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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 108 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 108/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः देवता - इन्द्राग्नी छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    य इ॑न्द्राग्नी चि॒त्रत॑मो॒ रथो॑ वाम॒भि विश्वा॑नि॒ भुव॑नानि॒ चष्टे॑। तेना या॑तं स॒रथं॑ तस्थि॒वांसाथा॒ सोम॑स्य पिबतं सु॒तस्य॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । इ॒न्द्रा॒ग्नी॒ इति॑ । चि॒त्रऽत॑मः । रथः॑ । वा॒म् । अ॒भि । विश्वा॑नि । भुव॑नानि । चष्टे॑ । तेन॑ । आ । या॒त॒म् । स॒ऽरथ॑म् । त॒स्थि॒वांसा॑ । अथ॑ । सोम॑स्य । पि॒ब॒त॒म् । सु॒तस्य॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य इन्द्राग्नी चित्रतमो रथो वामभि विश्वानि भुवनानि चष्टे। तेना यातं सरथं तस्थिवांसाथा सोमस्य पिबतं सुतस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। इन्द्राग्नी इति। चित्रऽतमः। रथः। वाम्। अभि। विश्वानि। भुवनानि। चष्टे। तेन। आ। यातम्। सऽरथम्। तस्थिवांसा। अथ। सोमस्य। पिबतम्। सुतस्य ॥ १.१०८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 108; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ युग्मयोर्गुणा उपदिश्यन्ते ।

    अन्वयः

    यश्चित्रतमो रथो वामेतौ तस्थिवांसेन्द्राग्नी प्राप्य विश्वानि भुवनान्यभिचष्टेऽभितो दर्शयति। अथ येनैतौ सरथमायातं समन्ताद्गमयतः सुतस्य सोमस्य रसं पिबतं पिबतस्तेन सर्वैः शिल्पिभिः सर्वत्र गमनागमने कार्य्ये ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (यः) (इन्द्राग्नी) वायुपावकौ (चित्रतमः) अतिशयेनाश्चर्य्यस्वरूपगुणक्रियायुक्तः (रथः) विमानादियानसमूहः (वाम्) एतौ (अभि) अभितः (विश्वानि) सर्वाणि (भुवनानि) भूगोलस्थानानि (चष्टे) दर्शयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (तेन)(यातम्) गच्छतो गमयतो वा (सरथम्) रथैः सह वर्त्तमानं सैन्यमुत्तमां सामग्रीं वा (तस्थिवांसा) स्थितिमन्तौ (अथ) (सोमस्य) रसवतः सोमवल्ल्यादीनां समूहस्य रसम् (पिबतम्) पिबतः (सुतस्य) ईश्वरेणोत्पादितस्य ॥ १ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः कलासु सम्प्रयोज्य चालितैर्वाय्वग्न्यादिभिर्युक्तैर्विमानादिभिर्यानैराकाशसमुद्रभूमिमार्गेषु देशान्तरान् गत्वाऽऽगत्य सर्वदा स्वाभिप्रायसिद्ध्यानन्दरसो भोक्तव्यः ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब एकसौ आठवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से दो-दो इकट्ठे पदार्थों वा गुणों का उपदेश किया है ।

    पदार्थ

    (यः) जो (चित्रतमः) एकीएका अद्भुत गुण और क्रिया को लिए हुए (रथः) विमान आदि यानसमूह (वाम्) इन (तस्थिवांसा) ठहरे हुए (इन्द्राग्नी) पवन और अग्नि को प्राप्त होकर (विश्वानि) सब (भुवनानि) भूगोल के स्थानों को (अभि, चष्टे) सब प्रकार से दिखाता है (अथ) इसके अनन्तर जिससे ये दोनों अर्थात् पवन और अग्नि (सरथम्) रथ आदि सामग्री सहित सेना वा उत्तम सामग्री को (आ, यातम्) प्राप्त हुए अच्छी प्रकार अभीष्ट स्थान को पहुँचाते हैं तथा (सुतस्य) ईश्वर के उत्पन्न किये हुए (सोमस्य) सोम आदि के रस को (पिबतम्) पीते हैं (तेन) उससे समस्त शिल्पी मनुष्यों को सब जगह जाना-आना चाहिये ॥ १ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि कलाओं में अच्छी प्रकार जोड़के चलाये, हुए वायु और अग्नि आदि पदार्थों से युक्त विमान आदि रथों से आकाश, समुद्र और भूमि मार्गों में एक देश से दूसरे देशों को जा-आकर सर्वदा अपने अभिप्राय की सिद्धि से आनन्दरस भोगें ॥ १ ॥

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    विषय

    इन्द्र व अग्नि का अद्भुत रथ

    पदार्थ

    १. वैदिक साहित्य में शरीर को रथ के रूप में चित्रित किया गया है । यह रथ अद्भुत है । इसके एक - एक अङ्ग की रचना आश्चर्यकर है । यह रथ इन्द्र व अग्नि का कहा गया है । ''इन्द्र'' बल का देवता है और ''अग्नि'' प्रकाश का । शरीर में इन दोनों तत्त्वों का वही स्थान है जो कि समाज के शरीर में क्षत्रिय और ब्राह्मण का । एक यान में जो इञ्जन का स्थान है वह शरीर में बल [इन्द्र] का है , और यान में प्रकाश तो आवश्यक है ही । इसी प्रकार यहाँ जीवन में ज्ञान का महत्त्व है । मन्त्र में कहते हैं कि हे (इन्द्राग्नी) = इन्द्र व अग्नितत्त्वो ! (यः) = जो (वाम्) = आप दोनों का (चित्रतमः रथः) = यह शरीररूप अद्भुत रथ है , जो (विश्वानि भुवनानि) = सब लोकों को (अभिचष्टे) = देखता है , अर्थात् कभी किसी लोक में और कभी किसी लोक में जन्म लेता है अथवा ''यथापिण्डे तथा ब्रह्माण्डे'' - इस उक्ति के अनुसार अपने में सारे ब्रह्माण्ड के लोक - लोकान्तरों को देखनेवाला बनता है । एक योगी निरन्तर साधना के मार्ग पर चलता हुआ मन के निरोध के द्वारा सारे भुवनों का ज्ञान प्राप्त कर लेता है - ''भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात्'' [यो० वि० २६] । 

    २. हे इन्द्राग्नी ! (सरथं तस्थिवांसा) = समान रथ पर बैठे हुए आप दोनों तेन (आयातम्) = उस रथ से हमें प्राप्त होओ । हमारे शरीररूप रथ में इन्द्र व अग्नि दोनों की स्थिति हो - शरीर सबल हो तथा मस्तिष्क ज्ञानोज्ज्वल हो । 

    ३. (अथ)= अब इस दृष्टिकोण से कि शरीर सशक्त व सज्ञान हो , आप (सुतस्य सोमस्य) = उत्पन्न हुई - हुई सोमशक्ति का (पिबतम्) = पान करो , सोम को शरीर में ही सुरक्षित करनेवाले होओ । इस सोम ने ही शरीर को सशक्त बनाना है , इसी ने मस्तिष्क की ज्ञानाग्नि का ईधन बनना है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारा यह शरीर रथ ''इन्द्र व अग्नि'' का हो । यह सशक्त व ज्ञानोज्ज्वल हो । इसे ऐसा बनाने के लिए हम सोम का पान करें । 
     

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    विषय

    इन्द्र और अग्नि, के समान राजा अमात्य, प्रकाशप्रद भ्राचार्य और अध्यात्म में जीव परमेश्वर का वर्णन

    भावार्थ

    हे ( इन्द्राग्नी ) इन्द्र और अग्नि ! वायु और आग के समान अमात्य और राजन् ! ( यः ) जो ( वाम् ) आप दोनों का ( चित्रतमः ) अति अद्भुत ( रथः ) रमणसाधन, विजयी रथ, या राष्ट्र शासन का काम ( विश्वानि भुवनानि ) समस्त लोकों, देश तथा जल स्थल और आकाश सबको ( अभिचष्टे ) दीखता और प्रकाश से चमकाता है, ( तेन ) उस रथ से आप दोनों ( सरथं ) एक ही रथ पर महारथी और सारथी के समान ( तस्थिवांसा ) बैठे हुए ( आयातम् ) आओ, हमें प्राप्त होओ, ( अथ ) और ( सुतस्य ) उत्पन्न हुए ( सोमस्य ) अन्नादि भोग्य पदार्थ तथा ऐश्वर्य का ( पिबतम् ) पान करो, उपभोग करो । (२) आधिदैविक में—इन्द्र, अग्नि अर्थात् सूर्य के प्रकाश और प्रताप, दोनों से युक्त किरण, उनका चित्रतम रथ सूर्य सर्वत्र प्रकाश करता है । वे दोनों एक ही साथ आते हैं और जल का पान करते हैं, उसे सूक्ष्म रूप से खींच लेते हैं । ( ३ ) अध्यात्म में—‘इन्द्राग्नी’ जीव और परमेश्वर इनका अद्भुत रथ देह और ब्रह्माण्ड, दोनों में दोनों समान रूप से अधिष्ठित हैं । एक सोम अर्थात् अन्नादि का भोक्ता और दूसरा परमानन्द रसमय है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्दः- १, ८, १२ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ३, ६, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ९, १०, १३ त्रिष्टुप् । ४ भुरिक् पंक्तिः । ५ पंक्तिः । त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात वायू व विद्युत इत्यादी गुणांच्या वर्णनाने त्याच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे ॥

    भावार्थ

    माणसांनी कलायंत्रांना जोडून वायू अग्नीयुक्त पदार्थानी विमान इत्यादी यानांनी आकाश, समुद्र व भूमी मार्गानी देशदेशांतरी प्रवास करावा व आपले उद्दिष्ट सफल करावे आणि आनंद भोगावा. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra and Agni, powers of air and fire, wonderful is the chariot which goes round and shows for you all the places and planets of the world. Come riding therein and bring us all that is there in the chariot and enjoy the beauty and pleasure of the Lord’s creation.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    All artists should go and come everywhere sitting on the wonderful car (in the form of air craft etc.) which enables them to see every place in the world with the help of Indra and Agni (air and fire), with good army and materials. May they come and drink of the Soma juice of the various nourishing herbs created by God.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्द्राग्नी) वायुपावकौ = Air and fire. (सुतस्य) ईश्वरेणोत्पादितस्य = Created by God.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should go from country to country travelling by the air craft and other vehicles, moved by air and fire etc. and travelling on the paths or earth, sky and sea and accomplish their objects, drinking the juice of bliss.

    Translator's Notes

    यो वै वायुः स इन्द्रो य इन्द्रः स वायुः || (शतपथ ४. १. ३. १४ ) । It is thus clear that the meaning of Indra as or air given by Rishi Dayananda Sarasvati is based upon the authority of the Brahmanas and other Vedic literature. By Indragnee (इन्द्राग्नी) may also be taken the king and the Prime Minister who are like air and fire.

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