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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 107 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 107/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    य॒ज्ञो दे॒वानां॒ प्रत्ये॑ति सु॒म्नमादि॑त्यासो॒ भव॑ता मृळ॒यन्त॑:। आ वो॒ऽर्वाची॑ सुम॒तिर्व॑वृत्यादं॒होश्चि॒द्या व॑रिवो॒वित्त॒रास॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य॒ज्ञः । दे॒वाना॑म् । प्रति॑ । ए॒ति॒ । सु॒म्नम् । आदि॑त्यासः॑ । भव॑त । मृ॒ळ॒यन्तः॑ । आ । वः॒ । अ॒र्वाची॑ । सु॒ऽम॒तिः । व॒वृ॒त्या॒त् । अं॒होः । चि॒त् । या । व॒रि॒वो॒वित्ऽत॑रा । अस॑त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्ञो देवानां प्रत्येति सुम्नमादित्यासो भवता मृळयन्त:। आ वोऽर्वाची सुमतिर्ववृत्यादंहोश्चिद्या वरिवोवित्तरासत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यज्ञः। देवानाम्। प्रति। एति। सुम्नम्। आदित्यासः। भवत। मृळयन्तः। आ। वः। अर्वाची। सुऽमतिः। ववृत्यात्। अंहोः। चित्। या। वरिवोवित्ऽतरा। असत् ॥ १.१०७.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 107; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    विश्वे देवाः कीदृशा इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे मृडयन्त आदित्यासो विद्वांसो यूयं यो देवानां यज्ञः सुम्नं प्रत्येति तस्य प्रकाशका भवत। या वोहोरर्वाची सुमतिर्ववृत्यात् सा चिदस्मभ्यं वरिवोवित्तराऽऽसद् भवतु ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (यज्ञः) सङ्गत्या सिद्धः शिल्पाख्यः (देवानाम्) (प्रति) (एति) प्राप्नोति प्रापयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (सुम्नम्) सुखम् (आदित्यासः) सूर्य्यवद्विद्यायोगेन प्रकाशिता विद्वांसः (भवत) अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (मृडयन्तः) आनन्दयन्तः (आ) (वः) युष्माकम् (अर्वाची) इदानीन्तनी (सुमतिः) शोभना प्रज्ञा (ववृत्यात्) वर्त्तेत। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् शपः स्थाने श्लुश्च। (अंहोः) विज्ञानवत्। अत्राहि धातोरौणादिक उः प्रत्ययः। (चित्) अपि (या) (वरिवोवित्तरा) वरिवः सेवनं विद्वद्वन्दनं वा यया सुमत्या सातिशयिता (असत्) भवतु ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अस्मिञ्जगति विद्वद्भिः स्वपुरुषार्थेन याः शिल्पक्रियाः प्रत्यक्षीकृतास्ताः सर्वेभ्यो मनुष्येभ्यः प्रकाशिताः कार्या यतो बहवो मनुष्याः शिल्पक्रियाः कृत्वा सुखिनः स्युः ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब तीन ऋचावाले एकसौ सातवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से समस्त विद्वान् जन कैसे हों, यह उपदेश किया है ।

    पदार्थ

    (मृडयन्तः) हे आनन्दित करते हुए (आदित्यासः) सूर्य्य के तुल्य विद्यायोग से प्रकाश को प्राप्त विद्वानो ! तुम जो (देवानाम्) विद्वानों की (यज्ञः) सङ्गति से सिद्ध हुआ शिल्प काम (सुम्नम्) सुख की (प्रति, एति) प्रतीति कराता है, उसको प्रकट करनेहारे (भवत) होओ, (या) जो (वः) तुम लोगों को (अंहोः) विशेष ज्ञान जैसे हो वैसे (अर्वाची) इस समय की (सुमतिः) उत्तम बुद्धि (ववृत्यात्) वर्त्ति रही है वह (चित्) भी हम लोगों के लिये (वरिवोवित्तरा) ऐसी हो कि जिससे उत्तम जनों की अच्छी प्रकार शुश्रूषा (आ, असत्) सब ओर से होवे ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस संसार में विद्वानों को चाहिये कि जो उन्होंने अपने पुरुषार्थ से शिल्पक्रिया प्रत्यक्ष कर रक्खी हैं, उनको सब मनुष्यों के लिये प्रकाशित करें कि जिससे बहुत मनुष्य शिल्पक्रियाओं को करके सुखी हों ॥ १ ॥

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    विषय

    आदित्यों की सुमति

    पदार्थ

    १. (देवानाम्) = देववृत्ति के लोगों की (प्रति)= ओर (यज्ञः) = यज्ञ (एति) = प्राप्त होता है । देव यज्ञशील होते हैं । इनके प्रति (सुम्नम्) = प्रभु का स्तोत्र [Hymn] (एति) = प्राप्त होता है । वे यज्ञशील होते हैं और प्रभु का स्तवन करते हैं । इस प्रभुस्तवन के कारण ही इन्हें इन यज्ञों का गर्व नहीं होता । ये यज्ञ करते हैं और प्रभु के अर्पण करते चलते हैं । उन यज्ञों को ये प्रभु की शक्ति से होता हुआ देखते हैं । 

    २. ये देव प्रार्थना करते हैं कि (आदित्यासः) = हे आदित्यो ! आप (मृळयन्तः भवत) = हमारे जीवनों को सुखी बनानेवाले होओ । आपके सम्पर्क से हम भी आदित्यवृत्ति के अपनानेवाले हों । सब स्थानों से अच्छाई को ग्रहण करते हुए हम अपने जीवनों को उत्तमताओं से मण्डित करने वाले हों । है आदित्यो ! (वः) = आपकी (सुमतिः) = कल्याणी मति (अर्वाची) = [अस्मदभिमुखी] हमारी ओर आनेवाली (आववृत्यात्) = हो । यह मति वह है (याः) = जो (अंहोः चित) = दारिद्र्य को प्राप्त व्यक्ति के लिए भी (वरिवोवित्तरा) = अतिशयित धन को प्राप्त करानेवाली (असत्) = होती है । सुमति मनुष्य का महान् धन होता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - देववृत्तिवाले पुरुष यज्ञशील व प्रभुस्तवन करनेवाले होते हैं । ये आदित्यों की 
    सुमति को ही महान् धन समझते हैं । 
     

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    विषय

    विद्वान् और शक्तिशाली पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( देवानां ) विद्वानों का ( यज्ञः ) विद्या दान और ( देवानां यज्ञः ) दानशील पुरुषों का अन्न, धन आदि देना और ( देवानां यज्ञः ) विद्वानों, विजयी वीर पुरुषों का परस्पर मिलना तथा दिव्य पदार्थों का परस्पर संयोग अर्थात् सुसंगत होकर रहना और उत्तम शिल्प आदि ( सुम्नम् ) सुख ( प्रति एति ) प्राप्त करता है । हे ( आदित्यासः ) तेजस्वी, किरणों और १२ मासों के समान सुख, विद्या और ऐश्वर्यों के देने और लेने हारे या अखण्ड शक्ति ब्रह्म और राजशक्ति के धारक पुरुषो ! आप लोग ( मृडयन्तः ) सबको सुखी करते ( भवत् ) रहो । ( या ) जो ( वः ) आप लोगों की ( सुमतिः ) शुभ मति और ज्ञानशक्ति ( वरिवोवित्-तरा ) उत्तम सुखों और ऐश्वर्यों को प्राप्त कराने वाली है वह ( अंहोः चित् ) विद्वान् को तथा दरिद्र पुरुष को भी ( अर्वाची ) सदा नये से नये रूप में प्रकट होकर ( आ ववृत्यात् ) प्राप्त हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आंगिरस ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवता ॥ छन्दः- विराट् त्रिष्टुप् ।२ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ त्रिष्टुप् ॥ तृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात संपूर्ण विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन आहे. त्यामुळे या सूक्ताची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे ॥

    भावार्थ

    या जगात विद्वानांनी आपल्या पुरुषार्थाने जी शिल्पविद्या (कारागिरी) प्रत्यक्ष केलेली आहे. त्यांनी ती सर्व माणसांसाठी प्रकट करावी ज्यामुळे पुष्कळ माणसे शिल्पक्रियेमुळे सुखी व्हावीत. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Yajna brings peace, prosperity and happiness to the noble people. O scholars of science and divinity, be harbingers of peace and joy by yajnic creations and inventions. May your latest intellectual endeavour go on successfully so that it may save us from anxiety and fear, bring us wealth, and win honour and reverence for the wise.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are Devas in taught in this hymn.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons shining with your wisdom like the sun, O givers of delight! be revealers of manifesters of the Yajna of enlightened persons (particularly in the form of arts and industries) which leads to happiness. May your good intellect be full of knowledge and science, so that it may enable us to serve all living beings to the greatest extent and in the best possible manner and to honor great scholars.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (यज्ञ:) संगत्यासिद्ध: शिल्पयज्ञः = The Yajna in the form of an industrial work the combination of several articles. (अंहो:) विज्ञानवत् । अत्राहिधातोः औणादिक उः = Full of knowledge. प्रत्ययः = Full of knowledge. (वरियोवित्तरा) वरिवः सेवनं विद्वद्वचनं वा यया ॥ (वरिवोवित्तरा) वरिवः सेवनं विद्ववचनं वा यया सुमत्या सातिशयिता = To serve all living beings to the greatest and the best possible manner and to honor great scholars.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Learned persons and artists should reveal to all people the arts they have put into practical shape, so that all may enjoy happiness by applying them properly.

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