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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 116 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 116/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नास॑त्याभ्यां ब॒र्हिरि॑व॒ प्र वृ॑ञ्जे॒ स्तोमाँ॑ इयर्म्य॒भ्रिये॑व॒ वात॑:। यावर्भ॑गाय विम॒दाय॑ जा॒यां से॑ना॒जुवा॑ न्यू॒हतू॒ रथे॑न ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नास॑त्याभ्याम् । ब॒र्हिःऽइ॑व । प्र । वृ॒ञ्जे॒ । स्तोमा॑न् । इ॒य॒र्मि॒ । अ॒भ्रिया॑ऽइव । वातः॑ । यौ । अर्भ॑गाय । वि॒ऽम॒दाय॑ । जा॒याम् । से॒ना॒ऽजुवा॑ । नि॒ऽऊ॒हतुः॑ । रथे॑न ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नासत्याभ्यां बर्हिरिव प्र वृञ्जे स्तोमाँ इयर्म्यभ्रियेव वात:। यावर्भगाय विमदाय जायां सेनाजुवा न्यूहतू रथेन ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नासत्याभ्याम्। बर्हिःऽइव। प्र। वृञ्जे। स्तोमान्। इयर्मि। अभ्रियाऽइव। वातः। यौ। अर्भगाय। विऽमदाय। जायाम्। सेनाऽजुवा। निऽऊहतुः। रथेन ॥ १.११६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 116; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 8; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ शिल्पविषयमाह ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यथा नासत्याभ्यां शिल्पिभ्यां योजितेन रथेन यौ सेनाजुवाऽर्भगाय विमदाय जायामिव संभारान् न्यूहतुस्तथा प्रयत्नवानहं स्तोमान् बर्हिरिव प्रवृञ्जे वातोऽभ्रियेव सद्य इयर्मि ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (नासत्याभ्याम्) अविद्यमानासत्याभ्यां पुण्यात्मभ्यां शिल्पिभ्याम् (बर्हिरिव) परिबृंहकं छेदकमुदकमिव। बर्हिरित्युदकना०। निघं० १। १२। (प्र) (वृञ्जे) छिनद्मि (स्तोमान्) मार्गाय समूढान् पृथिवीपर्वतादीन् (इयर्मि) गच्छामि (अभ्रियेव) यथाऽभ्रेषु भवान्युदकानि (वातः) पवनः (यौ) (अर्भगाय) ह्रस्वाय बालकाय। अत्र वर्णव्यत्ययेन कस्य गः। (विमदाय) विशिष्टो मदो हर्षो यस्मात्तस्मै (जायाम्) पत्नीम् (सेनाजुवा) वेगेन सेनां गमयितारौ (न्यूहतुः) नितरां देशान्तरं प्रापयतः (रथेन) विमानादियाने ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। यानेषूपकृताः पृथिवीविकारजलाग्न्यादयः किं किमद्भुतं कार्य्यं न साध्नुवन्ति ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब २५ पच्चीस ऋचावाले एकसौ सोलहवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र से शिल्पविद्या के विषय का वर्णन किया है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे (नासत्याभ्याम्) सच्चे पुण्यात्मा शिल्पी अर्थात् कारीगरों ने जोड़े हुए (रथेन) विमानादि रथ से (यौ) जो (सेनाजुवा) वेग के साथ सेना का चलानेहारे दो सेनापति (अर्भगाय) छोटे बालक वा (विमदाय) विशेष जिससे आनन्द होवे उस ज्वान के लिये (जायाम्) स्त्री के समान पदार्थों को (न्यूहतुः) निरन्तर एक देश से दूसरे देश को पहुँचाते हैं, वैसे अच्छा यत्न करता हुआ मैं (स्तोमान्) मार्ग के सूधे होने के लिये बड़े-बड़े पृथिवी, पर्वत आदि को (बर्हिरिव) बढ़े हुए जल को जैसे वैसे (प्र, वृञ्जे) छिन्न-भिन्न करता तथा (वातः) पवन जैसे (अभ्रियेव) बद्दलों को प्राप्त हो वैसे एक देश को (इयर्मि) जाता हूँ ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। रथ आदि यानों में उपकारी किए पृथिवी विकार, जल और अग्नि आदि पदार्थ क्या-क्या अद्भुत कार्यों को सिद्ध नहीं करते हैं ? ॥ १ ॥

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    विषय

    विमद के लिए जाया की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. कक्षीवान् संकल्प करता है कि (नासत्याभ्याम्) = प्राणापान की साधना करता हुआ इनके द्वारा (बर्हिः इव) = घास की भाँति (प्रवृञ्जे) = अवाञ्छनीय वासनाओं को काट गिराता है । जैसे खेत में से अवाञ्छनीय घास - फूस को उखाड़ देते हैं , इसी प्रकार हृदय - क्षेत्र में से वासनाओं को उखाड़ने के लिए इन अश्विनीदेवों [प्राणापान] की आराधना करता हूँ । २. (इव) = जैसे (वातः) = वायु (अभिया) = मेघस्थ जलों को प्रेरित करता है , उसी प्रकार में प्राणापान के द्वारा (स्तोमान्) = स्तोमों को (इयर्मि) = प्रेरित करता हूं । प्राणसाधना के द्वारा मुझमें स्तुति का भाव जागरित होता है । ३. ये प्राणापान वे हैं (यौ) = जो (सेनाजुवा) = काम - क्रोधादि शत्रुसैन्य को दूर प्रेरित करनेवाले (रथेन) = शरीर - रथ से (अर्भगाय) = [अर्भः सन् गच्छति] [विनीत] छोटा होकर चलनेवाले के लिए , अपने को बड़ा न माननेवाले के लिए (विमदाय) = मदशून्य पुरुष के लिए (जायाम्) = विकास की कारणभूत वेदवाणीरूप पत्नी को (न्यूहतुः) = निश्चय से प्राप्त कराते हैं । ‘परि मे गामनेषत’ इस मन्त्र में इनके वेदवाणी से परिणय का उल्लेख है । यह वेदवाणी इन्हें धर्म - मार्ग से विचलित होने से इसी प्रकार बचाती है , जैसे कि पत्नी पति को ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से [क] वासनाएँ उच्छिन्न हो जाती हैं , [ख] स्तुति की भावना जागरित होती है , [ग] वेदवाणी प्राप्त होती है , जो हमें वासनाओं का शिकार होने से बचाती है ।

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    विषय

    दो प्रमुख नायकों तथा विद्वान स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( नासत्याभ्याम् ) जिनका विज्ञान कभी असत्य न हो ऐसे सत्य विद्या, विज्ञान वाले प्रमुख शिल्पियों के उपकार के लिये मैं राजा (स्तोमान्) मार्ग में आये पर्वत वृक्ष आदि बाधक पदार्थों को, तथा ( स्तोमान् ) शत्रु जन-समूहों को ( बर्हिः इव ) घास के समान ( प्र वृञ्जे ) काट गिराऊं । और ( अभ्रिया इव वातः ) वायु जिस प्रकार मेघस्थ जलों को प्रेरता है, छिन्न भिन्न कर देता है उसी प्रकार मैं ( स्तोमान् इयर्मि ) जन-समूहों को अपनी आज्ञा के बल पर चलाऊं। (यौ) जो वे दोनों सत्य विज्ञान वाले ( अर्भगाय ) अति अधिक ऐश्वर्यवान्, (विमदाय) विशेष हर्षोत्पादक युवा पुरुष के लिये ( जायां ) उसकी स्त्री को ( सेनाजुवा ) सेना को अपने साथ संचालन करने वाले ( रथेन ) रथ से ( नि ऊहतुः ) सुरक्षित रूप से ले जाते हैं। (२) अथवा—( नासत्याभ्याम् बर्हिः इव स्तोमान् प्रवृञ्जे ) असत्य व्यवहार रहित या नासिका के समान प्रमुख स्थान पर स्थित दोनों सेनाध्यक्षों के साथ मैं शत्रु गण को ( बर्हिः इव ) कुश तृण के समान काट गिराऊं। और ( वातः अभ्रिया इव स्तोमान् इयर्मि ) मेघों को वायु के समान सैनिक संघों को सञ्चालित करूं। ( यौ सेनाजुवा ) जो वे दोनों सेना के सञ्चालक होकर ( रथेन विमदाय जायां इव ) रथ से विशेष हर्षोत्पादक प्रिय पति के लिये उसकी वधू के समान ( अभंगाय जायां ) अति ऐश्वर्यवान् राजा के निमित्त सर्वोत्पादक सर्वाश्रय भूमि को ( रथेन ) स्थ सेना के बल से ( नि ऊहतुः ) प्राप्त कराते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः– १, १०, २२, २३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८, ९, १२, १३, १४, १५, १८, २०, २४, २५ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४, ५, ७, २१ त्रिष्टुप् । ६, १६, १९ भुरिक् पंक्तिः। ११ पंक्तिः। १७ स्वराट् पंक्तिः॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात पृथ्वी इत्यादी पदार्थांच्या गुणांचे दृष्टांत व अनुकूलतेने सभा सेनापती इत्यादींच्या गुणांच्या वर्णनाने या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्तात सांगितलेल्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. रथ व यानात उपकार करणाऱ्या पृथ्वीपासून रूपांतरित जल व अग्नी इत्यादी पदार्थ कोणकोणते अद्भुत कार्य सिद्ध करू शकत नाहीत बरे? ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Just as the priest selects and plucks sacred grass and spreads it over and around the vedi in celebration, and just as the winds move the vapour laden cloud across the sky, so do I select words of appreciation for the Ashvins, scientist and technologist, sincere and true, compose them into songs of praise and air them over the skies, for the Ashvins, who fly troops of the army by a carrier plane over the mountains like friends flying a damsel for the youthful sober lover.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Some thing relating to art is told in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men; as by the vehicle in the form of an aero plane yoked or driven by absolutely truthful artisans of righteous nature, commanders of the Army carry various articles to distant places, as a mother arranges everything for a child who is source of great joy, so I who am industrious, cut into pieces necessary articles for proper utilization as the water shatters the earth and hillocks etc. or as the wind scatters the clouds full of water ?

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (बर्हि:) परिबृहकं छेदकम् उदकम् बहिरित्युदकनाम (निघ० १ १२ ) = Water. (विमदाय) विशिष्टो मदो हर्षो यस्मात् तस्मै = For the source of great joy. (स्तोमान्) मार्गाय संमूढान् पृथिवीपर्वतादीन् = Earth and stones etc. used for building roads. (नासत्याभ्याम्) अविद्यमानासत्याभ्यां पुण्यात्मभ्यां शिल्पिभ्याम् = By absolutely truthful righteous artisans.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    When water, air and pieces of earth are used methodically in various cars or vehicles, what wonderful works can they not accomplish.

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