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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 117 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 117/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कक्षीवान् देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    मध्व॒: सोम॑स्याश्विना॒ मदा॑य प्र॒त्नो होता वि॑वासते वाम्। ब॒र्हिष्म॑ती रा॒तिर्विश्रि॑ता॒ गीरि॒षा या॑तं नास॒त्योप॒ वाजै॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मध्वः॑ । सोम॑स्य । अ॒श्वि॒ना॒ । मदा॑य । प्र॒त्नः । होता॑ । आ । वि॒वा॒स॒ते॒ । वा॒म् । ब॒र्हिष्म॑ती । रा॒तिः । विऽश्रि॑ता । गीः । इ॒षा । या॒त॒म् । ना॒स॒त्या॒ । उप॑ । वाजैः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मध्व: सोमस्याश्विना मदाय प्रत्नो होता विवासते वाम्। बर्हिष्मती रातिर्विश्रिता गीरिषा यातं नासत्योप वाजै: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मध्वः। सोमस्य। अश्विना। मदाय। प्रत्नः। होता। आ। विवासते। वाम्। बर्हिष्मती। रातिः। विऽश्रिता। गीः। इषा। यातम्। नासत्या। उप। वाजैः ॥ १.११७.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 117; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 8; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजधर्मविषयमाह।

    अन्वयः

    हे अश्विना नासत्या युवामिषा प्रत्नो होता वाजैर्मदाय वां युवयोर्मध्वः सोमस्य या बर्हिष्मती रातिर्विश्रिता गौश्चास्ति तां विवासत इवोपयातम् ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (मध्वः) मधुरस्य (सोमस्य) सोमवल्ल्याद्यौषधस्य। अत्र कर्मणि षष्ठी। (अश्विना) (मदाय) रोगनिवृत्तेरानन्दाय (प्रत्नः) प्राचीनविद्याध्येता (होता) सुखदाता (आ) (विवासते) परिचरति (वाम्) युवयोः (बर्हिष्मती) प्रशस्तवृद्धियुक्ता (रातिः) दत्तिः (विश्रिता) विविधैराप्तैः श्रिता सेविता (गीः) वाग् (इषा) स्वेच्छया (यातम्) प्राप्नुतम् (नासत्या) असत्यात्पृथग्भूतौ (उप) (वाजैः) विज्ञानादिभिर्गुणैः ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे सभासेनेशावाप्तगुणकर्मसेवया विज्ञानादिकमुपगम्य शरीररोगनिवारणाय सोमाद्योषधिविद्याऽविद्यानिवारणाय विद्याश्च संसेव्याभीष्टं सुखं संपादयेतम् ॥ १ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब एकसौ सत्रहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में राजधर्म का उपदेश किया है ।

    पदार्थ

    हे (अश्विना) विद्या में रमे हुए (नासत्या) झूठ से अलग रहनेवाले सभा सेनाधीशो ! तुम दोनों (इषा) अपनी इच्छा से (प्रत्नः) पुरानी विद्या पढ़नेहारा (होता) सुखदाता जैसे (वाजैः) विज्ञान आदि गुणों के साथ (मदाय) रोग दूर होने के आनन्द के लिये (वाम्) तुम दोनों की (मध्वः) मीठी (सोमस्य) सोमवल्ली आदि औषध की जो (बर्हिष्मती) प्रशंसित बढ़ी हुई (रातिः) दानक्रिया और (विश्रिता) विविध प्रकार के शास्त्रवक्ता विद्वानों ने सेवन की हुई (गीः) वाणी है, उसका जो (आ, विवासते) अच्छे प्रकार सेवन करता है, उसके समान (उप, यातम्) समीप आ रहो अर्थात् उक्त अपनी क्रिया और वाणी का ज्यों का त्यों प्रचार करते रहो ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे सभा और सेना के अधीशो ! तुम उत्तम शास्त्रवेत्ता विद्वानों के गुण और कर्मों की सेवा से विशेष ज्ञान आदि को पाकर शरीर के रोग दूर करने के लिये सोमवल्ली आदि ओषधियों की विद्या और अविद्या अज्ञान के दूर करने को विद्या का सेवन कर चाहे हुए सुख की सिद्धि करो ॥ १ ॥

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    विषय

    इष और वाज

    पदार्थ

    १. (अश्विना) = हे प्राणापानो ! (मध्वः सोमस्य) = माधुर्ययुक्त सोम - सम्बन्धी (मदाय) = आनन्द की प्राप्ति के लिए , शरीर में वीर्य के सुरक्षित रहने से जिस आनन्द की प्राप्ति होती है , उस आनन्द - लाभ के लिए (वाम्) = आपका यह (प्रत्नः) = पुराना (होता) = आपके प्रति अपना अर्पण करनेवाला (विवासते) = आपकी परिचर्या करता है । सोम शरीर में सुरक्षित होकर स्वभाव के माधुर्य को उत्पन्न करता है , इसीलिए सोम को यहाँ मधु कहा गया है । प्राणसाधना के द्वारा ही इस सोम की शरीर में ऊर्ध्वगति होती है , इसलिए कक्षीवान् प्राणसाधना के लिए कटिबद्ध होता है , वह मानो अपने को प्राणों के प्रति अर्पित ही कर देता है । २. हे प्राणापानो ! आपका (रातिः) = दान (बर्हिष्मती) = सब प्रकार से हमारी वृद्धि का कारण बनता है [बृहि वृद्धौ] । प्राणसाधना से हमें जो कुछ प्राप्त होता है , वह सब हमारी उन्नति का साधन होता है । इस साधना से शरीर स्वस्थ व सबल बनता है , मन व इन्द्रियाँ पवित्र व निर्दोष होती हैं , बुद्धि तीन होती है और (गीः) = ज्ञान की वाणी (विश्रिता) = विशेषरूप से हमारा आश्रय करती है । सूक्ष्म बुद्धि उन ज्ञान की वाणियों को अच्छी प्रकार ग्रहण करनेवाली होती है । ३. हे (नासत्या) = सब असत्यों को दूर करनेवाले प्राणापानो ! आप (इषा) = प्रभु - प्रेरणा के साथ तथा (वाजैः) = शक्तियों के साथ (उप आयातम्) = हमें समीपता से प्राप्त होओ । प्राणसाधना हृदय के आवरण को दूर करके हमें प्रभु - प्रेरणा को सुनने के योग्य बनाती है और साथ ही यह साधना हमें वह शक्ति भी देती है जिससे कि हम उस प्रेरणा के अनुसार कार्य कर सकें ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से शरीर में वीर्य की ऊर्ध्वगति होती है । हम तीव्र बुद्धिवाले बनकर ज्ञान की वाणियों के आधार बनते हैं , प्रभु - प्रेरणा को सुन पाते हैं और उसे कार्यान्वित करनेवाले होते हैं ।

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    विषय

    विद्वान् प्रमुख नायकों तथा स्त्री पुरुषों के कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अश्विना ) विद्या पारंगत, मनस्वी, विद्वान् पुरुषो ! या राजा रानी ! ( मध्वः ) मधुर अन्न तथा ( सोमस्य ) ओषधि रस के समान आनन्दप्रद् ऐश्वर्य के ( मदाय ) आनन्द लाभ तथा दमन करने के लिये ( प्रत्नः ) अति बुद्ध, ज्ञानानुभवी ( होता ), ‘होता’ नामक योग्य पुरुषों को योग्य कार्याधिकार सौंपने हारा विद्वान् पुरुष ( वाम् ) आप दोनों के प्रति ( आ विवासते ) सब बात खोल कर कहता है । आप का ( बर्हिष्मती रातिः ) दान प्रजा के सुख वृद्धि करने वाला हो। ( गीः ) और आप दोनों की वाणी (विश्रिता) विविध विद्वानों तथा अधिकारी वर्गों द्वारा सेवन की जाने योग्य हो । हे ( नासत्या ) प्रमुख पुरुषो ! आप दोनों ( बाजैः ) ऐश्वर्यो सहित हमें ( इषा ) सेना और अनादि समृद्धि और अनुकूल इच्छा सहित ( उप यातम् ) प्राप्त होवो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कक्षीवानृषिः॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः–१ निचृत् पंक्तिः । ६, २२ विराट् पंक्तिः। २१, २५, ३१ भुरिक पंक्तिः। २, ४, ७, १२, १६, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८, ९, १०, १३-१५, २०, २३ विराट् त्रिष्टुप् । ३, ५, २४ त्रिष्टुप् ॥ धैवतः ॥ पञ्चविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात राजा, प्रजा व अध्ययन-अध्यापन इत्यादी कामांच्या वर्णनाने पूर्वसूक्तार्थाबरोबर या सूक्ताच्या अर्थाची संगती आहे, हे जाणले पाहिजे.

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे सभा व सेनेच्या अधिपतींनो! तुम्ही उत्तम शास्त्रवेत्ते व विद्वान यांच्या गुण कर्माचे सेवन करून विशेष ज्ञान प्राप्त करावे. शरीराचे रोग दूर करण्यासाठी सोमवल्ली इत्यादी औषधी विद्या ग्रहण करावी व अविद्या - अज्ञान दूर करण्यासाठी विद्येचे सेवन करून इच्छित सुख सिद्ध करावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, lovers and defenders of truth, givers of health and joy, the veteran yajaka, high-priest of knowledge, invokes you for the honey sweets of soma’s joy for the health and ecstasy of living. Brilliant and blissful is your gift of peace and prosperity, celebrated is your voice and wisdom. Come with your gifts of food and energy and the vibrant ways of living and advancement at the fastest.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a King are taught in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O absolutely truthful President of the assembly and Commander of the Army, a man who is the Scholar of ancient lore(Veda) giver of happiness to all, voluntarily serves you for the enjoyment of bliss by the elimination of all diseases with the virtues like knowledge and others He gladly accepts your gift of sweet Soma juice of some nourishing and invigorating herbs, which augments all physical and mental faculties and which is resorted to by truthful learned persons and he delights in your true and pleasant speech. Please come to us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (प्रत्न:) प्राचीनविद्याध्येता = A Scholar of ancient lore. (बर्हिष्मती) प्रशस्तवृद्धियुक्ता = Augmenter of all faculties. (वाजै:) विज्ञानादिभिर्गुणैः = By virtues like knowledge and others.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O President of the Assembly and commander of the Army, enjoy all desirable happiness by acquiring knowledge by serving absolutely truthful persons and by bearing their attributes and their noble acts, by taking Soma and other medicinal juices for the removal of all Physical diseases and ignorance of medical and other subjects by the study of various sciences.

    Translator's Notes

    The word बर्हि: is derived from बृह-वृद्धौ वाज is derived from वज-गती गतेस्त्रयोऽर्था: ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च here the first meaning of knowledge has been taken.

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