Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 105 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 105/ मन्त्र 1
    ऋषिः - आप्त्यस्त्रित आङ्गिरसः कुत्सो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    च॒न्द्रमा॑ अ॒प्स्व१॒॑न्तरा सु॑प॒र्णो धा॑वते दि॒वि। न वो॑ हिरण्यनेमयः प॒दं वि॑न्दन्ति विद्युतो वि॒त्तं मे॑ अ॒स्य रो॑दसी ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    च॒न्द्रमाः॑ । अ॒प्ऽसु । अ॒न्तः । आ । सु॒ऽप॒र्णः । धा॒व॒ते॒ । दि॒वि । न । वः॒ । हि॒र॒ण्य॒ऽने॒म॒यः॒ । प॒दम् । वि॒न्द॒न्ति॒ । वि॒ऽद्यु॒तः॒ । वि॒त्तम् । मे॒ । अ॒स्य । रो॒द॒सी॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चन्द्रमा अप्स्व१न्तरा सुपर्णो धावते दिवि। न वो हिरण्यनेमयः पदं विन्दन्ति विद्युतो वित्तं मे अस्य रोदसी ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चन्द्रमाः। अप्ऽसु। अन्तः। आ। सुऽपर्णः। धावते। दिवि। न। वः। हिरण्यऽनेमयः। पदम्। विन्दन्ति। विऽद्युतः। वित्तम्। मे। अस्य। रोदसी इति ॥ १.१०५.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 105; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ चन्द्रलोकः कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे रोदसी मे मम सकाशाद् योप्स्वन्तः सुपर्णश्चन्द्रमा दिव्याधावते हिरण्यनेमयो विद्युतश्च धावत्यो वः पदं न विन्दन्त्यस्य पूर्वोक्तस्येमं पूर्वोक्तं विषयं युवां वित्तम् ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (चन्द्रमाः) आह्लादकारक इन्दुलोकः (अप्सु) प्राणभूतेषु वायुषु (अन्तः) (आ) (सुपर्णः) शोभनं पर्णं पतनं गमनं यस्य (धावते) (दिवि) सूर्य्यप्रकाशे (न) निषेधे (वः) युष्माकम् (हिरण्यनेमयः) हिरण्यस्वरूपा नेमिः सीमा यासां ताः (पदम्) विचारमयं शिल्पव्यवहारम् (विन्दन्ति) लभन्ते (विद्युतः) सौदामिन्यः (वित्तम्) विजानीतम् (मे) मम पदार्थविद्याविदः सकाशात् (अस्य) (रोदसी) द्यावापृथिव्याविव राजप्रजे जनसमूहौ ॥ १ ॥

    भावार्थः

    हे राजप्रजापुरुषौ यश्चन्द्रमसश्छायान्तरिक्षजलसंयोगेन शीतलत्वप्रकाशस्तं विजानीतम्। या विद्युतः प्रकाशन्ते ताश्चक्षुर्ग्राह्या भवन्ति याः प्रलीनास्तासां चिह्नं चक्षुषा ग्रहीतुमशक्यम्। एतत्सर्वं विदित्वा सुखं संपादयेतम् ॥ १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    अब एकसौ पाँचवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में चन्द्रलोक कैसा है, इस विषय को कहा है ।

    पदार्थ

    हे (रोदसी) सूर्यप्रकाश वा भूमि के तुल्य राज और प्रजा जनसमूह ! (मे) मुझ पदार्थ विद्या जाननेवाले की उत्तेजना से जो (अप्सु) प्राणरूपी पवनों के (अन्तः) बीच (सुपर्णः) अच्छा गमन करने वा (चन्द्रमाः) आनन्द देनेवाला चन्द्रलोक (दिवि) सूर्य के प्रकाश में (आ, धावते) अति शीघ्र घूमता है और (हिरण्यनेमयः) जिनको सुवर्णरूपी चमक-दमक चिलचिलाहट है वे (विद्युतः) बिजुली लपट-झपट से दौड़ती हुई (वः) तुम लोगों की (पदम्) विचारवाली शिल्प चतुराई को (न) नहीं (विन्दन्ति) पाती हैं अर्थात् तुम उनको यथोचित काम में नहीं लाते हो (अस्य) इस पूर्वोक्त विषय को तुम (वित्तम्) जानो ॥ १ ॥

    भावार्थ

    हे राजा और प्रजा के पुरुष ! जो चन्द्रमा की छाया और अन्तरिक्ष के जल के संयोग से शीतलता का प्रकाश है उसको जानो तथा जो बिजुली लपट-झपट से दमकती हैं वे आखों से देखने योग्य हैं और जो विलाय जाती हैं उनका चिह्न भी आँख से देखा नहीं जा सकता, इस सबको जानकर सुख को उत्पन्न करो ॥ १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    चन्द्रमा व सुपर्ण की पद - प्राप्ति

    पदार्थ

    १. प्रभु कहते हैं कि (मे) = मेरे (अस्य) = इन वाक्यों का (रोदसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक (वित्तम्) = भाव जानें , अर्थात् सब मनुष्य मेरे इन वाक्यों का अर्थ समझने का प्रयत्न करें । सबसे पहली बात तो यह है कि (चन्द्रमाः) = चन्द्रमा (अप्सु अन्तरा) = अपों में है । अप् का अर्थ जल समझकर चन्द्रमा को जलों से उत्पन्न माना गया है । आकाश में मेघरूप जलों से तो इसका सम्बन्ध है ही , परन्तु इस वाक्य का अर्थ अप् शब्द का अर्थ [opus , operation] लेने पर वाक्यार्थ इस प्रकार है कि (अप्सु अन्तरा) = कर्मों में (चन्द्रमाः) = [चदि आह्लादे] आह्लादमय मनुष्य का निवास है । कर्मशील मनुष्य का जीवन प्रसन्नता से पूर्ण होता है । कर्मशील मनुष्य वासनाओं का शिकार नहीं होता । उसका जीवन पवित्र और अतएव आनन्दमय बना रहता है । संक्षेप में भाव यह है कि क्रिया में ही आनन्द है । 

    २. (सुपर्णः) = सूर्य (दिवि) = द्युलोक में (धावते) = गति करता है । यह वाक्य भी तथ्य बेशक हो , परन्तु इसका यह अर्थ महत्त्वपूर्ण प्रतीत नहीं होता । इसका आध्यात्मिक अर्थ यह है कि जो (दिवि) = ज्ञान के प्रकाश में (धावते) = [धावु गतिशुद्ध्योः] गति के द्वारा अपने जीवन का शोधन करता है वह (सुपर्णः) = उत्तमता से अपना पालन और पूरण करनेवाला बनता है । शरीर को यह रोगों से आक्रान्त नहीं होने देता और मन में न्यूनताओं को नहीं आने देता । शरीर व मन दोनों में स्वस्थ बनकर यह सूर्य की भाँति चमकने लगता है । प्रभु का तीसरा वाक्य यह है कि हे मनुष्यो ! (वः) = तुममें से (हिरण्यनेमयः) = वे व्यक्ति जो हिरण्यरूपी नेमिवाले हैं , जिनकी सारी क्रियाएँ धन में सीमित होती हैं और जो (विद्युतः) = कोठियों , कारों व कपड़ों से थोड़ी देर तक विशेषरूप से [वि] चमकते लगते हैं [द्युत्] , वे (पदं न विन्दन्ति) = लक्ष्यस्थान वा मार्ग को प्राप्त नहीं होते - “पद्यते मुनिभिर्यस्मात्त-स्मात्पद उदाहृतः” - वे प्रभु को प्राप्त नहीं होते जो प्रभु मुनियों के द्वारा जाने जाते हैं । धन उन्हें प्रभु से विमुख ही रखता है । ये धनी स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं पा सकते । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - क्रिया में ही आनन्द है । ज्ञान में अपना शोधन करनेवाला सुपर्ण बनता है । धन के लिए मरनेवाले थोड़ी देर चमकते हैं , परन्तु कभी लक्ष्य पर नहीं पहुँचते । 
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    चन्द्र तथा अन्यान्य आकाशचारी पिंडों के सम्बन्ध में ज्ञान । पक्षान्तर में प्रजानुरञ्जक राजा का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( चन्द्रमाः ) चन्द्र ( अप्सु अन्तरा ) अन्तरिक्ष में ( दिवि ) आकाश में (सुपर्णः) उत्तम रश्मियों से युक्त होकर ( धावते ) गति करता है। हे ज्ञानी पुरुषो ! आकाश में (विद्युतः) विशेष दीप्तियें या किरणें (हिरण्यनेमयः) सुवर्ण के समान धार वाले होकर भी (वः) तुम लोगों के (पदं) ज्ञान को ( न विन्दन्ति ) गोचर नहीं होतीं। हे (रोदसी) सूर्य और पृथिवी तुम दोनों ( मे ) मुझ ज्ञानेच्छु पुरुष को ( अस्य ) इस उक्त रहस्य का ( वित्तम् ) ज्ञान प्राप्त कराओ । (२) राष्ट्रपक्ष में—( अप्सु दिवि अन्तरा ) प्रजाओं और ज्ञानवान् पुरुषों, विद्वत्सभा के बीच ( सुपर्णः ) उत्तम वेगवान् रथ या बाहनों से युक्त होकर ( चन्द्रमाः ) प्रजाओं को आल्हाद देने वाला, प्रजा के चित्तों को अनुरंजन करने वाला राजा (धावते) गति करता है । ( हिरण्यनेमयः ) हित और रमणीय स्वभाव वाले तेजस्वी पुरुष, हे प्रजाजनो ! ( वः पदं न विन्दन्ति ) आप लोगों के स्थान तक नहीं आते। हे ( रोदसी ) राज-प्रजावर्गो ! या विद्वान् आचार्य और गुरुजनो ! ( मे ) मेरे ( अस्य ) इस रहस्य का ( वित्तम् ) आप दोनों ज्ञान कराओ और करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-९ आप्त्यस्त्रित ऋषिः आंङ्गिरसः कुत्सा वा ॥ विश्वे देवा देवता ॥ छन्दः- १, २,१६, १७ निचृतपङ्क्तिः । ३, ४, ६, ९, १५, १८ विराट्पंक्तिः। ८, १० स्वराट् पंक्तिः । ११, १४ पंक्तिः । ५ निचृद्बृहती। ७ भुरिग्बृहती । १३ महाबृहती । १६ निचृत्त्रिष्टुप् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात संपूर्ण विद्वानांचे गुण व कर्म यांच्या वर्णनाने या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥

    भावार्थ

    हे राजा व प्रजाजनहो! चंद्राची छाया व अंतरिक्षातील जलाच्या संयोगाने शीतलता असते हे जाणा, तसेच विद्युत अग्निशिखेप्रमाणे चमकते ती डोळ्यानी पाहता येते व नष्ट होते. नंतर तिचे चिन्हही पाहता येत नाही हे सर्व जाणून सुख उत्पन्न करा. ॥ १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    The moon glides in the middle regions of Antariksha in the midst of waters and pranic energies. So does the sun of wondrous rays run fast in the heaven of light. But the golden-rimmed flashes of lightning reveal themselves not to your state of consciousness. May the heaven and earth know the secret of this mystery and reveal it to men, the ruler and the people.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is moon is taught in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The moon that is giver of delight and is graceful moving speeds along the airs in the sky or depends upon the light of the sun or electricity. The lightnings of the bright golden rays do not get the benefit of your thoughtful technical dealing i. e. you are not able to use them properly. O Kings and subjects who like the heaven and the earth, learn from me a scientist, all about this subject.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अप्सु) प्राणभूतेषु वायुषु = In the airs that are like Pranas, (दिवि) सूर्यप्रकाशे = In the bright golden rays. (हिरण्यनेमयः) हिरण्यस्वरूपा नेमिः सीमा यासां ताः = Of the bright golden rays. (पदम्) विचारमयं शिल्पव्यवहारम् = Thoughtful technical dealing. (रोदसी) द्यावापृथिव्याविव राजप्रजे जनसमूहौ । = The rulers and the subjects who are like the heaven and the earth.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O President and officers of the State and subjects, you should know about the coolness and light of the moon that The is the result of her shadow, middle region and water. electricity that shines is visible, but the sign of that which in You should know all hidden, cannot be seen with eyes. this and enjoy happiness.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top