोड़ों को (विमुच्य) छोड़ के (दोषा) रात्रि वा (वस्तोः) दिन में (वहीयसः) आकाश मार्ग से बहुत शीघ्र पहुँचानेवाले अग्नि आदि पदार्थों को जोड़ो अर्थात् विमानादि रथों को अग्नि, जल आदि की कलाओं से युक्त करो ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। न्यायाधीशों को चाहिये कि न्यायासन पर बैठके चलते हुए प्रसिद्ध शब्दों से अर्थी-प्रत्यर्थी अर्थात् लड़ने और दूसरी ओर से लड़नेवालों को अच्छी प्रकार समझाकर प्रतिदिन यथोचित न्याय करके उन सबको प्रसन्नकर सुखी करें। और अत्यन्त परिश्रम से अवस्था की अवश्य हानि होती है जैसे डांक आदि में अति दौड़ने से घोड़ा बहुत मरते हैं, इसको विचारकर बहुत शीघ्र जाने-आने के लिये क्रियाकौशल से विमान आदि यानों को अवश्य रचें ॥ १ ॥
विषय
प्रेरक व अहिंसक [प्रभु]
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (ते निषदे) = आपके बैठने के लिए (योनिः) = यह हृदयरूप स्थान (अकारि) = बनाया गया है । गतमन्त्र के अनुसार इस हृदय - देश को हमने ईर्ष्या आदि मलिनताओं से रहित करने का प्रयत्न किया है , (तम् आनिषीद) = इस हृदय - मन्दिर में आप विराजें , हमारा हृदय - देश आपका आसन बने ।
२. यहाँ बैठकर आप (स्वानः) = प्रेरणात्मक शब्द करते हैं । उन प्रेरणाओं के द्वारा (न अर्वा) = आप हमें हिंसित नहीं करते [अर्व - to kill]| प्रभु की प्रेरणा में ठीक मार्ग पर चलते हुए हम नाश की ओर नहीं जाते ।
३. प्रभु की प्रेरणा को सुनने पर (वयः) = [वय् गतौ] इस गतिशील मन को (विमुच्य) = संसार के विषयों से पृथक् करके [वयः रश्मि लगाम , मनरूपी लगाम - सा०] तथा (अश्वान्) = इन्द्रियरूप अश्वों को (अवसाय) = [to liberate] विषयों से छुड़ाकर (दोषा वस्तोः) = दिन - रात (प्रपित्वे) = [प्राप्तव्ये स्थाने - द० १/१/४/१] प्राप्तव्य स्थान पर (वहीयसः) = [अतिशयेन वोढॄन्] अतिशयेन ले - जानेवाला करते हैं । मार्गभ्रष्ट न होने का अभिप्राय यही है कि मन व इन्द्रियाँ विषयों से बद्ध न होकर हमें निरन्तर प्राप्तव्य स्थान - ब्रह्म की ओर ले - चलें ।
भावार्थ
भावार्थ - हम हृदयदेश को पवित्र बनाकर वहाँ प्रभु को आसीन करें । प्रभु प्रेरणा देंगे और हमें विषयों से हिंसित नहीं होने देंगे ।
विषय
राजा का सिंहासन पर अभिषेक।
भावार्थ
( दोषावस्तोः ) दिन और रात ( प्रपित्वे ) प्राप्त करने योग्य समीप में ( वहीयसः ) ढोकर ले जाने में समर्थ ( अश्वान् ) अश्वों, अश्वारोहियों को अब साथ रथ से तथा युद्धादि कार्य से युक्त करके और (वयः) ज्ञानवान् या वेग से जाने वाले अन्य पदाति सैन्यों को (विमुच्या) छोड़ कर अथवा ( वयः ) पक्षियों के समान पिञ्जरे में बंधे कैदियों को छोड़ कर ( स्वानः अर्वा न ) ज्ञान का उपदेश करता हुआ विद्वान् ज्ञानी पुरुष जिस प्रकार अपने आसन पर विराजता है उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) राजन् ! हे विद्वन् ! ( ते ) तेरे ( निषदे ) विराजने के लिये ( योनिः ) स्थान, आसन ( अकारि ) बनाया जावे तू ( तम् आ नि सीद ) उस पर विद्वान् या अन्तरिक्ष में गर्जते मेघ के समान विराज । अर्थात् युद्धादि द्वारा सिंहासन पर विराज । अथवा—( विमुच्य वयः ) किरणों को दूर २ तक फैला कर सूर्य जिस प्रकार अपने स्थान अन्तरिक्ष में विराजता है उसी प्रकार ( अश्वान् अवसाय ) घोड़ों या अश्वारोही वीर कार्य-कुशल पुरुषों को देश विजय और शासन के लिये छोड़ कर आप सिंहासन पर विराजे । ( २ ) अध्यात्म में—( प्रपित्वे वठीयसः ) प्राप्त विषय का ज्ञान कराने वाले ( वयः ) ज्ञानेन्द्रियों को ( विमुच्य अवसाय ) विषयों से छुड़ाकर आत्मा अपने आश्रय हृदय देश में विराजे । ( ३ ) जो ईश्वर अपने प्राप्त ज्ञानी और भोक्ता जीवों को मुक्त करता है वह हृदय देश में विराजे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
२, ४, ५ स्वराट् पंक्तिः । ६ भुरिक् पंक्तिः । ३, ७ त्रिष्टुप् । ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात सभापती राजा व प्रजा यांच्या योग्य व्यवहाराच्या वर्णनाने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे ॥
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. न्यायाधीशांनी न्यायासनावर बसून योग्य शब्दांनी वादी व प्रतिवादी यांना चांगल्या प्रकारे समजावून प्रत्येक दिवशी योग्य न्याय करून त्या सर्वांना प्रसन्न करून सुखी करावे. अत्यंत परिश्रमाने अवस्थेची हानी होते. अत्यंत धावण्याने गाडीला जोडलेले घोडे मृत्यू पावतात हे जाणून तात्काळ जाण्यायेण्यासाठी क्रियाकौशल्यपूर्वक विमान इत्यादी याने तयार करावीत.
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, this seat of high office is prepared and reserved for you. Come, take it, rejoicing as a victorious knight of horse. Come post-haste to join for refreshments and holy food, leaving behind the birds, horses and the celestial carriers of the night and day.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should Indra do is taught in the first Mantra
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
it as O Indra (Dispenser of Justice) the seat has been prepared by us-members for you to sit upon, hasten to sit upon a neighing horse (hastens to go to the destination ). In order to protect your life, loosen your horses and yoke fire etc. which take you soon to distant places carrying you day and night.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(इन्द्र) न्यायाधीश = O Judge or dispenser of justice. (योनिः) न्यायासनम् = The seat of justice. (प्रपित्वे) प्राप्तव्ये समये स्थाने वा = Destined time or place.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The dispensers of justice should occupy their seat of justice and addressing the clients and the accused, they should try to gladden all by dispensing justice properly. Knowing that by exerting themselves much exertion shortens the space of their life, they sound manufacture air-craft and other vehicles with the help of technical science for speedy transportation.
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