ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 109/ मन्त्र 1
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - इन्द्राग्नी
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
वि ह्यख्यं॒ मन॑सा॒ वस्य॑ इ॒च्छन्निन्द्रा॑ग्नी ज्ञा॒स उ॒त वा॑ सजा॒तान्। नान्या यु॒वत्प्रम॑तिरस्ति॒ मह्यं॒ स वां॒ धियं॑ वाज॒यन्ती॑मतक्षम् ॥
स्वर सहित पद पाठवि । हि । अख्य॑म् । मन॑सा । वस्यः॑ । इ॒च्छन् । इन्द्रा॑ग्नी॒ इति॑ । ज्ञा॒सः । उ॒त । वा॒ । स॒ऽजा॒तान् । न । अ॒न्या । यु॒वत् । प्रऽम॑तिः । अ॒स्ति॒ । मह्य॑म् । सः । वा॒म् । धिय॑म् । वा॒ज॒ऽयन्ती॑म् । अ॒त॒क्ष॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि ह्यख्यं मनसा वस्य इच्छन्निन्द्राग्नी ज्ञास उत वा सजातान्। नान्या युवत्प्रमतिरस्ति मह्यं स वां धियं वाजयन्तीमतक्षम् ॥
स्वर रहित पद पाठवि। हि। अख्यम्। मनसा। वस्यः। इच्छन्। इन्द्राग्नी इति। ज्ञासः। उत। वा। सऽजातान्। न। अन्या। युवत्। प्रऽमतिः। अस्ति। मह्यम्। सः। वाम्। धियम्। वाजऽयन्तीम्। अतक्षम् ॥ १.१०९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 109; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ विद्युत्प्रसिद्धाग्नी कीदृशावित्युपदिश्यते ।
अन्वयः
यथेन्द्राग्नी इच्छन् वस्योऽहं ज्ञासः सजातानुत वा मनसा ज्ञातुमिच्छन् युवदहमेतान् हि खलु व्यख्यं तथा यूयमपि विख्यात या मम प्रमतिरस्ति सा युष्मभ्यमप्यस्तु नान्या यथाहं वामध्यापकाध्येतृभ्यां वाजयन्तीं धियमतक्षं तथा सोऽध्यापकोऽध्येता चैनां मह्यं तक्षतु ॥ १ ॥
पदार्थः
(वि) विविधार्थे (हि) खलु (अख्यम्) अन्यान्प्रति कथयेयम् (मनसा) विज्ञानेन (वस्यः) वसुषु साधु। छान्दसो वर्णलोपो वेत्युकारलोपः। (इच्छन्) (इन्द्राग्नी) विद्युद्भौतिकावग्नी (ज्ञासः) जानन्ति ये तान् विदुषः सृष्टिस्थान् ज्ञातव्यान्पदार्थान्वा (उत) अपि (वा) विद्यार्थिनां ज्ञापकानां समुच्चये वा (सजातान्) सहोत्पन्नान् (न) नहि (अन्या) भिन्ना (युवत्) मिश्रयित्रमिश्रकौ वा (प्रमतिः) प्रकृष्टा चासौ मतिश्च प्रमतिः (अस्ति) (मह्यम्) (सः) (वाम्) युवाभ्याम् (धियम्) उत्तमां प्रज्ञाम् (वाजयन्तीम्) सबलानां विद्यानां प्रज्ञापिकाम् (अतक्षम्) तनूकुर्य्याम् ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्र लुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्याणां योग्यतास्ति सत्प्रीतिपुरुषार्थाभ्यां सद्विद्यादि बोधयन्तोऽत्युत्तमां बुद्धिं जनयित्वा व्यवहारपरमार्थसिद्धिकराणि कार्याण्यवश्यं साध्नुवन्तु ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब एकसौ नववें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से फिर वे भौतिक अग्नि और बिजुली कैसे हैं, यह उपदेश किया है ।
पदार्थ
जैसे (इन्द्राग्नी) बिजुली और जो दृष्टिगोचर अग्नि है उनकी (इच्छन्) चाहता हुआ (वस्यः) जिन्होंने चौबीस वर्ष पर्य्यन्त ब्रह्मचर्य्य किया है उनमें प्रशंसनीय मैं तथा (ज्ञासः) जो ज्ञाताजन हैं उनको वा जानने योग्य पदार्थों को (सजातान्) वा एक सङ्ग हुए पदार्थों को (उत) और (वा) विद्यार्थी वा समझानेवालों को (मनसा) विशेष ज्ञान से जानने की इच्छा करता हुआ (युवत्) सब वस्तुओं को यथायोग्य कार्य्य में लगवानेहारा मैं इनको (हि) निश्चय से (वि, अख्यम्) औरों के प्रति उत्तमता के साथ कहूँ वैसे तुम लोग भी कहो, जो मेरी (प्रमतिः) प्रबल मति (अस्ति) है वह तुम लोगों को भी हो, (न, अन्या) और न हो। जैसे मैं (वाम्) तुम दोनों पढ़ाने-पढ़नेवालों से (वाजयन्तीम्) समस्त विद्याओं को जतानेवाली (धियम्) उत्तम बुद्धि को (अतक्षम्) सूक्ष्म करूँ अर्थात् बहुत कठिन विषयों को सुगमता से जानूँ वैसे (सः) वह पढ़ाने और पढ़नेवाला इसको (मह्यम्) मेरे लिये सूक्ष्म करे ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में दो लुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों की योग्यता यह है कि अच्छी प्रीति और पुरुषार्थ से श्रेष्ठ विद्या आदि को बोध कराते हुए अति उत्तम बुद्धि उत्पन्न कराकर व्यवहार और परमार्थ की सिद्धि करानेवाले कामों को अवश्य सिद्ध करें ॥ १ ॥
विषय
इन्द्राग्नी ही बन्धु हैं
पदार्थ
१. (वस्यः) = उत्तम धन को (इच्छन्) = चाहता हुआ मैं (मनसा) = मन से , अर्थात् विचारपूर्वक (इन्द्राग्नी) = इन्द्र और अग्नि को ही - शक्ति व प्रकाश के अधिष्ठातृ देवों को ही (ज्ञासः) = बन्धुओं को (उत वा) = अथवा (सजातान्) = समान कुलोत्पन्न अपने भाइयों को (हि) = निश्चय से (वि अख्यम्) = विशेषरूप से देखू । इन्द्र व अग्नि को ही अपना भाई समझें । ये ही मेरे अत्यन्त निकट सम्बन्धी हैं । इनके बन्धुत्व में ही मैं उत्कृष्ट धन को प्राप्त करनेवाला बनता हूँ । वस्तुतः शक्ति व प्रकाश ही मेरे उत्तम धन हैं ।
२. (युवत्) = आपसे (अन्या) = भिन्न (प्रमतिः) = प्रकृष्ट बुद्धि (मह्यम्) = मेरे लिए (न अस्ति) = नहीं है । इन्द्र और अग्नि की उपासना से ही प्रकृष्ट मति प्राप्त होती है । (सः) = वह मैं (वाम्) = आप दोनों की (वाजयन्तीम्) = शक्ति देनेवाली (धियम्) = ध्यानपूर्वक की जानेवाली स्तुति को (अतक्षम्) = करता हूँ । मैं एकाग्र वृत्तिवाला होकर इन्द्र और अग्नि की उपासना करता हूँ । मैं इन्द्र और अग्नि में ही प्रवेश के लिए यत्नशील होता हूँ । यही बात मेरी सम्पूर्ण शक्ति का कारण होगी ।
भावार्थ
भावार्थ - हम इन्द्र और अग्नि को ही अपना सच्चा बन्धु जानें । इनका उपासन ही हमें सशक व प्रकृष्ट बुद्धिवाला बनाएगा ।
विषय
आचार्य और शिक्षकों के कर्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्राग्नी ) इन्द्र और हे अग्ने ! हे आचार्य और शिक्षक ! हे राजन्, हे विद्वन् ! मैं ( वस्वः इच्छन् ) उत्तम से उत्तम ऐश्वर्यो को चाहता हुआ अथवा मैं स्वयं ( वस्यः ) गृहस्थ रूप से बसे हुए पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ होकर ( ज्ञासः ) ज्ञानवान् या ज्ञातिगण ( वा ) और ( सजातान् ) एक वंश, पद, समाज और कुल में उत्पन्न हुए लोगों को मैं ( मनसा ) अपने हृदय से ( वि अख्यं ) विविध प्रकार का उपदेश दूं । ( युवत् ) आप दोनों से ( अन्या ) कोई और दुसरा पुरुष ( मह्यं ) मेरे लिये ( प्रमतिः ) और अधिक उत्तम ज्ञानवान् और बुद्धिमान् ( न अस्ति ) नहीं है । ( सः ) वह मैं ( वां ) आप दोनों की ( वाजयन्तीम् ) ज्ञान और ऐश्वर्य की अभिलाषा करने वाली ( धियम् ) बुद्धि और कर्म को ( अतक्षम् ) करूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१–८ कुत्स आंङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्राग्नी देवते ॥ छन्दः– १, ३, ४, ६, ८ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ५ त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः स्वरः ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात इंद्र व अग्नी शब्दाच्या अर्थाचे वर्णन आहे. यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणावे.
भावार्थ
या मंत्रात दोन लुप्तोपमालंकार आहेत. माणसांनी उत्तम प्रेम व पुरुषार्थाने श्रेष्ठ विद्या इत्यादीचा बोध करवून अत्यंत उत्तम बुद्धी उत्पन्न करवून व्यवहार व परमार्थ सिद्ध करण्यासाठी कार्य करावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Indra and Agni, wishing with heart and soul for better life and wealth I speak to those who know and to my contemporary brethren: Other than you two, none is my protector, none preceptor, none my subject. Thus I improve and refine the worshipful and divine knowledge and understanding about fire and electricity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are electricity and fire is taught in the first Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As desirous of wealth, I who try to be the best among the Vasu Brahma Charis (observing Brahmacharya up to the age of at least 24 years) accept with knowledge Indra and Agni (electricity and fire) and instruct about them to the learned and the students born together, of equal age, you should also do likewise. The clear understanding or sharp intellect that I possess by God's grace, may be possessed by all and none different from it. As I give this good intellect to you O teachers and the taught which enables you to acquire good knowledge, so you should also give to me. So mutually we may help one another.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(इन्द्राग्नी) विद्युत्भौतिकौ अग्नी = Electricity and fire. (वाजयन्तीम्) सकलानां विद्यानां विज्ञापिकाम् = Teaching all sciences.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of men to teach with admirable love and exertion good sciences and create pure intellect and thus to accomplish all acts that lead to worldly prosperity and emancipation.
Translator's Notes
वज-गतौ गतेस्त्रयोऽर्था:- ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्चणिच् अत्र ज्ञानार्थग्रहणम् ।
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