ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 110/ मन्त्र 1
त॒तं मे॒ अप॒स्तदु॑ तायते॒ पुन॒: स्वादि॑ष्ठा धी॒तिरु॒चथा॑य शस्यते। अ॒यं स॑मु॒द्र इ॒ह वि॒श्वदे॑व्य॒: स्वाहा॑कृतस्य॒ समु॑ तृप्णुत ऋभवः ॥
स्वर सहित पद पाठत॒तम् । मे॒ । अपः॑ । तत् । ऊँ॒ इति॑ । ता॒य॒ते॒ । पुन॒रिति॑ । स्वादि॑ष्ठा । धी॒तिः । उ॒चथा॑य । श॒स्य॒ते॒ । अ॒यम् । स॒मु॒द्रः । इ॒ह । वि॒श्वऽदे॑व्यः॒ । स्वाहा॑ऽकृतस्य । सम् । ऊँ॒ इति॑ । तृ॒प्णु॒त॒ । ऋ॒भ॒वः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ततं मे अपस्तदु तायते पुन: स्वादिष्ठा धीतिरुचथाय शस्यते। अयं समुद्र इह विश्वदेव्य: स्वाहाकृतस्य समु तृप्णुत ऋभवः ॥
स्वर रहित पद पाठततम्। मे। अपः। तत्। ऊँ इति। तायते। पुनरिति। स्वादिष्ठा। धीतिः। उचथाय। शस्यते। अयम्। समुद्रः। इह। विश्वऽदेव्यः। स्वाहाऽकृतस्य। सम्। ऊँ इति। तृप्णुत। ऋभवः ॥ १.११०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 110; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वांसो मनुष्याः कथं वर्त्तेरन्नित्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे ऋभवो मेधाविनो विद्वांसो यथेहायं विश्वदेव्यः समुद्रो यथा च युष्माभिः स्वाहाकृतस्योचथाय स्वादिष्ठा धीतिः शस्यते यथो मे ततमपस्तायते तदु पुनरस्मान् येयं संतृप्णुत ॥ १ ॥
पदार्थः
(ततम्) विस्तृतम् (मे) मम (अपः) कर्म (तत्) तथा (उ) वितर्के (तायते) पालयति। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (पुनः) (स्वादिष्ठा) अतिशयेन स्वाद्वी (धीतिः) धीः (उचथाय) प्रवचनायाध्यापनाय (शस्यते) (अयम्) (समुद्रः) सागरः (इह) अस्मिँल्लोके (विश्वदेव्यः) विश्वान्समग्रान् देवान् दिव्यगुणानर्हति (स्वाहाकृतस्य) सत्यवाङ्निष्पन्नस्य धर्मस्य (सम्) (उ) (तृप्णुत) सुखयत (ऋभवः) मेधाविनः। ऋभुरिति मेधाविना०। निघं० ३। १५। अत्राह निरुक्तकारः−ऋभव उरुभान्तीति वर्त्तेन भान्तीति वर्त्तेन भवन्तीति वा। निरु० ११। १५। ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्र लुप्तोपमालङ्कारः। यथा समस्तरत्नैर्युक्तः सागरो दिव्यगुणो वर्त्तते तथैव धार्मिकैरध्यापकैर्मनुष्येषु सत्यकर्मप्रज्ञे प्रचार्य्य दिव्यगुणाः प्रसिद्धाः कार्य्याः ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब ११० एकसौ दशवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र से विद्वान् मनुष्य कैसे अपना वर्त्ताव रक्खें, यह उपदेश किया है ।
पदार्थ
हे (ऋभवः) हे बुद्धिमान् विद्वानो ! तुम लोग जैसे (इह) इस लोक में (अयम्) यह (विश्वदेव्यः) समस्त अच्छे गुणों के योग्य (समुद्रः) समुद्र है और जैसे तुम लोगों में (स्वाहाकृतस्य) सत्य वाणी से उत्पन्न हुए धर्म के (उचथाय) कहने के लिये (स्वादिष्ठा) अतीव मधुर गुणवाली (धीतिः) बुद्धि (शस्यते) प्रशंसनीय होती है (उ) वा जैसे (मे) मेरा (ततम्) बहुत फैला हुआ अर्थात् सबको विदित (अपः) काम (तायते) पालना करता है (तत्, उ, पुनः) वैसे फिर तो हम लोगों को (सम्, तृप्णुत) अच्छा तृप्त करो ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में लुप्तोपमालङ्कार है। जैसे समस्त रत्नों से भरा हुआ समुद्र दिव्य गुणयुक्त है, वैसे ही धार्मिक पढ़ानेवालों को चाहिये कि मनुष्यों में सत्य काम और अच्छी बुद्धि का प्रचारकर दिव्य गुणों की प्रसिद्धि करें ॥ १ ॥
विषय
कर्मशीलता व यज्ञशेष का सेवन
पदार्थ
१. (मे) = मुझसे (अपः) = कर्म का (ततम्) = विस्तार किया गया है (उ) = और (तत्) = वह कर्म (पुनः) = फिर (तायते) = विस्तृत किया जाता है । ऋभुओं का जीवन क्रियामय होता है । इनके जीवन में अकर्मण्यता का निवास नहीं होता । वस्तुतः इस क्रियाशीलता के कारण ही इनके जीवन में शक्ति व प्रकाश बने रहते हैं । इसी क्रियाशीलता पर सारी पवित्रता निर्भर है ।
२. इन ऋभुओं से (उचथाय) = स्तुति के योग्य प्रभु के लिए (स्वादिष्ठा) = अनुपम रस को देनेवाली (धीतिः) = स्तुति (शस्यते) = उच्चारण की जाती है । ऋभु लोग प्रभु का स्तवन करते हैं । इस स्तवन में वे अवर्णनीय आनन्द का अनुभव करते हैं । वे यह अनुभव करते हैं कि (अयं समुद्रः) = ये प्रभु [स+मुद्] आनन्दमय हैं , (इह) = इस हमारे जीवन में (विश्वदेव्यः) = सब देवों के लिए हितकर हैं , अर्थात् प्रभु के उपासन से हमारे जीवनों में दिव्यगुणों का विकास होता है । प्रभु की दिव्यता हमारे जीवनों में भी उतरती है ।
३. इन ऋभुओं से प्रभु कहते हैं कि (उ) = सचमुच (ऋभवः) = ऋभु इस सार्थक नामवाले होने के लिए तुम (स्वाहाकृतस्य) = उस अन्न से जो अग्नि में व लोकहित के कार्यों में आहुत हुआ है , (सम् तृप्णुत) = अच्छी प्रकार तृप्ति को प्राप्त करो , अर्थात् तुम सदा यज्ञशेष का सेवन करनेवाले बनो ।
भावार्थ
भावार्थ - ऋभु [क] कर्मशील होते हैं , [ख] प्रभुस्तवन में आनन्द का अनुभव करते हैं , [ग] प्रभु को आनन्दमय व सब दिव्यताओं के स्रोत के रूप में देखते हैं , [घ] यज्ञशेष का सेवन करते हैं ।
विषय
विद्वानों, शिल्पिजनों तथा वीर पुरुषों के कर्तव्य, उत्तम कोटि के मुमुक्ष जनों के लिये उपदेश ।
भावार्थ
( मे ) मेरा ( अपः ) उत्तम ज्ञान और कर्म ( ततम् ) अति विस्तृत होकर ( पुनः ) फिर भी ( तत् उ ) उसी प्रकार पूर्ववत् (तायते) अधीन द्रव्यों और शिष्यों की रक्षा करता फैलाता और गुरुपरम्परा से शिष्यादि को उत्पन्न करता है, ( स्वादिष्ठा ) अति स्वादुयुक्त, मधुर ( धीतिः ) रसधारा के समान ज्ञानधारा ( उचथाय ) प्रवचन अर्थात् उपदेश के लिये अथवा अध्याप्य शिष्य के हितार्थ ( शस्यते ) उपदेश की जाती है (अयं) यह आश्चर्यकारी विद्वान् पुरुष (विश्वदेव्यः) समस्त दिव्य रत्नों से भरे ( समुद्रः ) समुद्र के समान ( विश्वदेव्यः ) उत्तम गुणों और विद्या के प्रकाशों से परिपूर्ण है । हे ( ऋभवः ) आप्त, सत्य ज्ञान, वेद से सुशोभित होने वाले विद्वान् योग्य पुरुषो ! आप लोग ( स्वाहा कृतस्य ) उत्तम उपदेश-प्रद वाणी द्वारा उपदेश किये गये ज्ञानरस से ( सम् तृष्णुत उ ) अच्छी प्रकार स्वयं तृप्त होओ और अन्यों को भी तृप्त करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आङ्गिरस ऋषिः ॥ ऋभवो देवता । छन्दः- १, ४ जगती । २, ३, ७ विराड् जगती । ६, ८ निचृज्जगती । ५ निचृत्त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् । नवर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात बुद्धिमानाचे कार्य व गुण यांचे वर्णन केलेले आहे. त्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे ॥
भावार्थ
या मंत्रात लुप्तोपमालंकार आहे. जसा संपूर्ण रत्नांनी भरलेला सागर दिव्य गुणांनी युक्त असतो तसेच धार्मिक शिकवण देणाऱ्यांनी माणसांमध्ये सत्य कर्म व उत्तम बुद्धीचा प्रचार करून दिव्य गुणांना प्रकट करावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Wide is my knowledge and action and it continues growing wider and higher. Sweet is my word and wisdom worthy of approval and appreciation in discourse and communication. Deep as the ocean is this world of knowledge, wisdom and dharmic action, divine and adorable, distilled from the voice of Divinity. Come, devotees of knowledge and wisdom and leaders of noble action, and drink of it to your heart’s content.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should learned men behave is taught in the first Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Rebus (geniuses) as there is the ocean full of gems or divine attributes, as you have the sweetest intellect for teaching and preaching Dharma revealed through the True Vedic Speech, as the noble deed done by me protects and preserves me, in the same manner, make us fully happy again and again.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(तायते) पालयति । अन्तर्गतोण्यर्थ:= Protects (उचथाय) प्रवचनाय, अध्यापनाय = For teaching and preaching. (स्वाहाकृतस्य ) सत्यवाङ् निष्पन्नस्य धर्मस्य | = Of the Dharma revealed through the True Vedic Speech. (ऋभव:) मेधाविनः । ऋभुरिति मेधाविनाम अत्राह निरुक्तकार: ऋभव : उरुभान्तिीति वा ऋतेन भान्तीति वा ऋतेन भवन्तीतिवा = Geniuses who shine much with truth.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the ocean full of all gems is endowed with divine attributes, in the same manner, righteous teachers should manifest divine virtues among the people by preaching noble deeds and good intellect.
Translator's Notes
तायते is from तायृ सत्तानपालनयो: अत्रपालनार्थ ग्रहणम् उचथाय is derived from बच-परिभाषणे स्वाहेति वाङ्नाम (निघ० १. ११ ) ।
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