ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 115/ मन्त्र 1
ऋषिः - कुत्स आङ्गिरसः
देवता - सूर्यः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
चि॒त्रं दे॒वाना॒मुद॑गा॒दनी॑कं॒ चक्षु॑र्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्या॒ग्नेः। आप्रा॒ द्यावा॑पृथि॒वी अ॒न्तरि॑क्षं॒ सूर्य॑ आ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च ॥
स्वर सहित पद पाठचि॒त्रम् । दे॒वाना॑म् । उत् । अ॒गा॒त् । अनी॑कम् । चक्षुः॑ । मि॒त्रस्य॑ । वरु॑णस्य । अ॒ग्नेः । आ । अ॒प्राः॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । अ॒न्तरि॑क्षम् । सूर्यः॑ । आ॒त्मा । जग॑तः । त॒स्थुषः॑ । च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
चित्रं देवानामुदगादनीकं चक्षुर्मित्रस्य वरुणस्याग्नेः। आप्रा द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं सूर्य आत्मा जगतस्तस्थुषश्च ॥
स्वर रहित पद पाठचित्रम्। देवानाम्। उत्। अगात्। अनीकम्। चक्षुः। मित्रस्य। वरुणस्य। अग्नेः। आ। अप्राः। द्यावापृथिवी इति। अन्तरिक्षम्। सूर्यः। आत्मा। जगतः। तस्थुषः। च ॥ १.११५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 115; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादावीश्वरगुणा उपदिश्यन्ते ।
अन्वयः
हे मनुष्या यदनीकं देवानां मित्रस्य वरुणस्याग्नेश्चित्रं चक्षुरुदगाद्यो जगदीश्वरः सूर्य इव विज्ञानमयो जगतस्तस्थुषश्चात्मा योऽन्तरिक्षं द्यावापृथिवी चाप्राः परिपूरितवानस्ति तमेव यूयमुपाध्वम् ॥ १ ॥
पदार्थः
(चित्रम्) अद्भुतम् (देवानाम्) विदुषां दिव्यानां पदार्थानां वा (उत्) उत्कृष्टतया (अगात्) प्राप्तमस्ति (अनीकम्) चक्षुरादीन्द्रियैरप्राप्तम् (चक्षुः) दर्शकं ब्रह्म (मित्रस्य) सुहृद इव वर्त्तमानस्य सूर्यस्य (वरुणस्य) आह्लादकस्य जलचन्द्रादेः (अग्नेः) विद्युदादेः (आ) समन्तात् (अप्राः) पूरितवान् (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (अन्तरिक्षम्) आकाशम् (सूर्यः) सवितेव ज्ञानप्रकाशः (आत्मा) अतति सर्वत्र व्याप्नोति सर्वान्तर्यामी (जगतः) जङ्गमस्य (तस्थुषः) स्थावरस्य (च) सकलजीवसमुच्चये ॥ १ ॥
भावार्थः
न खलु दृश्यं परिच्छिन्नं वस्तु परमात्मा भवितुमर्हति, नो कश्चिदप्यव्यक्तेन सर्वशक्तिमता जगदीश्वरेण विना सर्वस्य जगत उत्पादनं कर्त्तुं शक्नोति, नैव कश्चित् सर्वव्यापकसच्चिदानन्दस्वरूपमनन्तमन्तर्यामिणं सर्वात्मानं परमेश्वरमन्तरा जगद्धर्त्तुं जीवानां पापपुण्यानां साक्षित्वं फलदानं च कर्त्तमर्हति, नह्येतस्योपासनया विना धर्मार्थकाममोक्षान् लब्धुं कोऽपि जीवः शक्नोति, तस्मादयमेवोपास्य इष्टदेवः सर्वैर्मन्तव्यः ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब ६ छः ऋचावाले एकसौ पन्द्रहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (अनीकम्) नेत्र से नहीं देखने में आता तथा (देवानाम्) विद्वान् और अच्छे-अच्छे पदार्थों वा (मित्रस्य) मित्र के समान वर्त्तमान सूर्य वा (वरुणस्य) आनन्द देनेवाले जल, चन्द्रलोक और अपनी व्याप्ति आदि पदार्थों वा (अग्नेः) बिजुली आदि अग्नि वा और सब पदार्थों का (चित्रम्) अद्भुत (चक्षुः) दिखानेवाला है, वह ब्रह्म (उदगात्) उत्कर्षता से प्राप्त है। जो जगदीश्वर (सूर्य्यः) सूर्य्य के समान ज्ञान का प्रकाश करनेवाला विज्ञान से परिपूर्ण (जगतः) जङ्गम (च) और (तस्थुषः) स्थावर अर्थात् चराचर जगत् का (आत्मा) अन्तर्यामी अर्थात् जिसने (अन्तरिक्षम्) आकाश (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमिलोक को (आ, अप्राः) अच्छे प्रकार परिपूर्ण किया अर्थात् उनमें आप भर रहा है, उसी परमात्मा की तुम लोग उपासना करो ॥ १ ॥
भावार्थ
जो देखने योग्य परिमाणवाला पदार्थ है वह परमात्मा होने को योग्य नहीं। न कोई भी उस अव्यक्त सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर के विना समस्त जगत् को उत्पन्न कर सकता है और न कोई सर्वव्यापक, सच्चिदानन्दस्वरूप, अनन्त, अन्तर्यामी, चराचर जगत् के आत्मा परमेश्वर के विना संसार के धारण करने, जीवों को पाप और पुण्यों को साक्षीपन और उनके अनुसार जीवों को सुख-दुःख रूप फल देने को योग्य है। न इस परमेश्वर की उपासना के विना धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के पाने को कोई जीव समर्थ होता है, इससे यही परमेश्वर उपासना करने योग्य इष्टदेव सबको मानना चाहिये ॥ १ ॥
विषय
अद्भुत सूर्यमण्डल
पदार्थ
१. (देवानाम्) = [दीव्यन्तीति देवा , रश्मयः] रश्मियों का (अनीकम्) = तेजः समूहरूप (चित्रम्) = आश्चर्यकर सूर्यमण्डल (उदगात्) = उदय हुआ है । यह सूर्यमण्डल (मित्रस्य) = द्युलोकस्थ किरणों द्वारा रोगनाशक और मृत्यु से बचानेवाले देव [सूर्य] का , (वरुणस्य) = अन्तरिक्षलोकस्थ दुःखनिवारक चन्द्र का , (अग्नेः) = अग्रगति के साधक पृथिवीलोकस्थ अग्नि का (चक्षुः) = प्रकाशक है । सूर्यमण्डल सूर्य का , अर्थात् स्वयं अपना तो प्रकाशक है ही , चन्द्र व अग्नि को भी वह प्रकाश देनेवाला है । २. यह सूर्यप्रकाश (द्यावापृथिवी) = द्युलोक व पृथिवीलोक को (अन्तरिक्षम्) = अन्तरिक्षलोक को (आप्राः) = पूर्णरूपेण व्याप्त किये हुए है । सूर्य का प्रकाश त्रिलोकी में फैल जाता है । (सूर्यः) = यह सूर्य - इस सूर्य का अधिष्ठातृदेव प्रभु (जगतः तस्थुषः च) = जंगम और स्थावरस्वरूप जगत् का (आत्मा) = आत्मा है - “योऽसावादित्ये पुरुषः”- सूर्यमण्डलान्तवर्ती , अधिष्ठातृरूपेण स्थित प्रभु सारे जंगम - स्थावर पदार्थों के अन्दर स्थित होता हुआ उन सब पदार्थों को विभूति , श्री व ऊर्जा प्राप्त करा रहा है ।
भावार्थ
भावार्थ - सूर्य का प्रकाश हमें मृत्यु से बचानेवाला है [मित्र] । यह हमारे रोगों का निवारण करनेवाला है [वरुण] । यह हमारी उन्नति का साधक है [अग्नि] ।
विषय
परमेश्वर की स्तुति, विद्वान् तेजस्वी पुरुष के कर्तव्य ।
भावार्थ
( सूर्यः ) सूर्य जिस प्रकार ( देवानाम् ) किरणों का ( अनीकम् ) समूह रूप, तेजोमय है । वह ( मित्रस्य वरुणस्य अग्नेः चित्रं चक्षुः ) मित्र अर्थात् वायु, प्राण, वरुण अर्थात् मेघ या जल और अग्नि इन सबको आश्चर्य कर रूप से दिखाने वाला, सबका प्रकाशक चक्षु के समान ( उत् अगात् ) सबका साक्षी रूप सा होकर उदय को प्राप्त होता है और वह ( द्यावा पृथिवी अन्तरिक्षं ) आकाश, पृथिवी और वायुमण्डल सबको प्रकाश से पूर देता है और ( जगतः तस्थुषः च आत्मा ) जंगम और स्थावर दोनों के जीवन के समान है । (२) उसी प्रकार परमेश्वर (देवानां) समस्त तेजस्वी पदार्थों और विद्वानों का ( चित्रं चक्षुः ) आश्चर्यकारी प्रकाशक, ज्ञानदर्शक और मार्गदर्शक, चक्षु के समान सर्वसाक्षी है । वह ( अनीकम् ) बलस्वरूप एवं चक्षु आदि से ग्रहण भी नहीं किया जाता है । वह ( मित्रस्य वरुणस्य अग्नेः चक्षुः ) प्राण, अपान, जाठर, तथा वायु जल और अग्नि सब का ( चित्रं चक्षुः ) अद्भुत द्रष्टा और प्रवर्त्तक है । वह ( सूर्यः ) सबका प्रेरक होकर ( द्यावापृथिवी अन्तरिक्षं आ अप्राः ) आकाश पृथिवी और अन्तरिक्ष तीनों लोकों में व्याप रहा है । वह ही ( जगतः तस्थुषः च आत्मा ) स्थावर जंगम सब में व्यापक, सबका अन्तर्यामी है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स ऋषिः॥ सूर्यो देवता॥ छन्दः- १, २, ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ३ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ५ त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात सूर्य शब्दाने ईश्वर व सूर्यलोकाच्या अर्थाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे. ॥
भावार्थ
जो दृश्यमान परिमाणयुक्त पदार्थ असतो तो परमात्मा नसतो. कोणीही त्या अव्यक्त सर्वशक्तिमान जगदीश्वराखेरीज संपूर्ण जगाला उत्पन्न करू शकत नाही. सर्वव्यापक, सच्चिदानंदस्वरूप अनंत, अंतर्यामी, चराचर जगाचा आत्मा अशा परमेश्वराखेरीज संसार धारण करणे, जीवांच्या पापपुण्याच्या साक्षी असणे, त्यानुसार जीवांना सुख दुःखरूपी फळ देणे, हे कोणी करू शकत नाही. परमेश्वराच्या उपासनेशिवाय धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष प्राप्त करण्यास जीव समर्थ बनू शकत नाही. त्यासाठी सर्वांनी परमेश्वरच उपासना करण्यायोग्य इष्टदेव आहे, हे मानले पाहिजे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Lo! there rises the sun, wonderful image of Divinity, the very eye of Mitra, heaven, the soothing cool of Varuna, the waters, and the beauty of the moon. It pervades and fills the heaven and earth and the middle regions of the sky. It is indeed the very soul of the moving and the unmoving world.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
In the first Mantra, the attributes of God are taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, you should adore only that God who is wonderful, who cannot be attained by eyes and other senses, who is the Illuminator of the sun, the moon, the fire or electricity etc. He has filled up the heaven, the earth and the firmament. He is the Creator and the Spirit of all the movable objects. He the Divine Sun is always before us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(चक्षु:) दर्शकं ब्रह्म = God the illuminator of all. (अनीकम् ) चक्षुरादीन्द्रियैरप्राप्तम् = Not attained by the eyes and other senses. (सूर्य:) सवितेव ज्ञानप्रकाशः = Who like the sun is full of and giver of the light of knowledge. (आत्मा) अतति सर्वत्र व्याप्नोति सर्वान्तर्यामी = Omnipresent and Innermost Soul of all.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
No visible and finite object can be God. None except the omnipotent God can create this word, not except the omnipresent, Infinite, All blissful innermost Spirit of all beings can uphold the universe, can be the witness of all sins and merits, can give the fruit of all actions. Without communion with Him, none can attain Dharma (righteousness) Arth a (wealth) Kama (fulfilment of noble desires) and Moksha (emancipation). Therefore He alone should be regarded as adorable by all.
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